382/2023
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●© व्यंग्यकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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कहा जाता है कि मानव - शरीर मिट्टी से निर्मित है और मिट्टी में ही मिल जाने वाला है।इसका एक अर्थ यह भी तो हुआ कि यह शरीर किसी सोना-चाँदी,हीरे-जवाहरात से पैदा नहीं हुआ। यह भी मिट्टी से ही पैदा हुआ होगा।उद्भव ,अस्तित्व और समापन:सब कुछ मिट्टी ही मिट्टी।'मिट्टी' : अर्थात : जो पहले से ही मिटा हुआ हो ;वही तो मिट्टी है।'उसी तथाकथित मिट्टी से उत्पन्न,जीवन और विनाश सब कुछ मिटा हुआ।
इसी 'मिट्टी' रूपी देह से निकली हुई देह एक 'आत्मा' 'दस प्राण' और 'दस उपप्राण' से जीवंत होकर जब उछलने -कूदने ,चलने-फिरने, इतराने- सतराने ,फिसलने -घिसटने, मचलने- खिलने लगती है;तब तो चमत्कार ही हो जाता है।चमत्कार इस बात का ;कि इन्हीं मृदा(मिट्टी) -मूर्तियों में से कुछ प्रतिभाएँ ऐसी भी उग आती हैं ;जैसे जंगल में घास के बीच में बड़े -बड़े खजूर के दरख़्त, एक से एक सख्त, सशक्त, अलमस्त, स्वयं में व्यस्त।ऐसी स्वयंभू विटपों को साहित्यिक भाषा में 'प्रतिभा' कहा जाता है।ये प्रतिभाएँ कोई जानबूझकर पैदा नहीं करता।खुद -ब -खुद पैदा होती हैं। जिस प्रकृति ने जिन्हें उगाया है , उनका श्रेय भी वे बड़ी होकर प्रायः भूल जाती हैं।
प्रत्येक उत्पत्ति का कोई न कोई उद्देश्य होता है।इन 'प्रतिभाओं 'का भी होता होगा। एक जमाना था जब आजकल जैसी 'प्रतिभाएँ' अवतरित नहीं होती थीं। यहाँ तक कि नौटंकी में राजा - रानी, दास-दासी,संतरी - मंत्री ,सब अलग -अलग ही हुआ करते थे और हँसाने भर के लिए एक विदूषक या जोकर या हास्य कर्म पारंगत पात्र अलग ही अपना कर्तव्य निर्वाह करता था ।इसके विपरीत आज की कुदरत कितनी कृपण या बहु उद्देशीय या निपुण होती जा रही है कि सारे गुण तत्त्व एक में ही भर दिये जा रहे हैं। वही नेता है तो विदूषक भी है।नेता और विद्वत्ता परस्पर विरोधी गुण -धर्म हैं।उसी एक ही में नेतृत्वमति, उपदेशक, अर्थशास्त्री, चाणक्यता,राजनीति, धर्मनीति ,धूर्तवृत्ति,गीधवृत्ति,काकदृष्टि,बकध्यानवृत्ति, हिंस्रनीति आदि सब गुण - धर्म एक ही कपाल में कुंडली लगाए बैठे हैं।कहीं - कहीं ढोर वृत्ति और कच्छप प्रकृति का एक साथ दोधारा संगम है।कुछ ' स्वयंभू प्रतिभाएँ' अपने 'गर्दभत्व' में तो कोई अपने 'शूकरत्व',कोई स्व- प्रिय ' चमगादड़त्त्व' में तल्लीन हैं।
बरसात में घूर पर,छान-छप्पर पर,छतों - दीवाल पर,खुद -ब-खुद उगे हुए कुकुरमुत्ते भी किसी 'प्रतिभा' से कम नहीं हैं।अपने जन्म के लिए वे किसी माँ-बाप को स्वजन्म का श्रेय नहीं देते।इसी प्रकार देश के प्रायः नेता गण स्वयंभू जन्मजात प्रतिभाओं की श्रेणी में गिने जाते हैं।उन्हें कोई बाजरे की फसल का कंडुआ न कहे।वे तो ऐसे बड़े और असामान्य 'दाने' (दानव न कहें) हैं, जो अपने आकार गुणवत्ता और बड़प्पन के सामने किसी 'सेव' 'संतरे' को भी महत्त्व नहीं देते।इन प्रतिभाओं के विशेष 'कार्य' और 'कारनामों' का अतीत उनका इतिहास निर्माण करता है।जिसे आगामी पीढियां रस ले - लेकर अपने अतीत का सिंहावलोकन करती हैं।
हर स्वयंभू प्रतिभा में कुछ सर्वनिष्ठ गुण ऐसे भी होते हैं ,जो आम आदमी में होना दुर्लभ है।जैसे मरखोर बैल सब जगह अपने सींग - प्रहार करना अपना कर्तव्य समझता है ,वैसे ही ये भी 'सर्व जन हिताय ?' ,'सर्व जन सुखाय ?' ,'सर्व जन चेतनाय!', 'सर्वजन प्रचाराय!', और 'सर्व जन शोषणाय' अहर्निश कुर्ता धोती डाँटे तैनात रहता है। अपने बाप को भी बाप मानना जो अपनी तौहीन समझता हो, वह कब कितने बाप बना लेगा !,कितने बाप बदल लेगा! कोई नहीं जानता। पूरब को जाए और पश्चिम को बताए, ऐसी विचित्र 'प्रतिभाएँ' भला और कहाँ सुलभ हो सकती हैं? आप सब बहुत समझदार हैं,ये भी क्या बताना आवश्यक है ? स्वतः समझ ही गए होंगे। हमारे शौचालय के बाहर उगा हुआ एक पेड़ भी यही कहता है कि वह भी स्वयंभू है।आप और हम समझें तो समझते रहें कि वह किसी कौवे की अनिवारणीय इच्छा की 'महान उत्पति' है,परंतु वह तो लहरा- लहरा कर अपने 'स्वयंभुत्व' का गीत अलाप रहा है।
●शुभमस्तु !
28.08.2023◆8.00पतन्म मार्तण्डस्य।
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