शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

मनमीत ● [ दोहा ]

 359/2023

        

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●©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मैं मुरली मनमीत की,बनकर बजूँ   विभोर।

पिक गाए ज्यों बाग में,पावस में ज्यों मोर।।

वंशी  होती  श्याम  की,अधरों की  मनमीत।

गौरव  में  गाती  रहूँ, नित प्रियता  के   गीत।।


मैं   राधा  घनश्याम   की, वे  मेरे  मनमीत।

उर  में   वे मेरे बसें , ज्यों पय में    नवनीत।।

रहा न जाए एक पल,बिना सखी री श्याम।

कण-कण में मनमीत वे,बसते हैं अविराम।। 


ज्यों   राधा  के श्याम हैं,त्यों सीता के राम।

बने  हुए मनमीत वे, जपूँ उन्हीं  का  नाम।।

झर-झर-झर बूँदें झरें,लौटे अभी न  आज।

यादों में   मनमीत की,भूल गई   गृहकाज।।


चातक बन  रटती  रहूँ,प्रियवर तेरा    नाम।

बसा युगल दृग में  सदा,हे मनमीत सकाम।।

वीरों  का  मनमीत  है, अपना भारत   देश।

रक्षक बन नित जूझते, रख सैनिक का वेश।।


शब्दकार   की  लेखनी, है उसकी मनमीत।

बहुविध  छंदों  में करे, रचना गज़लें   गीत।।

कवि ज्ञानी हैं लिख रहे,नित प्रति काव्य अनंत।

वह  उनका मनमीत  है, बारह  मास  वसंत।।


आओ 'शुभम्'स्वदेश को,बना विमल मनमीत।

गाएँ  गौरव  गान  ही, करें मनुज   से  प्रीत।।


● शुभमस्तु !


16.08.2023◆2.45 आ०मा०

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