शनिवार, 12 अगस्त 2023

मनमानी ● [ व्यंग्य ]


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●©व्यंग्यकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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     मैं भी यह कोई नई बात नहीं कहने जा रहा हूँ। मैं भी वही कह रहा हूँ कि जो युग -युग से कही जाती चली आ रही है। बात बहुत ही पुरानी है,किंतु नए जमाने की नई चासनी में आपको फिर-फिर दोहरानी है। अब यह जिज्ञासा होना सहज और स्वाभाविक है कि अंततः वह क्या बात है, जिसकी जलेबी को फिर से शहद की चासनी की कढ़ाई में डुबानी है।

      प्रभु झूठ न बुलवाए ।कुल मिलाकर बात ये है कि परंपरागत रूप से हजारों बार यह सुनते हुए हमारे कान नहीं पकते कि "सुनिए सबकी, करिए मन की।" अब भला बताएँ कि यह भी कोई कहने की बात हुई कि सबकी अच्छी से अच्छी बात, नेक सलाह ,किसी के मन की चाह,आह,वाह, सुन तो लीजिए ,किंतु इस कान से सुनकर उस कान से बाहर का रास्ता दिखा दीजिए।कहने का तात्पर्य ये हुआ कि स्वयं सोच विचार कर निर्णय लीजिए कि आपको करना क्या है ! ऐसा कदापि मत कीजिए कि उन्होंने कहा अमरूद तो आप भी अमरूद अमरूद का नारा लगाने लगें। अरे भैये !आप कोई किसी नेता या दल के चमचे बनाम भक्त बनाम गुर्गे बनाम पिछलग्गू बनाम जग्गू -भग्गू थोड़े ही हैं , जो उनकी बनाई हुई लकीर पर सरपट दौड़ने लगेंगे! आप तो आप हैं , स्वविवेक से सोच - समझकर निर्णय लेकर कार्यान्वित करने वाले।मैं कुछ ग़लत बात तो नहीं कहता! कहने का अर्थ ये है कि मनमानी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

     मनमानी ही कीजिए क्योंकि हम उसी को करने के आदी हैं।वही हमारी परंपरा है। वही हमारी नियति है। वही हमारी नीयत भी तो है।हम चाहे नेता हों इस अधिकारी,सरकार हों या सरकारी,सदाचारी हों या दुराचारी, कानूनगो हों या पटवारी,जनता हों या मंगता, जो मन में आए वही करता।इसी को तो कहा गया है बुद्धि मत्ता।जब एक कुत्ता भी वही करता , जो आपके चाहने भर से नहीं मानता।उठाकर ऊपर अपनी टाँग अपने विवेक से खूँटा, चौपहिया के चक्र , पेड़ का तना, कहीं भी तो नहीं उसको मनमानी करना मना ;को धन्य-धन्य कर देता है। मनमानी का स्वविवेक अपने को दूसरों से ज्यादा ज्ञानी समझते -समझते आ ही जाता है।

सबके अपने -अपने स्वार्थ हैं। जिनसे निकल कर सोचना या करना उसके विवेक बल की तौहीन है।देश और समाज में होती रहीं या हो रहीं या होने जा रहीं सारी की सारी अनीतियाँ ,दुराचार, व्यभिचार,अत्याचार: सब स्वार्थ की हथेली के नीचे मनमानी से होने वाले (कु)कृत्य ही हैं!छोटा करे तो अनीति औऱ बड़ा करे तो नीति ,कानून, नियम, विधान। वाह रे !मनुष्य सर्वत्र गरीब ही निशान! तेरा ही तो तना हुआ है विस्तीर्ण वितान! कैसे बचेंगे छप्पर औऱ उसके जीर्ण -शीर्ण छान! कहा भी सही है कि 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं।' बाबा तुलसीदास तो बहुत पहले ही श्री रामचरितमानस में यही लिखकर दे गए हैं ।जबरा मारे और रोने भी न दे।यही तो हो रहा है यत्र तत्र सर्वत्र। यदि किसी ने अपनी जुबाँ खोली तो बंद कर दी जाती है उसकी बोली। न बच पाते हैं चोले और न सुरक्षित रह पाती है चोली! पेड़ की आड़ में छिपकर चलती है धाँय - धायं गोली। यही आज का सत्य है ,मत समझना इसे ठिठोली। 'समरथ' साफ़ बचकर निकल लेते हैं औऱ किसी अज्ञात को ही तो शिकंजे में लपेट देते हैं। 

      'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता!'सुनकर कितना अच्छा लगता है कि हम अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र हैं। भाड़ में गई ऐसी स्वतंत्रता जब कोई भी आपकी आवाज को सुनने वाला ही जीवित न हो। वे गुजरे जमाने की बातें हो गईं,जब हमारी दीवारें भी सुन सकती थीं ।अब तो जिंदा इंसान भी जड़ता के चेले हैं।उन्हें सुनना नहीं, बस अपनी सुनाना है।अपना ही तराना दोहरवाना है।यह समाज नहीं ,देश नहीं नक्कार खाना है। जहाँ तूती की आवाज को किसी के द्वारा नहीं सुना जाना है। चिल्लाते रहिए,कौन सुनता है।हाँ, सुनाता जरूर है। उसे अपने इस दायित्व का बड़ा ही गुरूर है। इसी बात का तो उसकी देह में सुरूर है। पर क्या करे आम आदमी ,वह तो सदा मजबूर है। 

      एक बात और।जब बात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आती है ,तो मनमाना इंसान किसी को भी गाली देने के लिए स्वतंत्र है। किसी का अपमान करने के लिए स्वतंत्र है। स्वतंत्रता के अर्थ अभी यहीं तक समझे जाने हैं। क्योंकि यहाँ तो सबके मापन के अपने - अपने पैमाने हैं। कुल मिलाकर मनमानी हम सबका जन्मसिद्ध अधिकार है।आज के युग में उसका बहु विध रूप साकार है। अब कौन कहे या माने कि ये आदमी की जिंस का मनोविकार है।मचता रहे देश में भले चीत्कार है ,पर किसे सुनने समझने की फुरसत है, इसलिए यही नियम है;जो सबको सहज स्वीकार है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 12.08.2023◆10.00आ.मा. 

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