शनिवार, 26 अगस्त 2023

महा! महा!! महा अतिझुण्डवाद ● [ व्यंग्य ]


378/2023 

 

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 ● ©व्यंग्यकार 

 ● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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           झुंड  तो आप और हम सब बहुत अच्छी तरह से जानते हैं।जैसे गाय-भैंसों,भेड़- बकरियों,गधे-घोड़ों,बंदर- बन्दरियों,कुत्ते-बिल्लियों, मुर्गे-मुर्गियों,गिद्धों-कौवों आदि के झुंड होते हैं।जो हमने आपने बखूबी देखे - सुने भी हैं।जो स्थानों प्रजातियों आदि के आधार पर अलग -अलग संज्ञाओं से अभिहित किए जाते हैं।जैसे भेड़ - बकरियों के झुंड को रेवड़ कहा जाता है।बेतरतीब उगे हुए पेड़ों के झुंड को बेहड़ कहते हैं।उपर्युक्त गिनाए गए जीव - जंतुओं की तरह मनुष्य प्रजाति(नर और नारी :दोनों) भी झुंड प्रेमी जंतु है।जो समय ,स्थान औऱ परिवेश के अनुसार अपने प्रियातिप्रिय झुंड का नाम करण कर लेता है।जैसे :मंच, ग्रुप, पटल, मंडल, समूह, समाज, सम्मेलन आदि सुविधापरक और सम्मानजनक नाम रखता है। 

         मनुष्य प्रजाति एक विशिष्ट प्रकार का प्राणी या जंतु है। उसके हर काम में लेकिन,किन्तु, परंतु है।उसका काम मात्र मनुष्य विशेष के झुंडों से नहीं चलता।वरन यह विभिन्न वर्णों, जातियों,उप जातियों, गोत्रों ,उपगोत्रों सवर्णों, अवर्णों आदि में विभाजित रहता है।यहाँ मनुष्य या मानव मात्र के आधार पर झुंड निर्माण कम होता है, किसी वर्ण ,जाति ,उपजाति के आधार पर प्रायः झुंड निर्माण होता है।इसलिए यहाँ बंदरों ,गधों ,घोड़ों की तरह एकत्रीकरण कम ही होता है,वर्णों (जैसे ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) जातियों (जैसे : ब्राह्मणों: [शर्मा, मिश्रा, त्रिवेदी ,चतुर्वेदी, तिवारी, आदि]; क्षत्रिय[ ठाकुर,सिकरवार, चंदेल, जादौन,] बनिया [गुप्ता, अग्रवाल, बंसल,कंसल,अंसल, महाजन आदि] अहीर, यादव, बघेल,कुर्मी,लोधी,दिवाकर, निषाद,सविता,वाल्मीकि, खटीक,कायस्थ (सक्सेना, श्रीवास्तव, आदि -आदि के आधार पर ही इनके महा झुंड बनते हैं। ये बनते - बनते महा महा औऱ अति महाझुंड की गति को प्राप्त होते हुए अपनी सुगति किंवा अगति किंवा दुर्गति किंवा कुगति को प्राप्त होते रहते हैं। यह बात अभी कुछ क्षणों में ही स्प्ष्ट होगी कि ऐसा क्यों है ? 

              मनुष्य प्रजाति के इन महाझुंडों के मूल में उनके कुछ हित - अहित निहित हैं।उनकी दृष्टि में उनके झुंड मात्र उनके और उनके वर्ग के हित लाभ के लिए ही बनते हैं। किंतु हित के साथ - साथ कुछ अहित भी स्वतः जुड़ ही जाते हैं। कोई भी मानव -झुंड नहीं चाहता कि उसका अहित हो ;किन्तु अहित भी साथ -साथ ही चलता है।झुंड निर्माण के प्रत्यक्ष लाभ यही हैं कि उनका वर्ण, जाति,उपजाति , गोत्र ,उपगोत्र का विकास हो,प्रगति हो , वृद्धि हो, समृद्धि हो। और सब भले भाड़ में जाएँ। उन्हें क्या ?उनकी बला से । उन्हें किसी की कोई चिंता - फिक्र नहीं करनी है।इसलिए किसी की जिक्र भी नहीं करनी है।औऱ फिर जैसी जिसकी करनी है,वैसी उसकी भरनी है।मनुष्य के नाम पर इनके झुंड प्रायः तब बनते हैं ,जब कोई मनुष्य जंतु इस संसार को असार घोषित करते हुए अलविदा हो जाता है। अन्यथा जब तक देह में जान औऱ मूँछों में तान रहती है,बाँहों में उठान रहती है ,वह इंसान को कीड़ा मकोड़े से अधिक नहीं जानता - मानता।अपने सींग (यद्यपि उसके सींग दिखाई नहीं देते,पूँछ की तरह) कच्ची क्या पक्की सीमेंटेड दीवाल में में खंगालता रहता है। 

