363/2023
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● ©शब्दकार
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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-1-
शासक नर का उर बसा,अहंकार दिन -रात।
डाली बेड़ी बुद्धि -पग,करता रहता घात।।
करता रहता घात, नशा बन ऐसा छाता।
नहीं समझता बात,स्वयं निजता भरमाता।।
'शुभम्'पाँव में मार,कुल्हाड़ी अपना नाशक।
गतिअवरोधक आप,अहं मानव का शासक।।
-2-
अपनी आँखों पर पड़ा, परदा काला एक।
अहंकार ने ग्रस लिया,मानव-विमल-विवेक।।
मानव-विमल-विवेक,राहु बन शशि पर छाता।
उर को मिले न टेक,धरा पर सहज गिराता।।
'शुभं' न मिलती शांति,सत्य निज माने कथनी।
भरी भटकती भ्रांति,शेर सब रखता अपनी।।
-3-
रावण -कंस-विनाश का,कारण था बस एक।
अहंकार ही छीनता, नर का विमल विवेक।।
नर का विमल विवेक, हरण कर सीता माता।
रहा न ज्ञानी नेक, राम को कैसे ध्याता।।
'शुभम्'कृष्ण ने मार,कंस का तोड़ा कण -कण।
हुआ असुर संहार, कंस, महिषासुर, रावण।।
-4-
कथनी - करनी में दिखें,मानव के बहु रूप।
अहंकार या ज्ञान का, है नर कैसा यूप??
है नर कैसा यूप,सहज ही रंग दिखाता।
दिखता रूप - कुरूप, घृणा या नेह रिझाता।।
'शुभम्' चलाकर देख,बुद्धि की अपनी मथनी।
बने नहीं नर मेष, एक कर करनी - कथनी।।
-5-
फिरते धनिकों की गली, अहंकार में लोग।
समझें नहीं गरीब को, फैलाते बहु रोग।।
फैलाते बहु रोग, माँगते घर - घर चंदा।
नहीं देखते हाल, दान के योग्य न बंदा।।
'शुभं'मनुज का रूप,मनुज -हत मानुस घिरते।
नहीं चोर या ढोर,सजा तन शोषक फिरते।।
●शुभमस्तु !
२८.०८.२०२३
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