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✍️ शब्दकार ©
🦃 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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बार - बार उस ओर लौटता,
जिससे बाहर आया है।
प्रत्यावर्तन की अति अद्भुत,
जीवन की शुभ माया है।।
धन - ऋण का आकर्षण भारी,
करता है आह्वान सदा।
साज सृजन का चलता प्रतिपल,
रुकता नहीं विकास कदा।।
मानव, पशु, पक्षी, खगदल में,
शुचि आकर्षण छाया है।
बार - बार उस ओर लौटता,
जिससे बाहर आया है।।
सुमन पहनते रंग - बिरंगे,
मह - मह महक रहे परिधान।
कीट - पतंगों के मिस लेते,
मादा पुष्प पराग विहान।।
फल के अंदर बीज पनपते,
ऋतु ने रंग दिखाया है।
बार - बार उस ओर लौटता,
जिससे बाहर आया है।।
मेढक , मोर सुहाने नर हैं,
देखें मुरगे की कलगी।
पास खिंची आती है मादा,
चपल मोरनी या मुरगी।।
मेढक, मोर, मरद मुरगे ने,
अपना नेह लुटाया है।
बार - बार उस ओर लौटता,
जिससे बाहर आया है।।
मानव की विपरीत रीत है,
नर , नारी पर मरता है।
प्यार बरसता है लुक - छिपकर,
बहि दर्शन से डरता है।।
रंग सभ्यता के में रँग कर,
कामिनि पर हरषाया है।
बार - बार उस ओर लौटता,
जिससे बाहर आया है।।
जन्मद्वार का मोह न मरता,
यौनि बदल कितनी जाएँ।
ऋषि, मुनि, साधु , संत, ज्ञानी भी,
'मित्र , पराशर बन पाएँ।।
पयपायी, जल, थल या नभचर,
सब में 'शुभम' समाया है।
बार - बार उस ओर लौटता ,
जिससे बाहर आया है।
'मित्र =विश्वामित्र।
🪴 शुभमस्तु !
१६.१२.२०२१◆८.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।
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