          जब जंगल का राजा साँड़ों के झुंड में फूट डाल कर एक- एक कर खाजा बनाकर खा जाता है ,तब बचे - खुचे साँड़ों को एकता का महत्त्व समझ में आ पाता है। लेकिन अब क्या ? कुछ भी नहीं।इसी प्रकार मनुष्य की यह झुण्डता या महा अति झुण्डता उसे मुंडता की दशा तक पहुंचा देती है। ताकतवर के समक्ष कोई किसी को बचाने नहीं आता।बल्कि खड़ा- खड़ा विडिओ बनाता है,हँसता है, मुँह पर रूमाल रखकर मुस्कराता है औऱ घर की बीबी के सामने ताली या गाल बजाकर गरियाता है और कहता है :ठीक हुआ साले के साथ ;ऐसा ही होना चाहिए था इसके साथ। यह इसी के योग्य तो था।आग नहीं बुझाता ;बल्कि आग के फ़ोटो खींचता है। भोक्ता के समक्ष घड़ियाली आँसू बहाने से कभी नहीं चूकता। यह महा अति झुण्डवाद की दुर्गति किंवा दुर्गति है। अगति तो बस यही है कि खड़ी हुई गाड़ी के पैडल चलाते रहें औऱ समझें कि गाड़ी चल रही है। शेष जो बचा वही झुण्डवाद की सुगति है ;जिसमें वह बैनर,फ्लैक्स बनाबाकर कार्यक्रम करता है। मियां मिट्ठू बनता है। अन्य झुंडों की बुराई करता है और अपनी प्रशंसा के हवाई पुल पर लेंटर डालकर उसे पुख्ता बनाता है। अखबारों ,टीवी, सोशल मीडिया( इंस्टाग्राम, मुखपोथी ,व्हाट्सप्प )आदि पर दंतदर्शन मुस्कान के साथ सुर्खियों में आता है।

          दुनिया के बहुत सारे देशों में लोकतंत्र है। किसी विद्वान राजनीतिज्ञ ने लोकतंत्र को मूर्ख तंत्र की संज्ञा दी है।कुछ देश ऐसे भी हैं ,जहाँ झुण्डवाद के आधार पर लोकतंत्र का निर्माण किया जाता है। नेता ऐसे क्षेत्र से प्रत्याशी होता है ,जहाँ पर उसके जाति या वर्ण के लोगों का झुंड बहुतायत से हो,क्योंकि उसे अपने झुंड के मतों का ही विश्वास होता है।जातीय झुण्डवाद लोकतंत्र को झंड बनाए रखता हुआ अपना झंडा ऊँचा रखता है। झुण्डवाद के आधार पर विवाह, नियुक्तियाँ, तबादले औऱ क्या कुछ नहीं होता! 

         यहाँ मनुष्यता या मानववाद के लिए कोई स्थान नहीं है। मनुष्यवाद या मानवतावाद कभी - कभी बरसात में चपला की तरह कौंध जाता है। पटबीजना की तरह लुपलुपा जाता है।औऱ कालांतर में कुछ क्षण बाद विलुप्त हो जाता है। कहीं कोई देख न ले। इसलिए मनुष्यवाद हमेशा भयभीत ही रहता है।कहना यह चाहिए कि यत्र तत्र सर्वत्र झुण्डवाद का ही बोलबाला है।मनुष्य वाद का मुँह काला है। मनुष्य औऱ मनुष्यवाद के लिए तो सर्वत्र बिना पटा हुआ खुला नाला है। 

           लेख के निष्कर्ष स्वरूप यही कहा जा सकता है कि मनुष्य जंतुओं में 'सर्वश्रेष्ठ' है।उसकी यह 'सर्वश्रेष्ठता' उसके महा अति झुण्डवाद के कारण है।वह कोई गधा -घोड़ा थोड़े ही है कि गधे- गधे ही इकठ्ठे होंगे, घोड़े -घोड़े ही इकट्ठे होंगे। वहाँ मनुष्य कम,मनुष्य जैसे दिखने वाले वर्णवादी, जातिवादी, झुण्डवादी ही होंगे।जो मानव औऱ मानवता की बात तो करेंगे, किन्तु मानव और मानवता वाद के कट्टर दुश्मन ही होंगे।बेचारे चिरई - छांगुर, ढोर- डंगर क्या जानें कि झुण्डवाद क्या होता है ! इसीलिए तो मनुष्य जंतु - जगत का 'महानतम' जंतु है।हाँ,सर्वत्र उसके साथ किन्तु ,परंतु है। 

 ● शुभमस्तु !

 26.08.2023◆2.45 प०मा०ा


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