■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
✍️ शब्दकार ©
🦋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
जैसे थे हम्माम में
वैसे ही
बाहर चले आए!
अपनी निर्लज्ज दृष्टि
उठाने में
लेश मात्र भी न शरमाए!
धन्य है बेशर्मी की
सीमा ही टूट गई,
देश की अस्मिता
धृतराष्ट्रों की मिट ही गई।
संभवतः मर ही चुकी है
नैतिकता ,
चरम उत्कर्ष है यह
तुम्हारी अधोगति का!
अब तक तो
मर जाना चाहिए था
चुल्लू भर
पानी में!
क्या तुम्हारे जैसे
और भी हैं
तुम्हारी सानी में?
किसे है चिंता
देश की ,
परिवेश की,
मूल्यों के उन्मेष की!
पतन कहते हैं
इसी को,
जब कर्णधारों की
नैतिकता का जल
सूख जाए,
पतन- गर्त में
पतित संतति हेतु
स्वयं पंक में
धँस जाए,
फिर भी निर्लज्ज
हेकड़ी दिखलाए!
बची रहे बस
अपनी ऊँची कुरसी!
उसी से तो है
मगज़ में भरी तुरसी!
नैतिकता मर गई
औऱ जीवित लाश
लिए फिरता है!
क्या कोई भी
इतना भी नीचे गिरता है?
तुम्हारे रक्षक और
पक्षधर भी
उसी चरित्र के हैं,
जिन्हें बस
महाधृतराष्ट्र बन,
तुम्हें बचाना है,
तुम्हारी निर्लज्जता में
एक और एक
ग्यारह हो जाना है,
भारत माता के
ललाट को
और नीचे झुकाना है।
🪴 शुभमस्तु !
१७.१२.२०२१◆५.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें