331/2023
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● © शब्दकार
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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आँखें भर -भर
दुखी विरहिणी
कब लौटें प्रिय धाम।
गर्म रेत के
दिखते टीले
दूर -दूर तक तप्त।
विधना ने क्या
लिख डाली लिपि
होती मैं अभिशप्त।।
ऊँटों के ये
सभी कारवाँ
जाते हैं अविराम।
संभव हो ये
किसी ऊँट पर
आते हों प्रिय मोर।
बीत गई हैं
रातें काली
कब होगी शुभ भोर।।
जपते -जपते
नाम तुम्हारा
हुई सुबह से शाम।
दिखता एक न
परिचित पंथी
जो प्रिय को जाने।
खंडित आशा
धूल उड़ाती
पाए न परवाने।।
बरसाने की
राधा जैसी
अँखियातुर घनश्याम।
●शुभमस्तु !
01.08.2023◆12.30 प०मा०
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