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✍️ शब्दकार ©
⛲ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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धीरे - धीरे मर रही, नमी मनुज की आज।
पानी सूखा आँख का, जड़ हो गया समाज।।
सूखी डाली आम की,कैसे दे वह आम।
शेष जलाना ही रहा,औऱ न कोई काम।।
नमी रहे तो नमन है, नर जड़ता का धाम।
नित्य प्रेम - जल सींचिये,जपते रहिए राम।।
नमता से है नम्रता, आते भाव विनीत।
वाणी में माधुर्य हो,शुभ जीवन - संगीत।।
नम को उलटा कर पढ़ें, बन जाता मन एक।
मनन सुचित मंथन करें,जागे विमल विवेक।
नम में नभ व्यापित सदा,बरसे शीतल मेह।
प्रकृति-सुंदरी नाचती,झर- झर झरता नेह।।
हृदय सूखने लग गए,रक्त हुआ तन सेत।
बंजर मनुज - समाज में,उड़ती देखी रेत।।
नाली में पानी बहे, वैसा रक्त - प्रवाह।
देख मनुज उर में बढ़ा,प्रति दिन तीव्र प्रदाह।
नम धरती में बीज का,उगता अंकुर नेक।
बार-बार सिंचित हुआ,बना मनुज की टेक।।
पशु,पक्षी,पौधे, लता, धरती , सरित महान।
मानव,जीवित जंतु सब,नमता के अभिधान।
'शुभम' नमन उनको करें,जो नमता के स्रोत।
नमी हृदय में हम भरें,शुष्क न हो तन-पोत।।
🪴 शुभमस्तु !
११.१२.२०२१◆११.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।
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