रविवार, 27 अगस्त 2023

ले लल्ला दूध 'खा' ले● [ संस्मरण ]

 379/2023 

 

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● © लेखक 

 ● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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"ले लल्ला दूध खा ले" : मेरी माँ के ये शब्द कभी भुलाए भी नहीं भूलते।अपने सभी भाई - बहनों में सबसे बड़ी संतान होने के कारण मेरे अम्मा -पिताजी ,दादी - बाबा जी का परम स्नेह का पात्र ही नहीं एकमात्र पात्र मैं ही तो था। एक बड़े- से आँगन के साथ - साथ दक्षिण में एक दालान , उत्तर में दुकानी ,उसके पूर्व में एक बैठक/अतिथि कक्ष कम पुस्तकालय (जिसमें चाचाजी प्रोफ़ेसर डॉ. सी .एल .राजपूत की पुस्तकें दीवाल में बनी हुई दो काष्ठ कपाटित अलमारियों में सजी रहती थीं), उसके पीछे औऱ आँगन के पूर्व में नया घर, पश्चिम में मिट्टी की गोंदी से बना एक एक गज मोटी दीवारों वाला कच्चा भूसा - कक्ष, उसके सामने छप्पर आच्छादित एक बड़ा -सा बरामदा,दालान के बराबर एक छोटी-सी बिना खिड़की वाली कोठरी ; यही सब कुछ तो था हमारे गाँव के उस घर में। दुकानी में पीतल की कीलों से जड़ा हुआ लकड़ी के कपाटों से सुरक्षित मुख्य दरवाजा था।जिसके बाहर बड़े -बड़े नीम के दो पेड़ खड़े हुए थे। जिन पर सावन के महीने में हम झूला झूलते थे। 

 मैंने अपनी बात अपनी स्नेहिल माँ के कुछ शब्दों से प्रारम्भ की थी।वे शब्द नित्य रात को सोते समय सुनाई पड़ते औऱ मैं सोते हुए ही अर्द्ध निद्रावस्था में उठकर दूध 'खा 'लेता और पुनः उसी अवस्था में सो जाता। सवेरा होता और जागने के बाद लगभग रोज़ ही अम्मा से यह शिकायत करना नहीं भूलता कि अम्मा रात को मुझे दूध ही नहीं दिया। अम्मा हँसने लगती , मुस्करा कर कहती : दिया तो था। तू सो रहा था।सोते -सोते तू उठा ,दूध पिया और फिर सो गया था। सोते हुए दूध पिएगा तो याद भी कैसे रहेगा!बात भी सही थी।

 उस समय मेरी अवस्था भी कोई बहुत नहीं थी।यही कोई आठ वर्ष का रहा होऊंगा।सात वर्ष का होने के बाद तो जबर्दस्ती पढ़ने बैठ पाया। बचपन में पढ़ने -लिखने में मेरी कोई रुचि नहीं थी। 'स्कूल में खाने को लड्डू मिलते हैं।':इन शब्दों में लालच की जो सुगन्ध भरी हुई है ; ने मुझे मेरी अरुचि का वह काम जिसे पढ़ना -लिखना कहा जाता है , करा ही दिया। अंततः गाँव के साथी अन्य बच्चों की प्रेरणा ने मुझे दूसरे गाँव की प्राईमरी पाठशाला में पढ़ने के लिए भिजवा ही दिया। 

 अपने घर की उस 10'×12' फ़ीट की कोठरी में अपनी अम्मा और पिताजी के साथ सोया करता था। जब तक जागते रहते ,तब तक मिट्टी के तेल की एक कुप्पी (लैंप)से उजाला किया जाता। उसी कुप्पी के प्रकाश में रात को पढ़ाई करता। पढ़ाई भी क्या !यही गिनती ,पहाड़े ,कुछ शब्दों के अर्थ :बस यही कुल पढ़ाई थी। शब्दार्थ(मीनिंग)याद करते- करते ही मैं सो जाता। तभी तो अम्मा को मुझे दूध खा लेने के लिए जगाना पड़ता था। ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगा ,जिस दिन मैंने जागरण अवस्था में दूध पिया हो।मुझे दूध गुड़ घोलकर पीना अच्छा नहीं लगता था। किंतु पिताजी थे कि बिना गुड़ डाले दूध पीने ही नहीं देते थे। नहीं पीने या हठ करने पर मेरे गाल पर उनकी चपत पड़ना आम बात ही थी। थोड़ा -सा रोता औऱ थोड़ी देर में चुप होकर दूध 'खा' ही लेता। क्या करता? कहावत वही : जबरा मारे और रोने भी न दे।मेरे पिताजी के सामने मेरी यही हालत थी। जब वह जोर से चिल्लाते :"चुप"। तो चुप्प होने में ही खैरियत थी, वरना एक दो औऱ भी पड़ने का आशीर्वाद मिलना ही था।कहते -कहते भावुक हो उठा हूँ।स्मृतियां ही ऐसी हैं। दिल जो है , वह बेबस है!

 मैं कह रहा था कि मीनिंग याद करते -करते मैं सो जाता था। एक दिन जब सोने के बाद उठा तो मेरी अम्मा और पिताजी मुझे सुनाते -बताते हुए यह कहते हुए हँस रहे थे कि आज भगवत स्वरूप रात में सोते हुए मीनिंग याद कर रहा था।बार -बार यही रट लगाए हुए था ': "सिंधु माने समुद्र ! सिंधु माने समुद्र!! सिंधु माने समुद्र!!! " बात सही थी। मुझे ध्यान में आया कि रात को राष्ट्र गान ;पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर छपा हुआ होता था ,उसके मीनिंग भी याद कराए जाते थे।कॉपी में भी लिखे जाते थे। मेरी यह याद करने की सवाक़् स्थिति उन्होंने सुनी और सुबह मुझे बतलाई कि कहाँ तो पढ़ने भी नहीं जाना चाहता था और अब सोने में भी मीनिंग रटता है। उस दिन भी संभवतः रात को सोते समय तंद्रावस्था में ही दूध 'खा' कर ही सोया हूँगा। 

 मेरी अम्मा पढ़ने के लिए कभी विद्यालय नहीं गई। कितुं पिताजी ने उन्हें अपने दस्तखत करना अवश्य सिखा दिया था। कभी-कभी अख़बार बांचने का प्रयास भी करती थीं अम्मा। लिखते -लिखते मुझे एक विशेष बात यह भी याद आ रही है कि कभी- कभी हमारी कोठरी में जलती हुई मिट्टी के तेल की कुप्पी जलती हुई ही रह जाती थी।अम्मा और पिताजी भी उसे 'बढ़ाना' भूल जाते होंगे।इसलिए सुबह जागने पर मेरी नाक के दोनों छिद्रों में काला- काला कार्बन भरा हुआ पाया जाता था ;जिसे अपनी तर्जनी अँगुली की अथक मेहनत से दुरुस्त करना होता था। सुबह पूरी कोठरी काले गंधाते हुए धुँए से छत तक भरी हुई दिखाई देती थी।तब अम्मा अफ़सोस करते हुए कहती: 'हाय! आज ये जलती ही रह गई।काऊनें बंदई ना करी।' 

 ●शुभमस्तु ! 

 27.08.2023◆1.00प०मा०

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