शनिवार, 11 दिसंबर 2021

नमी ⛲ [ दोहा ]

  

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✍️ शब्दकार ©

⛲ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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धीरे - धीरे  मर  रही, नमी मनुज  की आज।

पानी सूखा आँख का, जड़ हो गया समाज।।


सूखी  डाली  आम  की,कैसे दे  वह  आम।

शेष  जलाना  ही  रहा,औऱ न कोई  काम।।


नमी  रहे  तो  नमन है, नर जड़ता का धाम।

नित्य प्रेम - जल सींचिये,जपते रहिए राम।।


नमता से  है  नम्रता, आते भाव     विनीत।

वाणी  में  माधुर्य  हो,शुभ जीवन - संगीत।।


नम को  उलटा कर पढ़ें, बन जाता मन एक।

मनन सुचित मंथन करें,जागे विमल विवेक।


नम में नभ व्यापित सदा,बरसे शीतल मेह।

प्रकृति-सुंदरी नाचती,झर- झर झरता नेह।।


हृदय  सूखने  लग गए,रक्त हुआ  तन  सेत।

बंजर  मनुज - समाज में,उड़ती  देखी रेत।।


नाली  में   पानी   बहे,  वैसा रक्त  -  प्रवाह।

देख मनुज उर में बढ़ा,प्रति दिन तीव्र प्रदाह।


नम  धरती में बीज का,उगता अंकुर   नेक।

बार-बार सिंचित हुआ,बना मनुज की टेक।।


पशु,पक्षी,पौधे, लता, धरती , सरित महान।

मानव,जीवित जंतु सब,नमता के अभिधान।


'शुभम' नमन उनको करें,जो नमता के स्रोत।

नमी हृदय में हम भरें,शुष्क न हो तन-पोत।।


🪴 शुभमस्तु !


११.१२.२०२१◆११.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।

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