रविवार, 5 दिसंबर 2021

भाग्य - विधाता 👏 [ व्यंग्य ]


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 ✍️ व्यंग्यकार ©

 🥳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 क्या आपको पता नहीं कि हम ही देश के भाग्य -विधाता हैं! देश के सच्चे दाता हैं।अतीत से लेकर वर्तमान तक देश के इतिहास - निर्माता हैं। ये देश हमारे ही बलबूते पर चलता है , मचलता है,उछलता है। हम न हों तो ये देश खड़ा का खड़ा रह जाए! जहाँ पर था ,वहीं खंभा बन जाए! फिर कोई भी देशवासी क्यों नहीं सगर्व इतराए! दुनिया में अपना झंडा कैसे नहीं फहराए! 


 देश के निर्माण में हमारे त्यागों की सूची अनंत है।हम ही तो आप सबके अघोषित 'संत' हैं।यह 'संतगीरी' कोई यों ही नहीं मिल जाती है।बचपन से लेकर बुढ़ापे तक की 'कमाई' काम आती है। तब हमारी सूरत देश और दुनिया में,टीवी अखबारों, सोशल मीडिया पर उभर पाती है। अब आप पूछेंगे कि भला हमने ऐसे क्या कारनामे कर डाले ,जो हम स्वयं मियाँ मिट्ठू बन हो गए निराले!


  अब आप हमारे बचपन से ही पन्ने पलटिए।चाहे इधर से उधर को उलटिये या उधर से इधर को पलटिए ।पर माला का सूत्र एक ही मिलेगा। जिसमें रुद्राक्ष के मनकों की तरह दाना - दाना खुरदरा ही मिलेगा। कहीं कोई चिकनाई नहीं , ढिलाई नहीं , दिखावटी लुनाई भी नहीं।पढ़ाई के समय में स्कूल छोड़ा , पढ़ाई से मुख क्या पूरा शरीर ही मोड़ा। और बन गए बिना लगाम का घोड़ा। न माँ -बाप की सुनी , न मानी। न किसी की देखी कोई परेशानी। जितनी भी हो सकी ,की गईं हज़ार शैतानी। कभी किसी को भी निचोड़ा , कभी बन गए समाज सेवी होड़ी - होड़ा। गली मोहल्ले में डंका बजने लगा , गुंडा नाम का सेहरा फहराने लगा।कभी इसे छेड़ा कभी उसे छेड़ा। चरित्र के मामले में बन गए बछेड़ा। कोई भी अकर्म ,कुकर्म, 'सुकर्म' नहीं बचा ,जो हमने नहीं किया हो। बस्ते की किताबें उधर फेंकीं और चूरन चटनी खा गए। या रद्दी में बेचकर सिगरेट का धुँआँ उड़ा गए। पर माँ - बाप को दो अंक पढ़कर नहीं दिया तो नहीं दिया।


 पर आज भी हमें इस बात का न कोई पछतावा है और न मलाल है। अब जमाने में जल ही उठी अपनी मशाल है। किसी के हम लाल हैं तो किसी के लिए काल हैं। अब तो हमारे हर हाथ में एक नहीं ,कई- कई जाल हैं। इन्हीं जालों की कृपा से अब माँ-बाप औऱ बीबी बच्चे निहाल हैं। इतना किया है हमने अर्जन कि हमें स्वयं पता नहीं कि कहाँ से आता है, किधर से आता है।जैसे छप्पर फाड़कर कोई धन - वर्षा कर जाता है। इसीलिए तो ये बंदा इतना इतराता है।


 हमसे किसी नियम कानून की बात करना गुनाह है। हमारे यहाँ तो गैर कानूनी को मिलती सदा पनाह है। कोई भी बैरियर ,प्रतिबंध हमारे लिए नहीं है। अपने लिए तो ग़लत भी सही है और सही भी कुछ नहीं है। हम जो कह दें ,बस वही सही है। हमें कहीं कोई रोक -टोक नहीं है।चाहे टोल टैक्स हो ,या कोर्ट कचहरी।सुबह हो शाम हो ,रात हो या दोपहरी। बेधड़क कहीं भी घुस जाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। भले ही कानून की किताब न पढ़ी हो ,पर कानून बनाना हमारा ही अधिकार है। ये अलग ही बात है ,कि उस हमारे ही बनाये क़ानून पर हम चलें या न चलें! ये सभी क़ानून आम आदमी के लिए हैं, नौकरशाही के लिए हैं।


 पर आप ये तो अच्छी तरह जानते ही हैं कि हम न कभी आम थे , न आम हैं और न कभी आम होंगें। हम खास थे, हैं और जीवन भर पीढ़ी दर पीढ़ी रहेंगे भी । आम चुसने के लिए होता है। हम उन चुसने वालों में नहीं हैं। उनसे बहुत ऊपर हैं। हमारा काम चुसना नहीं ,मात्र चूसना है। चूसना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है । जिसे हमने अपने कर्मों से ,बल से ,छल से , भय और आतंक से अर्जित किया है। हमारी जय जयकार करना तुम्हारे लिए अनिवार्य है। इसी में तुम्हारा भला भी है।हमारी कला ,तुम्हारा भला। भले ही हमने तुम्हें छला या नहीं छला। हमारे लिए तो यही है मिश्री का डला। हम संतों पर पुजापा चढ़ाते रहो। तुम्हारा कल्याण होगा। 


  अब तो आप पहचान ही गए होंगे कि हम कौन हैं! अरे भले आदमी !अपना चूषण कर्ता औऱ कल्याण कर्ता को कौन नहीं जानता ,पहचानता! अपना मौसम फिर से आ रहा है। आप सबके दर पर हम पाँच साल बाद फ़िर से पधारने वाले हैं। 

समझ गए न? 


 🪴 शुभमस्तु !


 ०४.१२.२०२१◆६.००आरोहणं मार्तण्डस्य। 


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