शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

अहंकार ● [ कुंडलिया ]

 363/2023

              

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                      -1-

शासक नर का उर बसा,अहंकार दिन -रात।

डाली  बेड़ी  बुद्धि -पग,करता रहता   घात।।

करता   रहता  घात, नशा बन ऐसा   छाता।

नहीं समझता बात,स्वयं निजता   भरमाता।।

'शुभम्'पाँव में मार,कुल्हाड़ी अपना  नाशक।

गतिअवरोधक आप,अहं मानव का शासक।।


                        -2-

अपनी  आँखों  पर  पड़ा, परदा  काला  एक।

अहंकार ने ग्रस लिया,मानव-विमल-विवेक।।

मानव-विमल-विवेक,राहु बन शशि पर छाता।

उर को मिले न टेक,धरा पर सहज  गिराता।।

'शुभं' न मिलती शांति,सत्य निज माने कथनी।

भरी भटकती भ्रांति,शेर सब रखता  अपनी।।


                        -3-

रावण -कंस-विनाश का,कारण था बस एक।

अहंकार ही छीनता, नर का विमल विवेक।।

नर का विमल विवेक, हरण कर सीता माता।

रहा न  ज्ञानी   नेक, राम को कैसे   ध्याता।।

'शुभम्'कृष्ण ने मार,कंस का तोड़ा कण -कण।

हुआ असुर  संहार, कंस, महिषासुर, रावण।।


                        -4-

कथनी - करनी में दिखें,मानव के   बहु रूप।

अहंकार  या  ज्ञान  का, है नर कैसा   यूप??

है  नर   कैसा   यूप,सहज ही रंग   दिखाता।

दिखता रूप -  कुरूप, घृणा या नेह रिझाता।।

'शुभम्' चलाकर देख,बुद्धि की अपनी मथनी।

बने नहीं नर मेष, एक कर करनी   -  कथनी।।


                          -5-

फिरते  धनिकों  की गली, अहंकार  में  लोग।

समझें  नहीं   गरीब को,  फैलाते  बहु   रोग।।

फैलाते   बहु   रोग, माँगते घर  - घर    चंदा।

नहीं    देखते   हाल, दान के योग्य  न  बंदा।।

'शुभं'मनुज का रूप,मनुज -हत मानुस घिरते।

नहीं चोर या ढोर,सजा तन शोषक    फिरते।।


●शुभमस्तु !

२८.०८.२०२३


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