गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

मन - दर्पण में झाँक 🪞 [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

 🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मन    के   दर्पण  में  झाँक,

काँच   में   क्या     पाएगा !

मत  लीप- पोत कर  सजा,

रूप  यह  मिट    जाएगा।।


ये   चिकने     दर्पण    टूट,

एक  दिन    भंजित   होंगे।

कर्मों  से  भवितव्य  सभी,

अनुरंजित              होंगे।।

फूलेगी       हर       कली ,

दृश्य    सबको     भाएगा।

मन के  दर्पण    में   झाँक,

काँच   में   क्या   पाएगा!!


खंड -  खंड    के     बिंब ,

एक  सम   ही   होते   हैं।

फलते        मीठे     आम ,

आम्र - फल  यदि बोते हैं।।

जैसा        बोया      बीज ,

उसी  का    रस    पाएगा।

मन के   दर्पण   में   झाँक,

काँच  में  क्या     पाएगा!!


भयभीत  हृदय  से   काम,

छिपाकर  जो   करता  है।

उसका     दर्पण       सदा ,

धूल   से   ही   भरता  है।।

नर  हटा  जमी   जो  धूल,

बिंब     उजला    आएगा।

मन  के  दर्पण  में   झाँक,

काँच  में  क्या     पाएगा !!


जन्मा  जब माँ  की कोख,

स्वच्छ  उर -  दर्पण   तेरा।

जब  चला कदम तू  सात,

जमा  अघ - ओघ   घनेरा।

चलता   जाए  इस    तरह,

अँधेरा        ही    छाएगा।

मन  के  दर्पण  में   झाँक,

काँच  में   क्या    पाएगा !!


मत देखे   दर्पण   'शुभम',

कर्म   ही    दर्पण     तेरा।

जैसा     हो    मम    कर्म,

वही  हो    अर्पण    मेरा।।

शुभ कर्मों   का   अनुबंध,

सोम   रस      बरसाएगा।

मन  के दर्पण    में   झाँक,

काँच   में   क्या    पाएगा !!


🪴 शुभमस्तु !


१५.१२.२०२१◆११.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

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