■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
गरमाती है नरम रजाई।
सोने में लगती सुखदाई।।
शीतलता जाड़े की हरती।
अब दादी क्योंऔर ठिठुरती।।
दिन में धूप सेंकती दादी।
संध्या से ही ऊपर लादी।।
माँ के सँग में मैं सो जाता।
मिलती शांति तोष मैं पाता।।
झबरी म्याऊँ भी घुस जाती।
ठंड उसे भी बहुत सताती।।
ओढ़ें अलग रजाई पापा।
अगियाने पर टॉमी तापा।।
माँ ने रोज धूप दिखलाई।
तब देती सुख गरम रजाई।।
मोटा गद्दा लगता ऊनी।
लगी हुई ज्यों धीमी धूनी।।
रुई रजाई में भरवाई।
इसीलिए देती गरमाई।।
'शुभम' न सिंथेटिक भरवाना।
पड़ता है हमको समझाना।।
🪴 शुभमस्तु !
१९.१२.२०२१◆९.००आरोहणं मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें