गुरुवार, 30 जनवरी 2025

ऋतुराज [कुंडलिया]

 056/2025

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

होता  है  शुभ  आगमन,   माधव की  पदचाप।

पड़ी  सुनाई   कान  में, बढ़ता  है रवि     ताप।।

बढ़ता  है  रवि   ताप, भूप  ऋतुराज    नवेला।

फैला  अतुल  प्रताप, धरा  पर आज  अकेला।।

'शुभम्'  भ्रमर दल  गूँज,हर्ष के नव कण बोता।

जड़-चेतन  में  नित्य, उजाला बढ़कर   होता।।


                         -2-

होते   हैं  बदलाव  बहु, धरती पर चहुँ    ओर।

कहीं    कोयलें   कूकतीं,  कहीं नाचते   मोर।।

कहीं   नाचते  मोर, राम  जपती पिड़कुलिया।

आया   है   ऋतुराज, चहकती मानव -दुनिया।।

'शुभम्'   भोर  में गीत , गा रहे जो नर   सोते।

मुर्गे   देते   बाँग,  कुकड़   कूँ   जपते    होते।।


                         -3-

बौरे   हैं  फिर  आम  के, तरुवर  है ऋतुराज।

मधुपाई  मधुमक्खियाँ,रहीं भिनभिना  आज।।

रहीं भिनभिना आज,तितलियों की है हलचल।

गूँज  रहे   अलि  वृंद, विरहिणी  होती   बेकल।।

'शुभम्'  सुघर  ऋतुराज, करे अवनी पर   दौरे।

महक  उठे   कचनार,  आम  फिर से हैं   बौरे।।


                         -4-

फूले   पाटल  बाग  में,  आया   है ऋतुराज।

महक   रहे  गेंदा  यहाँ,  धरे  धरा नव  साज।।

धरे  धरा   नव  साज,  मटर  लहराती   जाए।

नाच     रहे    हैं  खेत,   चना    गेहूँ मुस्काए।।

'शुभम्' अनौखा   देश,  उछलकर अंबर छूले।

मेघ   गए    परदेश,   बाग   में पाटल   फूले।।


                         -5-

जाना  मत  परदेश  में,  आया  प्रिय ऋतुराज।

बिना   तुम्हारे  गेह में, रह न सकूँ कल आज।।

रह न  सकूँ  कल  आज, रात में काम  सताए।

कहूँ   न मन  की  बात, कहूँ  तो  उर  शरमाए।।

'शुभम्'   होलिका   पर्व, रंग का मत तरसाना।

खेलूँगी    तव   संग,  सजन  तज के मत जाना।।

शुभमस्तु !


30.01.2025●9.45प०मा०

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धर्म में सियासत [अतुकांतिका]

 055/2025

             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सुराग पाकर

 घुस आती है

सियासत धर्म में

कहीं भी उसे

अच्छाई दिखाई

 नहीं देती।


विरोध करना ही 

उद्देश्य हो जिनका

उनके लिए 

सब बुरा ही बुरा है।


छोटे-छोटे छेदों में

अँगुलियाँ तानना

जिनका नित्य कर्म है

उनकी आँखों में

न हया है

न कोई धर्म है।


अपने ही भविष्य के

दुश्मन हैं जो

उनसे उम्मीद भी क्या ?

उन्हें देश हित नहीं

कुर्सी दिखाई देती है।


आओ वह कुत्सित

सियासत पहचानें

और अपने पैरों में

आप ही कुल्हाड़ी न मारें,

धूर्त सियासतियों को 

धिक्कारें दुत्कारें।


शुभमस्तु !


30.01.2025●8.00प०मा०

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लातों के भूत [अतुकांतिका]

 054/2025

            


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लेना नहीं चाहता कोई भी

दोष अपने सिर

किसी तरह अपनी जान

जो छुड़ानी है!

प्रायः हर आम और खास की

प्रकृति का अंग है ये।


दूसरों के सिर पर

मढ़ देना दोष

सारी मानव जाति की

यही तो कहानी है।


समाधान हो जाए

बहुत सी समस्याओं का

यदि स्वीकार कर ले दोष

न कहीं झगड़ा न विवाद

न परस्पर दिखलाएँ रोष।


 पर कहाँ

 कानून का डंडा

भला फिर किस

 काम आना है?

साक्षी सुबूत जुटाने हैं

खुला हुआ 

जेलखाना है!


ये अदालतें 

ये जज ये  वकील

ये पुलिस ये कारागार

करते हैं दोषियों का

अच्छा खासा उपचार।


फिर वही 

ढाक के तीन पात

कानून की शह

और अपराधी की मात।


परंपरा जो है

चली आ रही है

झूठ का साथी ये मानव

लातों  के भूत

बात से

 मानते ही कब हैं?


शुभमस्तु !


30.01.2025● 7.15प०मा०

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हादसा [ सोरठा ]

 053/2025

                    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


टूटे तब जंजीर,कड़ियाँ जब कमजोर हों।

रखे न मानव धीर,हो सकता है हादसा।।

धारण करना धीर,पहला लक्षण धर्म का।

कहे मनुज मैं मीर,हो जाता जब हादसा।।


मनुज अन्य की ओर,दोषारोपण कर रहे।

बिल में खोजें चोर,हुआ हादसा घाट पर।।

देता जो अंजाम,क्षमा नहीं उसको कभी।

लुटे-मिटे नर धाम,अघटित है जो हादसा।।


संभव है क्या मीत,पैसे से प्रतिकार क्या?

समय हुआ विपरीत,रोक न पाए हादसा।।

कारण होते लोग, होता  है  जब हादसा।

बन जाते  हैं रोग,त्वरा दिखाते स्वार्थ  की।।


रक्षक   हैं   श्रीमान, सावधानियाँ ही सदा।

चाहे  कुंभ-नहान,  हो न  हादसा देश में।।

हुआ हादसा  एक,  महाकुंभ   के   पर्व में।

पकड़ रहे जन टेक,रूढ़िवादिता की सदा।।


भरा हुआ अविवेक,जन का एक कुकृत्य ही।

नहीं  भाव  उर नेक,बने हादसा भी   वही।।

बुरा हादसा एक , मौनी  मावस को   हुआ।

घायल मनुज अनेक,हुए हताहत लोग भी।।


भरे हृदय कुविचार,मानव सभी न नेक हैं।

ढूँढ़ें कहाँ विकार, होता   है  जब हादसा।।


शुभमस्तु !

30.01.2025●2.15प०मा०

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बुधवार, 29 जनवरी 2025

मच्छर का एकालाप [ व्यंग्य ]

 52/2025 


 

 ©व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 मैं एक नन्हा - सा मच्छर हूँ।यह आप सब बहुत अच्छी तरह से जानते हैं।जितना ही मैं आपके निकट आता हूँ,आप मुझसे दूर-दूर भागते हैं। मुझे दुरदुराते हैं।भगाते हैं। यही नहीं मुझे मार डालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते।आपको यह अच्छी तरह से विदित होना चाहिए कि मैं भी आप में से ही एक हूँ।जितने भले आप हैं,मैं भी उतना ही नेक हूँ। आप कहेंगे कि कैसे ?यह सब तुम कैसे कह रहे हो कि तुम भी हम में ही एक हो? कहाँ हम विशालकाय मनुष्य और तुम नन्हे- से मच्छर! भला कैसे हो सकती है हमारी तुम्हारी टक्कर। तुम तो दो अँगुलियों के बीच ही मसल दिए जा सकते हो। मसल भी दिए जाते हो। और तुम हमारी बराबरी करने पर तुले हुए हो! आखिर तुम कहना क्या चाहते हो नन्हे मच्छर ? 

 मेरे प्रिय मानव ! मेरी बात ध्यान देकर सुनो।मेरा रूप रंग आकार प्रकार तुमसे सर्वथा भिन्न है तो क्या हुआ ! वास्तविकता तो यह है कि हम मच्छरों में तुम्हारा ही रक्त बह रहा है। यह ठीक है कि हम तुम्हारी औरस संतान नहीं हैं। हमें जन्म तो हमारी माँ मछरी और पिता मच्छर ने ही दिया है,किन्तु जिस रक्त से हमारा लालन -पालन और पोषण हुआ है ,वह तुम्हारा ही है। यह अलग बात है कि हमारी रगों में न जाने कितने पुरुषों और कितनी स्त्रियों का रक्त बह रहा है,कुछ याद नहीं। और इसका लेखा-जोखा भी कभी बनाकर नहीं रखा। भला हमारे पास इतना अवकाश ही कहाँ है जो कभी इधर कभी उधर मुँह मारने से फुर्सत मिले?रात -दिन सताती हुई भूख हमें तुम जैसे मानवों को ढूंढ़ने के लिए बाध्य जो कर देती है! इसलिए व्यस्ततावश समय नहीं मिलता कि यह हिसाब भी बनाकर डायरी मेंटेन करें कि कब किसका और कितना रक्त पिया। हाँ,इतना तो याद है कि कभी-कभी कुछ ऐसे भी स्त्री-पुरुष मिल जाते हैं कि उनके रक्त में लहसुन प्याज की तेज बदबू और कभी- कभी तो शराब की दुर्गंध हमारे नथुने फाड़ डालती है। हमें तो दाल साग दूध फल आदि के आहारी ही भारी भाते हैं।इसीलिए हम शाकाहारियों के पास खिंचे चले जाते हैं। 

  हे प्रिय मानव ! हमारी आपसे अपनी रक्षा के लिए यही गुजारिश है कि आपने हमें मारने के लिए सैकड़ों उपाय ईजाद कर लिए हैं। अपने घर- परिवार की बात घर से बाहर बतानी तो नहीं चाहिए, किन्तु आप तो हमारे अपने हैं,इसलिए बताए देते हैं।वास्तव में हम नर मच्छर मनुष्यों को नहीं काटते और न ही कोई बीमारी फैलाते हैं।हमारी आयु भी दस दिन से अधिक नहीं होती। वह तो केवल अपना वंश वर्द्धन के लिए हमें भगवान ने पैदा कर दिया है।पेड़ पौधों के रस से ही हम अपनी उदर पूर्ति कर लेते हैं।तुम्हारे खून की प्यासी तो ये हमारी घरवालियाँ ,बहनें और मम्मियाँ हैं,जो तुम्हें रात- दिन चैन से सोने नहीं देतीं। उधर उनकी उम्र भी चालीस से पचास दिन तक होती है। अर्थात वे लंबी आयु तक जीती हैं।वे दस -दस बच्चे तक पैदा करती हैं। हमें तो बच्चे पैदा करने से ही फुर्सत नहीं मिलने देतीं और हमारे हिस्से का खून भी खुद ही पी जाती हैं। 

 यों तो हमारे 47 दाँत होते हैं, किंतु हमारी स्त्रियाँ अपनी सुई जैसी सूंड को ही आपकी त्वचा में छेदकर खून पी लेती हैं।हम आपसे कम बुद्धिमान भी नहीं हैं,हमारा शरीर छोटा है तो क्या हुआ ! हमारी भेजे में दो लाख मष्तिष्क कोशिकाएँ होती हैं।जो मादा मच्छर आपका रक्त पीती है,वह आकार में हमसे बड़ी होती है।बड़ी नहीं होगी तो और क्या होगा ! रात -दिन आपका खून जो पीती है।अपनी छहों टाँगें जमाए हुए निश्चिंत होकर देह पोषण करती है।

    हे प्रिय मानव!अपनी छहों टाँगबद्ध होकर हम विनती करते हैं कि मच्छर जाति की रक्षा करो।ज्यादा सफ़ाई - स्वच्छता का ध्यान मत रखा करो। जब परमात्मा ने हमें पैदा किया है तो हमें भी जीने का अधिकार है।इसलिए नाले नालियों में ऐसा कुछ उपचार मत करो कि हमारा अंश वंश ही मिट जाए।यह बहुत बड़ा पाप है।आप तो अहिंसा के पुजारी हो,फिर हमें मारने - मिटाने की क्यों तैयारी हो ? जैसे तैसे तो कह-कह कर हम पुरुष मच्छरों ने इन एनाफिलिजों से मलेरिया खत्म कराया। बस अब थोड़ा -सा रक्त पीती हैं,तो पी लेने दो।थोड़ी देर तक खुजली ही तो होनी है बस। उसके बाद कुछ भी नहीं। उन्हें भी तो जीने का हक है। कोई अन्य बीमारी तो नहीं फैलातीं। आखिर तब क्या होगा ,जब हमने भी 'मच्छर बचाओ संघ' बना लिया! आपको जवाब देते नहीं सूझेगा। नाली -नाली में घर -घर में एक ही नारा बुलंद होगा :'मच्छर बचाओ !' 'दंशक बचाओ'! इसलिए एक बार शीतल मन से विचार करो और ध्यान रखो कि 'अहिंसा परमो धर्म '! फिर हमसे मत कहना ,हमें नहीं आती रक्त पीने में कोई शर्म। क्या समझे प्रिय मानव ! हमारे कहने का मर्म? तुम भी करो अपना कर्म और हमें भी पालने दो अपना धर्म! शुभमस्तु ! 

 29.01.2025●8.30 प०मा० 

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कुनकुन मौसम धूप का [दोहा]

 051/2025

    

[मौसम,बदलाव,कुनकुन,सूरज,धूप]


 ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


               सब में एक

मन  के  मौसम में  सदा, परिवर्तन  का   दौर।

चलता रहता रात-दिन, भर सुख-दुख के तौर।।

शिशिर  विदा  शुभ आगमन, होता राव वसंत।

मौसम  मंजु  मयंक -सा,बिखरा हर्ष  अनंत।।


ऋतुओं   में  बदलाव  से,  नित नवीन  संचार।

होते  हैं  क्षण-क्षण  सदा, दिनकर का आभार।।

जीवन  में  बदलाव के, सुख-दुख  हैं  सोपान।

धूप-छाँव  बदली  कभी,  सर्द -गर्म का    मान।


कुनकुन तेरे  बोल का, सुखद सौम्य आभास।

मन  मेरा  करने  लगा, भरता    हुआ  उजास।।

कुनकुन जल ही पीजिए,जब हो शीत सकाल।

भोजन  के  उपरांत   भी,  लेना  नहीं   उबाल।।


सूरज     से  संसार  में,   ऋतुओं  का    संचार।

होता  बारह  मास  में,  धर   दो-दो का     भार।।

सूरज  से  सब  सृष्टि  है,  सूरज जीवन    मूल।

दिवस- निशा  के   दान  से, जग जीवन में हूल।।


धूप - छाँव  का नित्य  ही, चलता  सुमधुर  मेल।

सूरज  के   संचार    का, अद्भुत अवसर    खेल।।

धूप    कुनकुनी  लीजिए,जब हो शीत    प्रसार।

सुखद  रहे  तन को  सदा,  दिनकर का  उपहार।।


                एक में सब

कुनकुन मौसम धूप का,क्षण -क्षण में बदलाव।

करते   सूरज   देवता,  उनका यही      स्वभाव।।


शुभमस्तु !


29.01.2025●5.30आ०मा०

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सन्ततियाँ हम सभी तुम्हारी [ गीत ]

 050/2025

  


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


संततियाँ   हम   सभी   तुम्हारी

तुमसे   ही   पालित  पोषित हैं।


दंशक   पिता  दंशकी   माता

रक्त   तुम्हारा  ही   हम   पीते

बहता   है    हर  नस-नस  में

उसी   रक्त   से  जीवन  जीते

कहती   है   ये   दुनिया  सारी 

हम शोषक मानव शोषित  हैं।


सही  अर्थ में  फसल   हमारी

नर - नारी   का   रक्त लाल है

चुपके  से  छिपकर  आ  पीते

खुजलाते  तुम खूब खाल  है 

सब गुणसूत्र तुम्हारे   तन   में

पहले से ही सब   घोषित  हैं।


नफरत इतनी करो न  हमसे

जीवन भर का  साथ  हमारा

'ऑल आउट' से हमें न मारो

नहीं जहर  का  दे   फुव्वारा

नाली -  नाले   से  मत  तारो

'शुभम्' दंशकी - दंशक  सारे

हर नर -  नारी   से  रोषित हैं।


शुभमस्तु !


28.01.2025●8.30प०मा०

                    ●●●

बड़ा प्यार आए! [नवगीत]

 049/2025

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


हमें आदमी पर

बड़ा प्यार आए।


आहार सबका 

प्रभु ने बनाया

दंशन की खातिर

मानव है आया

प्रथम पाँव छू के

श्रवण गुनगुनाए।


हमें रक्त पीना

तभी मित्र जीना

दिखा आदमी जो

हो प्रशस्त सीना

चर्म छिद्र करके

सूची घुसाए।


यही कामना है

दुआ भी यही है

जिए आदमी

सौ-सौ वर्षों सही है

'शुभम्' स्वाद बदलें

शर्म क्यों सताए?


शुभमस्तु !


28.01.2025●4.45 प०मा०

                  ●●●

मच्छरों के जीमने को [ नवगीत ]

 048/2025

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मच्छरों के जीमने को

आदमी पैदा किया।


गजबजाती नालियाँ हैं

आलू टमाटर भी सड़े

भिनभिनाते घर छतों पर

रक्त के प्यासे अड़े

होता नहीं यदि आदमी तो

जलता नहीं उनका दिया।


भैंस की है खाल मोटी

रक्त हम कैसे पिएं

श्वान सूकर के सहारे

हम भला कैसे जिएं

और कुछ खाते नहीं हम

प्रण यही हमने लिया।


है दुआ अपनी हृदय से

आदमी लंबा जिए

अनुकूल हो मौसम हमारे

दंशकों के हित के लिए

एक नन्हा छिद्र काफी

छोड़ते बिन ही सिया।


शुभमस्तु !


28.01.2025●4.15प०मा०

                   ●●●

देखता हूँ मैं विडंबन [ नवगीत ]

 047/2025

               


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


देखता हूँ मैं विडंबन

ही  विडंबन का नजारा।


आज कोई भी पड़ौसी

मेल से रहते नहीं हैं

बाँटते हैं दुख हजारों

हर्ष  निज कहते नहीं हैं

बंद हैं अपने घरों में

कोई नहीं अपना हमारा।


आग जब लगती घरों में

कौन आता है बुझाने

वीडियो  लगते बनाने

ज्ञान भी लगते सुझाने

खाक होती निर्धनों की

झोंपड़ी, मरता बिचारा।


होलिका की आग जलती

स्वार्थ की पिचकारियाँ हैं

वैमनस्यों की शिखाएँ

पंक दूषित नालियाँ है

ढोल डफ कैसे  सुहाएँ

बिखरती जब रंग-धारा।


शुभमस्तु !


028.01.2025● 12.30प०मा०

                    ●●●

समय की कुछ चाल ऐसी [ नवगीत ]

 046/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समय की 

कुछ चाल ऐसी 

बदलता ही है।


खँडहरों में

बदल जाते

भवन भी सुंदर,

कार पर भी

घास उगती

बदलता मंजर,

जो कभी

अच्छा-भला हो

बिगड़ता भी है।


समय का है

चक्र ऐसा

कौन जन जाने,

दंभ में

ऊँचा उछलता

कुछ नहीं माने,

वक्त की

करवट अनौखी

उबलता भी है।


पहचानना

अनिवार्य सबको

जो नहीं जाना,

फिर पड़े

अनिवार्य उसको

शीघ्र पछताना,

बिगड़ जाए

जो समय तो

सँभलता भी है।


शुभमस्तु !


28.01.2025●3.00आ०मा०

जाना कुंभ प्रयाग में [ गीतिका ]

 045/2025

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आया  बारह  वर्ष   में,शुभ अवसर हे   यार।

जाना  कुंभ  प्रयाग में, खुलें  पुण्य के द्वार।।


वर्षों   से घट में  भरा,  अघ  ओघों का बोझ,

हलका    करें   नहान   से , हो  जाए  उद्धार।


दूध  और  पानी  मिला, नित्य कमाए 'पुण्य',

पय -दोहन में  जल  भरे,बढ़े भैंस पय -धार।


सुना   नहाने  से  घटें,  तन-मन  के सब पाप,

कर   ले  शीघ्र  नहान तू, हो जाए भव  पार।


मछली-मेढक   नित्य  ही, करते नदी  नहान,

महिमा  जान   नहान  की,गोता लगें हजार।


संत  न  छोड़ें   संतई,  छोड़ें  अघ  न  असंत,

ट्रेन-बसों    में  भीड़  है, नर जीवन का  सार।


मान    कसौटी  में  लिया,बहे त्रिवेणी   नित्य,

'शुभम्' नहा  संगम  करे, सभी सात शुभ वार।


शुभमस्तु !


27.01.2025●5.00आ०मा०

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कर ले शीघ्र नहान [ सजल ]

 044/2025

     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समांत       : आर

पदांत        :अपदांत

मात्राभार    :24.

मात्रा पतन  : शून्य।


आया  बारह  वर्ष   में,शुभ अवसर हे   यार।

जाना  कुंभ  प्रयाग में, खुलें  पुण्य के द्वार।।


वर्षों   से घट में  भरा,  अघ  ओघों का बोझ।

हलका    करें   नहान   से , हो  जाए  उद्धार।।


दूध  और  पानी  मिला, नित्य कमाए 'पुण्य'।

पय -दोहन में  जल  भरे,बढ़े भैंस पय -धार।।


सुना   नहाने  से  घटें,  तन-मन  के सब पाप।

कर   ले  शीघ्र  नहान तू, हो जाए भव  पार।।


मछली-मेढक   नित्य  ही, करते नदी  नहान।

महिमा  जान   नहान  की,गोता लगें हजार।।


संत  न  छोड़ें   संतई,  छोड़ें  अघ  न  असंत।

ट्रेन-बसों    में  भीड़  है, नर जीवन का  सार।।


मान    कसौटी  में  लिया,बहे त्रिवेणी   नित्य।

'शुभम्' नहा  संगम  करे, सभी सात शुभ वार।।


शुभमस्तु !


27.01.2025●5.00आ०मा०

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मेढक-मेढकी संवाद [अतुकांतिका]

 043/2025

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मेढकी बोली मेढक से :

'सुना है नहाना पुण्य है

मछली भी धन्य है

जिसे हर समय 

पानी में रहना 

और नहाना

अनुमन्य है।


'आदमी औरतों को

नहाते हुए देखा है,

वे  घर पर ही नहीं

 पवित्र नदियों में

गोते लगाते हैं,

और अपने पापों को

घटाते हैं,

कुछ लोग तो

पूर्णिमा अमावस्या

एकादशी नहाते हैं,

और पापों के बोझ को

जल में बहाते हैं।


'चलो हम भी

गङ्गा -स्नान को चलें,

अपने अघ -ओघ को

हटाते मिटाते रहें,

बहुत कुछ 

आदमियों की तरह,

कुम्भ भी चल रहा है

आदमी जाने को

मचल रहा है,

करोड़ों की भीड़ है,

बड़ा स्नान है,

पर्व महान है,

चलो हम भी

पाप धो आते हैं,

और पुण्य कमा लाते हैं।


मेढक बोला :

'चल भागवान

तू कहती है तो

सच ही होगा,

हम नदी की सवारी से

प्रयागराज में

पुण्य कमा आते हैं,

क्योंकि नहाना पुण्य है

कि…

नहाने से पुण्य! [ व्यंग्य ]


        042/2025 


 ©व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 आप यदि सुनने में रुचि रखते हों तो एक नई बात बताऊँ। यदि आप ज्यादा बड़े ज्ञानी-ध्यानी हों तो आप को यह बात मुझसे पहले से भी पहले ज्ञात हो सकती है।नई बात यह है कि सुना है कि नहाने से भी पुण्य मिलता है। जो लोग नहीं नहाते ,इसका मतलब यह हुआ कि वे पाप करते हैं अर्थात पापी हैं।यह तो एक सामान्य दैनिक चर्या है। यदि पुण्य कमाना है तो सौ काम छोड़कर नहा जरूर लीजिए।चोरी करिए,डकैती डालिए,रिश्वत लीजिए,गबन कीजिए,शुद्ध माल में कमाल कीजिए, चाहे लीद को धनिया बनाइए या पानी को दूध, चर्बी को देशी घी, मैदा को असली हींग,पीले रंग को हल्दी, ईंट के चूर्ण को लाल मिर्च बनाइए।ये सब कीजिए, इनसे बड़ा पुण्य क्या हो सकता है ,क्योंकि यह आपका दैनिक कार्य है।पर नहाना मत छोड़िए। 

 नहाने के उपरांत माथे पर तिलक और देह पर छापा लगाने का विशेष महत्त्व है। यदि ऐसा हो जाए तो कहना ही क्या ! पाप तो ठहर ही नहीं सकते। बिलकुल चिकने घड़े जैसी स्थिति हो जाती है।जैसे चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता, वैसे ही नहाने के बाद तिलक छाप लगने से पाप पलायन कर जाते हैं। हो सके तो ये भी कर लीजिए। 

 यदि नहाना पुण्य नहीं होता तो सुअर भी नाला-नहान नहीं करता। भैंस तालाब-नहान नहीं करती। मछलियाँ तो नहाने को इतना अधिक महत्त्व देती हैं कि रात दिन 365 दिन बारहों मास नहाती ही रहती हैं।मेढक महोदय से क्या पूछना कि नहाने की क्या महिमा है। हंस ,बतख, बगले,सारस आदि सभी स्नान -भक्त हैं।जब पानी से निकलेंगे ,तभी तो पाप लगेगा।इसलिए पड़े रहो,नहाते रहो,उदर पूर्ति भी और नहाते रहना भी। इन्हें भी बाकायदा पाप-पुण्य का पूर्ण ज्ञान है।चाहे कुछ भी करें ,पर सब छोड़कर नहाएंअवश्य। नहाने से देह का मैल साफ होता है,इसलिए भीतर चाहे जो कुछ भरा रहे पर देह के गेह पर नेह लेपन होना ही चाहिए। क्योंकि पाप वहीं पर तो चिपक सकते हैं।पानी में पाप प्रक्षालन की तीव्र क्षमता होती है।उसमें भी यदि गंगा जैसी नदी का जल मिल जाए तो सात -सात पीढ़ियों का उद्धार हो जाए। 'सामूहिक पाप निवारण उत्सवों' को कभी नहीं भूलना चाहिए। ये कम से कम प्रत्येक मास में चार -पाँच बार और कभी-कभी शडवार्षिक और कभी -कभी द्वादश वार्षिक आते हैं। यहाँ किश्तों में पाप -शोधन किया जा सकता है।ऐसे अवसरों को कभी नहीं भूलना चाहिए।एकादशी,अमावस्या,पूर्णिमा आदि तिथियाँ नदियों में स्नान कर पाप -प्रक्षालन हेतु ही बनाई गई हैं।यों तो घर की पटिया पर या बाथरूम की सीट पर बैठकर नहाया जा सकता है ,पर नदिया-नहान का महान महत्व है।वैसे तो पाप धोने के लिए कहीं भी नहाया जा सकता है। बचपन से पनारे के नीचे ,छत आँगन या गली सड़कों पर नहाते और पाप का बोझ हलका करते चले ही आ रहे हैं। तब सचैल और अचैल दोनों ही प्रकार से स्नान होता था। नंग -धड़ंग नहाने से कभी किसी ने नहीं रोका - टोका। वह अपनी प्राकृतिक अवस्था थी,प्राकृतिक रहन -सहन का स्वर्णिम युग था। अब ऐसा वैसा कुछ भी सम्भव नहीं है।सब समय -समय की बात है। स्वर्ण युग ज्यादा लंबी अवधि का नहीं होता।

 नहाने के बाद आप सबने यह महसूस किया होगा कि शरीर हलका हो गया ,एक दम भार रहित। यह भार हमारे जीवन के उन पापों का ही होता है,जिन्हें हम गबन, रिश्वत, मिलावट,झूठ,चोरी,बेईमानी आदि से अर्जित कर लेते हैं।नहाए कि पाप -भार शून्य। इसलिए नहाना मत छोड़िए।यदि निर्मल शीतल जल से न नहा सकें तो उसे हलका गरम या गुनगुना कर लीजिए। पर नहाइए जरूर। जाड़े में भला कौन नहाना चाहता है,किन्तु जब ध्यान हमें हमारे पापों की ओर जाता है तो कड़कड़ाती हुई ठंड में भी विवश होकर नहाना पड़ता है। जिसके आदि और अंत में ही 'न' या 'ना' लगा हो ,परन्तु करें तो क्या करें। पाप प्रक्षालन का एक मात्र महत मंत्र है कि नहाया जाए। भला कोई पाप- बोझ का कुंभ सिर पर रखकर क्यों जाना चाहेगा ?इसलिए साथ के साथ बोझ हलका करने का विधान पहले से ही बना दिया गया है। 

 पानी, पाप और नहाने की तिगड़ी बड़े काम की है। पानी नहीं तो नहाना कैसा ? ज्यादा पाप इकट्ठे होने पर साबुन के इस्तेमाल से कोई इनकार नहीं है। पर नहाएँ जरूर।नहाने के लिए पसीना या परिश्रम अनिवार्य नहीं। जो पसीना नहीं बहाते ,वे भी नहाते हैं और जो परिश्रम नहीं करते ,वे भी नहाते हैं। नहाने का एकमात्र उद्देश्य पाप ही हैं। जितने अधिक पाप,उतना ज्यादा नहाना। इसीलिए पड़ता है कुछ बड़े पापी जन को गङ्गा या यमुना में नहाना। 25.01.2025● 7.45 प०मा० 

 ●●●      

नहाने से पुण्य! [ व्यंग्य ]


042/2025 

 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 आप यदि सुनने में रुचि रखते हों तो एक नई बात बताऊँ। यदि आप ज्यादा बड़े ज्ञानी-ध्यानी हों तो आप को यह बात मुझसे पहले से भी पहले ज्ञात हो सकती है।नई बात यह है कि सुना है कि नहाने से भी पुण्य मिलता है। जो लोग नहीं नहाते ,इसका मतलब यह हुआ कि वे पाप करते हैं अर्थात पापी हैं।यह तो एक सामान्य दैनिक चर्या है। यदि पुण्य कमाना है तो सौ काम छोड़कर नहा जरूर लीजिए।चोरी करिए,डकैती डालिए,रिश्वत लीजिए,गबन कीजिए,शुद्ध माल में कमाल कीजिए, चाहे लीद को धनिया बनाइए या पानी को दूध, चर्बी को देशी घी, मैदा को असली हींग,पीले रंग को हल्दी, ईंट के चूर्ण को लाल मिर्च बनाइए।ये सब कीजिए, इनसे बड़ा पुण्य क्या हो सकता है ,क्योंकि यह आपका दैनिक कार्य है।पर नहाना मत छोड़िए।

 नहाने के उपरांत माथे पर तिलक और देह पर छापा लगाने का विशेष महत्त्व है। यदि ऐसा हो जाए तो कहना ही क्या ! पाप तो ठहर ही नहीं सकते। बिलकुल चिकने घड़े जैसी स्थिति हो जाती है।जैसे चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता, वैसे ही नहाने के बाद तिलक छाप लगने से पाप पलायन कर जाते हैं। हो सके तो ये भी कर लीजिए।

 यदि नहाना पुण्य नहीं होता तो सुअर भी नाला-नहान नहीं करता। भैंस तालाब-नहान नहीं करती। मछलियाँ तो नहाने को इतना अधिक महत्त्व देती हैं कि रात दिन 365 दिन बारहों मास नहाती ही रहती हैं।मेढक महोदय से क्या पूछना कि नहाने की क्या महिमा है। हंस ,बतख, बगले,सारस आदि सभी स्नान -भक्त हैं।जब पानी से निकलेंगे ,तभी तो पाप लगेगा।इसलिए पड़े रहो,नहाते रहो,उदर पूर्ति भी और नहाते रहना भी। इन्हें भी बाकायदा पाप-पुण्य का पूर्ण ज्ञान है।चाहे कुछ भी करें ,पर सब छोड़कर नहाएंअवश्य। नहाने से देह का मैल साफ होता है,इसलिए भीतर चाहे जो कुछ भरा रहे पर देह के गेह पर नेह लेपन होना ही चाहिए। क्योंकि पाप वहीं पर तो चिपक सकते हैं।पानी में पाप प्रक्षालन की तीव्र क्षमता होती है।उसमें भी यदि गंगा जैसी नदी का जल मिल जाए तो सात -सात पीढ़ियों का उद्धार हो जाए। 'सामूहिक पाप निवारण उत्सवों' को कभी नहीं भूलना चाहिए। ये कम से कम प्रत्येक मास में चार -पाँच बार और कभी-कभी शडवार्षिक और कभी -कभी द्वादश वार्षिक आते हैं। यहाँ किश्तों में पाप -शोधन किया जा सकता है।ऐसे अवसरों को कभी नहीं भूलना चाहिए।एकादशी,अमावस्या,पूर्णिमा आदि तिथियाँ नदियों में स्नान कर पाप -प्रक्षालन हेतु ही बनाई गई हैं।यों तो घर की पटिया पर या बाथरूम की सीट पर बैठकर नहाया जा सकता है ,पर नदिया-नहान का महान महत्व है।वैसे तो पाप धोने के लिए कहीं भी नहाया जा सकता है। बचपन से पनारे के नीचे ,छत आँगन या गली सड़कों पर नहाते और पाप का बोझ हलका करते चले ही आ रहे हैं। तब सचैल और अचैल दोनों ही प्रकार से स्नान होता था। नंग -धड़ंग नहाने से कभी किसी ने नहीं रोका - टोका। वह अपनी प्राकृतिक अवस्था थी,प्राकृतिक रहन -सहन का स्वर्णिम युग था। अब ऐसा वैसा कुछ भी सम्भव नहीं है।सब समय -समय की बात है। स्वर्ण युग ज्यादा लंबी अवधि का नहीं होता। 

 नहाने के बाद आप सबने यह महसूस किया होगा कि शरीर हलका हो गया ,एक दम भार रहित। यह भार हमारे जीवन के उन पापों का ही होता है,जिन्हें हम गबन, रिश्वत, मिलावट,झूठ,चोरी,बेईमानी आदि से अर्जित कर लेते हैं।नहाए कि पाप -भार शून्य। इसलिए नहाना मत छोड़िए।यदि निर्मल शीतल जल से न नहा सकें तो उसे हलका गरम या गुनगुना कर लीजिए। पर नहाइए जरूर। जाड़े में भला कौन नहाना चाहता है,किन्तु जब ध्यान हमें हमारे पापों की ओर जाता है तो कड़कड़ाती हुई ठंड में भी विवश होकर नहाना पड़ता है। जिसके आदि और अंत में ही 'न' या 'ना' लगा हो ,परन्तु करें तो क्या करें। पाप प्रक्षालन का एक मात्र महत मंत्र है कि नहाया जाए। भला कोई पाप- बोझ का कुंभ सिर पर रखकर क्यों जाना चाहेगा ?इसलिए साथ के साथ बोझ हलका करने का विधान पहले से ही बना दिया गया है। 

 पानी, पाप और नहाने की तिगड़ी बड़े काम की है। पानी नहीं तो नहाना कैसा ? ज्यादा पाप इकट्ठे होने पर साबुन के इस्तेमाल से कोई इनकार नहीं है। पर नहाएँ जरूर।नहाने के लिए पसीना या परिश्रम अनिवार्य नहीं। जो पसीना नहीं बहाते ,वे भी नहाते हैं और जो परिश्रम नहीं करते ,वे भी नहाते हैं। नहाने का एकमात्र उद्देश्य पाप ही हैं। जितने अधिक पाप,उतना ज्यादा नहाना। इसीलिए पड़ता है कुछ बड़े पापी जन को गङ्गा या यमुना में नहाना। 

 25.01.2025● 7.45 प०मा० 

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शनिवार, 25 जनवरी 2025

मालिक [ व्यंग्य ]

 041/2025


©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 हमारे यहाँ 'मालिक' शब्द का विशेष महत्त्व है। यों तो 'मालिक' शब्द की संरचना 'माल' शब्द से हुई होगी,ऐसा प्रतीत होता है। इसी से मालकियत,मालिकाना,मालिकी आदि शब्दों का सृजन हुआ होगा।जो भी हो ,अरबी भाषा के 'मलिक' या 'मालेक' शब्द की हिंदी में भी पूरी मालकियत है।उसे यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ मालिकाना हक प्राप्त है। कभी ईश्वर के अर्थ में तो कभी स्वामी या अधिपति के अर्थ में मालिक शब्द बख़ूबी प्रयुक्त होता है। जब वह ईश्वर को मालिक कहता है तो यही गाते हुए दिखाई देता है :'मालिक तेरे बंदे हम!' सामान्यतः वह सबसे बड़ा मालिक अपने को ही मानता है।अपने सामने वह किसी की मालिकी स्वीकार करने के दम्भ को छोड़ना नहीं चाहता। आखिर मालिक तो मालिक ही है और मालिक ही रहेगा ,मालिक ही रहना चाहेगा। 

 जब 'मालिक' शब्द की चर्चा प्रारम्भ हुई है तो यह जिज्ञासा भी स्वाभाविक है कि किसी कार्यस्थल पर ,विवाह - शादी के अवसर पर उपस्थित भीड़ में मालिक क्या असली मालिक की पहचान कैसे हो ? जहां तक मैं समझता हूँ कि किसी समारोह आदि में जो आदमी अपनी कुछ विशेष मुद्राओं में घूमता -टहलता ,कुछ भी नहीं करता हुआ सबसे निकम्मा दिखाई दे,उसे बिना सोचे समझे,बिना पूछे या जाँच पड़ताल किए हुए 'मालिक' या लड़की का बाप या लड़के का बाप मान लेना चाहिए। वह व्यक्ति कमर पर हाथ रखे हुए बड़ी ही चौकन्नी नजरों से इधर उधर दिखाई देता है।कभी -कभी वह अपनी दोनों भुजाओं को अपने वक्षस्थल पर एक दूजे में बाँधे हुए दृष्टिगोचर हो सकता है। उसकी एक मुद्रा यह भी हो सकती है कि वह अपने दोनों हाथ अपनी पीठ पीछे लटकाये हुए दाएँ हाथ से बाएँ हाथ को पकड़े हुए अथवा बाएँ हाथ से दाएँ हाथ को थामे हुए अपनी ही मस्ती में खड़ा अथवा टहलता हुआ दिख जाए। मानो सोच रहा हो मुझे क्या करना है, मैं तो इस फंक्शन का मालिक हूँ ही। मुझे तो बस यह देखना है कि कहीं कोई कमी तो नहीं है। यदि कमी हो तो उसे किसी से कहकर पूरा भी कराना है। हाँ, मुझे स्वयं कुछ नहीं करना है। मालिक भी कहीं काम करते हैं! कभी - कभी वह अपना दाहिना हाथ उठाए हुए अपनी तर्जनी अँगुली से किसी को कुछ 'ऐसे करो' , 'यह लेकर आओ' ,'नाई ठाकुर को बुलाओ', 'बल्लियाँ गाड़ो', 'टेंट लगाओ', 'लाइट जल्दी जल्दी सेट करो,बारात आने वाली है', जैसे आदेश - निर्देश देता हुआ दिखाई दे। 

 'मालिक' एक रुतबेदार ,गर्व और गुरूर से गौरवान्वित नाम है।अब चाहे वह किसी बनते हुए मकान का मालिक हो अथवा किसी देश या प्रदेश का मालिक।मैं यह नहीं कहता कि देश या प्रदेश का मालिक कोई काम नहीं करता।वह जो भी करता है,वह भी तो किसी काम से कम नहीं है।जिम्मेदारी भी किसी काम से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यह तो अपने- अपने लक की बात है कि कौन कब कहाँ का 'मालक' (मालिक) बनता है।यह देश ही ऐसा है कि यहाँ काम न करना पड़े इसलिए लोग मालिकी ढूंढ़ते हैं।जितना बड़ा पद ,उतना काम कम ,जिम्मेदारी ज्यादा। वस्तुतः मालिकी एक इशारेबाजी का काम है। अपने इशारों या रिमोट से सत्ता चलती रहे, यही मालकियत है। माल को करने वाला (माल+क) ही मालिक कहलाने का सच्चा अधिकारी है। 

 जो किसी 'माल' का 'मालिक' है ,वह उस माल का जो भी करे। चाहे पचाए या बंटवाए या ललचाए।जिस पर माल नहीं,वह उसे पचा भी नहीं सकता। चाहे तो मजा करे ,चाहे तो पचा कर आगे बढ़े। जैसे इस देश में पुल, सरिया,सीमेंट,जमीन, हवाई जहाज, लड़ाकू विमान,चारा, गाय-गोरू और न जाने क्या-क्या हजम हो गए। यह काम किसी मालिकाना हकदार के बिना हो नहीं सकता।लेबर,चपरासी कभी चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकता। हाथी को हजम करने का हाजमा भी तगड़ा ही होना चाहिए। जो किसी गैर मालिक का साहस नहीं हो सकता।मालिक वही जो दमदार हो सही।

 मालिक चाभे माल को,साहस भी बरजोर। 

चिलमचोर करता रहे, भले बड़ा ही शोर।। 

मालिक घूमे टेंट में, रखे कमर पर हाथ।

 चार लोग सँग में खड़े,हुकुम करो हे नाथ।। 

 अंत में यही कहना चाहूँगा कि अपने अंदर बैठे हुए मालिक की खोज करें कि उसने किस सीमा तक आपको मालिक बना रखा है। हमारे यहाँ संस्था का बॉस,स्त्री का पति ,संतति का जनक, जिले या तहसील का सर्वोच्च अधिकारी भी मालिक ही हैं।वे खाएँ ,फैलाएं या लुढ़काएँ।किसी को सताएँ या न सताएँ ,पर अपना लक्ष्य पूरा कराएँ। मालिकों को माल को माल ही समझना है ;कोई मैल नहीं।जिस वस्तु ,व्यक्ति ,संस्था,संस्थान, मकान,धन,धान्य,फेक्ट्री,भैंस,गाय, मसाला,घी ,धनिया, मिर्च, हल्दी, गधा ,घोड़ा,कुत्ता,बिल्ली, बकरी, कारखाने ,स्कूल ,कालेज ,तहसील,जिला ,प्रदेश या देश का आपको मालिक बनाया गया है,उसका सम्मान करें और लीद को धनिया, चर्बी को घी ,पानी को दूध सिद्ध करने में शर्म महसूस करें। पता लगा कि उसके दाग-धब्बे धोने के लिए कुंभ-स्नान का टिकट कटाना पड़े। 

 शुभमस्तु !

 25.01.2025●1.45प०मा० 

 ●●●

शुक्रवार, 24 जनवरी 2025

बोते अधिक निराई कम हो [ नवगीत ]

 040/2025

     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बोते अधिक

निराई कम हो

उगते खरपतवार।


बड़े गुणीजन

सीख दे रहे

लिखने को नवगीत,

करो गुड़ाई

अच्छी खासी

तब निकले नवनीत,

कथ्य कहन

सब भाव सही हों

अंतर्वस्तु निनार।


वर्तमान के 

सरोकार से

जुड़ा हुआ नव कथ्य,

परंपराएं

टूट गई हैं

लेना   ही   है   पथ्य,

देश काल को

कैसे भूलें

कवि हो अलग विचार।


'नव गति नव लय

ताल छंद नव,

सुकवि निराला रीत,

सदी आज

इक्कीस खोलती

नवगीतों की प्रीत,

खुले झरोखे 

नए शोध के

मिला 'शुभम्' का प्यार।


शुभमस्तु !


24.01.2025● 5.45 प०मा०

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खरपतवारों के बीच [ नवगीत ]

 039/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


खरपतवारों के बीच

कहाँ से उग पाए

नवगीत।


जमींदार के खेत

लुभाते अपनी-अपनी ओर,

बिना नमी की रेत

ले रही  ऊँची हुलस हिलोर,

शुष्क  शब्दों से सींच

सृजन में क्यों सज जाए 

नवगीत!


कथ्य में ढूँढ़ रहे बहु दोष

भाव भी नहीं सरीखे गीत,

नहीं उपमाएँ भर औचित्य

नहीं बन पाए अपना मीत,

खीर में डाली कीच

यजन क्यों करे आज

नवगीत!


बनाओ पहले फ्रेम

उसी में फिट करने हैं बोल,

बजाते जाओ ढोल

सभी अपने सारे दिल खोल,

सभी फेंको खरपतवार

गीतों का सरताज 'शुभम्'

नवगीत।


शुभमस्तु !


24.01.2025●2.30 प०मा०

                   ●●●

ज्ञात से अज्ञात मैं [संस्मरण ]

 038/2025

 

 ©लेखक

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 मेरी मात्र तिहत्तर वर्ष की वर्तमान आयु और कुल बासठ वर्षों की अनवरत साहित्य साधना में गंगा में बहुत सारा गंगाजल बह गया;किन्तु उस सबका परिणाम मेरे समक्ष होने के बावजूद मैं उसका सही- सही आकलन आज तक नहीं कर पाया। अतीत के इन बासठ वर्षों में शोध साहित्य,कहानियाँ, गद्यात्मक व्यंग्य सहित्य,काव्यात्मक व्यंग्य साहित्य, महाकाव्य, खंडकाव्य,अतुकांत साहित्य,ग़ज़ल गीतिका काव्य,गीत,नवगीत साहित्य,बाल काव्य,उपन्यास, कुंडलिया साहित्य,दोहा साहित्य,भक्ति साहित्य,एकांकी,लघुकथाएं आदि विविधतापूर्ण का सृजन हुआ है;किंतु 31 कृतियों के प्रकाशन के बावजूद अभी तक यह ज्ञात ही नहीं कर पाया कि इनकी कितनी संख्या है।जैसे गंगोत्री धाम को नहीं पता कि उसने कितना गंगाजल इस धराधाम और सागर अबाध को बहा दिया।

  यों तो 1968 में हाई स्कूल में आते -आते मेरे लेखों,कविताओं,व्यंग्यों और कतिपय शोध पत्रों का प्रकाशन कॉलेज पत्रिकाओं, राष्ट्रीय मासिक पत्रों और दैनिक समाचार पत्रों में प्रारम्भ हो गया था; किंतु मेरी साहित्यिक यात्रा की जिस प्रथम काव्य कृति का प्रकाशन वर्ष 1992 में हुआ वह थी दोहा चौपाई शैली में निबद्ध हास्य व्यंग्य कृति 'श्रीलोकचरितमानस'। 1992 में मेरी पूजनीया माँ का बिना किसी बीमारी के आकस्मिक निधन होने पर मुझे बहुत सदमा लगा और राजकीय सेवा में घर से 350 किलोमीटर दूर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बीसलपुर (पीलीभीत) में होने के कारण मैं उनके अंतिम दर्शन भी नहीं कर सका। तब उसी शोक अवधि में जो खंडकाव्य कृति प्रकाश में आई ,वह 'बोलते आँसू' के रूप में 1993 में प्रकाशित हुई ;जिसे शृंगार छंद में पूर्ण किया गया। यह एक खंडकाव्य था। यह कृति मात्र तीन दिन में पूर्णता को प्राप्त हुई।इसके बाद कृतियों के प्रकाशन की शृंखला ही प्रारंभ हुई जो निरन्तर प्रवहमान है। 

 अपने अद्यतन प्रकाशित साहित्य को मैंने चौदह भागों में विभाजित किया है।इसमें पहला है 'व्यंग्य साहित्य' ;जो अपने दो रूपों में विभाजित किया जाता है।पहले भाग में व्यंग्यात्मक काव्य सृजन है :जिसके अंतर्गत 1. श्रीलोकचरितमानस (1992) 2.सारी तो सारी गई (2009) 3.'शुभम्' कहें जोगीरा(2024) हैं। द्वितीय भाग में व्यंग्यात्मक गद्य सृजन है।जिसके अंतर्गत क्रमशः चार कृतियाँ 1.'शुभम्' व्यंग्य वातायन(2020) 2.विधाता की चिंता (2022) 3.'शुभम्' व्यंग्य वाग्मिता (2023) 4.'शुभम्' व्यंग्योत्सव (2024) प्रमुख व्यंग्य कृतियाँ हैं।

    मेरे प्रकाशित साहित्य का द्वितीय रूप है 'महाकाव्य' ;जो वर्ष 2018 में तपस्वी बुद्ध के रूप में वैविध्य पूर्ण छंदानुबद्ध हुआ।इसकी रचना उसी समय हो गई थी जब 1971 में मैं ग्यारहवीं कक्षा का विद्यार्थी था। सहित्य के तृतीय रूप के अंतर्गत 'खंडकाव्य' की तीन कृतियाँ प्रकाश में आईं: 1.बोलते आँसू (1993) 2.ताजमहल (2008) 3.फिर बहे आँसू (2018) ये तीनों कृतियाँ क्रमशः तीन, सात और तीन दिन में लिखी गई रचनाएँ हैं। 

  'ग़ज़ल और गीतिका संग्रह' प्रकाशित कृतित्व का चतुर्थ रूप है।जिसके अंतर्गत 1.स्वाभायनी (2000) 2.रसराज (2011) 3.'शुभम्' ग़ज़ल गीतिकायन (2023). हैं। प्रकाशित कृतियों के पंचम रूप के अंतर्गत मेरे 'गीत संग्रह' 1.'शुभम्' गीत गंगा और 2.'शुभम्' राम ही साँचा आगणित किए जाते हैं। सहित्य के षष्ठ रूप 'बाल साहित्य',जिसके अंतर्गत बालगीत एवं बाल कविताएँ हैं ,तीन पुस्तकें प्रकाश में आई हैं: 1.आओ आलू आलू खेलें(2020) 2. 'शुभम्' बालसुमन स्तवक(2023) 3. 'शुभम्' बालगीत वाटिका(2024) . 'शोध साहित्य' प्रकाशित साहित्य का सप्तम रूप है। जिसमें मेरा शोध प्रबंध 1.नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्त्व(2008)। और 2.'शुभम्' शोध साहित्य (शोध पत्र संग्रह) (2024) सम्मिलित किए जाते हैं।

  साहित्य के अष्टम रूप के अंतर्गत 'उपन्यास' ग़ज़ल (2008) को समाहित किया गया है। मेरे साहित्य का नवम रूप 'कुंडलिया साहित्य' है जिसके अंतर्गत 'शुभम्' कुण्डलियावली (2022)प्रकाशित हुई। दशम रूप 'दोहा सृजन' का जो 1.अक्षर अक्षर ब्रह्म है (2023) 2.'शुभम्' दोहा दीप्ति (2023) के रूप में सामने आया है। 'भक्ति साहित्य' मेरे प्रकाशित कृतित्व का एकादश रूप है। जिसके अंतर्गत 1.'शुभम्' स्तवन मंजरी(2022) 2.'शुभम्'भक्ति रसांजन (2023) प्रमुख हैं। यों तो महाकाव्य 'तपस्वी बुद्ध 'और 'शुभम्' राम ही साँचा कृतियों को भी इसके अन्तर्गत समाहित किया जा सकता है। द्वादश रूपान्तर्गत 'चौपाई संग्रह' की पुस्तक 'शुभम्' सृजन वल्लरी (2024) है। सहित्य के त्रयोदश रूप में नाटक, कहानियां और कतिपय प्रारम्भिक व्यंग्य रचनाएँ आती हैं। जो 'अहल्या पत्थर की नहीं थी' (2024) के रूप में प्रकाशित हुई है।इस कृति में दो एकांकी ,कुछ कहानियाँ और व्यंग्य आलेख प्रत्यक्ष हुए हैं।ये वे रचनाएँ हैं जो 1980 से पूर्व अधिकांशतः देश की स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। 'अतुकांत काव्य सृजन' का चतुर्दश रूप 1.गणतंत्र की तस्वीर का दूसरा रुख(2024) और 2.'शुभम्' शब्दरस रंजनिका (2025) के रूप में सामने आया है।

  इस प्रकार 1992 से 2025 के प्रारंभिक मास तक 31 साहित्यिक सृजन की शुभम् शृंखला आपके समक्ष प्रस्तुत है। जिनमें गद्य और पद्य के अंतर्गत विविध छंदों और अछंदों की साहित्य लहरियाँ प्रवहमान हुई हैं। फिर वही बात दुहराता हुआ यही कहूँगा कि अब तक कितनी रचनाएँ प्रकाशित और अप्रकाशित हैं; उनका कोई संख्यांक उपलब्ध नहीं है। बस गंगा बह रही है और अपने गंतव्य की ओर निरंतर गतिमान है। 

 सर्वे    भवंतु    सुखिनः    सर्वे    संतु   निरामयाः। 

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःखभाक् भवेत।।

 शुभमस्तु ! 

24.01.2024● 10.30 आ०मा०

 ●●●

सौ में से सौ नम्बर [अतुकांतिका]

 037/2025

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सौ में से सौ नम्बर

कोई बना बेलदार

कोई नामी प्लम्बर

मिला नहीं चैंबर।


शहद ढूँढें डिग्रियाँ

चाटनी जो हैं,

तेल ढूँढे डिग्रीधारी

बिकना जो है।


रोज पाए सहस्र एक

मजदूर मिस्त्री,

एम.ए. पी एच.डी.

दो सौ में एक स्त्री।


अँगूठा छाप नेता

आई पी एस अधिकारी,

'जो हुकुम बजा लाऊँ'

शिक्षा एक महामारी।


नम्बरों के रोग से

बीमार छात्र माँ बाप,

योग्यता में गोल अंडा

बुरा न मानें आप।


सौ में से सौ नम्बर तो

कंपटीशन में ज़ीरो,

मोबाइल टीवी के

एक नम्बर हीरो।


शुभमस्तु !


23.01.2025●6.00प०मा०

                 ●●●

बेच रहे जो तेल [ नवगीत ]

 036/2025

           


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप शुभम्'


शहद ढूँढ़ता

डिग्रीधारी

बेच रहे जो तेल।


रात -रात भर

आँखें फोड़ीं

सौ में सौ की बात,

आया जब

परिणाम देखता

नब्बे की  सौगात,

साला हुआ

परीक्षक अपना

किया गया है खेल।


डिग्री खाए

चाट पकौड़ी

धारक नत सिर भाल,

डॉक्टरेट से

क्या मिल पाया

मुझको बड़ा कमाल,

सोच रखा था

मन में भीषण

चले नोट की रेल।


पाते एक हजार

रोज के

बिना पढ़े मजदूर,

एक माह में

मिलें सहस दो

बड़े- बड़े मजबूर,

उचित यही अब

बिना टिकट हम

करें जेल से मेल।


शुभमस्तु !


23.01.2025 ● 5.00प०मा०

                  ●●●

जीभ ले रही स्वाद [ नवगीत ]

 035/2025

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मन पोखर

तन गंगा धोया

जीभ ले रही स्वाद।


बगुला भगत

टाँग एकल पर

नित्य  भक्ति रंगीन ,

मछली उसे

दिखाई देती

पोखर  पड़ी मलीन,

वसन गेरुआ

तन पर धारे

करनी है आजाद।


मादा बगुला भी

क्यों कमतर

नर के तुल्य समक्ष,

बगुला को

सँग में ले डूबे

मटका बाईं अक्ष,

एक-एक कर

होते ग्यारह

करते चुप संवाद।


हर-हर जपे

हरा ही दीखे

चंदन तिलक विशाल,

माल मुफ्त

औरों का चाहे

स्वीकृत नहीं जवाल,

उसके जाने

कोई भी यों

हो जाए बरबाद।


शुभमस्तु !


23.01.2025●2.00प०मा०

सरिता तट से दूर सुनाई पड़े [नवगीत ]

 034/2025

  


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सरिता तट से दूर सुनाई पड़े

लहर कलनाद।


मंद मधुर  मृदु शब्दों में भी

होते हैं नव प्राण

मंत्र  वही  कानों  में बनते 

मानवता का त्राण

हाहाकारों की हलचल से

होता सदा विवाद।


परिश्रान्त को  शांति प्रदाता

सरिता की हर बूँद

एक - एक को  गोते देती

अपनी आँखें मूँद

नहीं सोच हिंदू मुस्लिम की

करती प्रिय संवाद।


भेदभाव केवल मानव की

होती है पहचान

कुदरत ही साँची है जन से

सबका ही है मान

इंसानों के पोखर मन में

बहती रहती गाद।


शुभमस्तु !


23.01.2025●12.00मध्याह्न

                     ●●●

कान को सीधे न पकड़ो [ नवगीत ]


        


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कान को सीधे न पकड़ो

ये गलत है।


जा रहे जो लोग पूरब

रुद्ध बोलें

हाथ ले अपनी तराजू

देश तोलें

नेह को यों तुम न जकड़ो

ये गलत है।


आदमी सोया हुआ है

मत जगाना

राह जो भटका हुआ है

मत बताना

नाक के सँग माथ रगड़ो

ये गलत है।


जज अदालत की जरूरत

अब नहीं है

पुलिस थाने की मशक्कत

व्यर्थ ही है

तांत्रिकों को सौंप दो सब

ये गलत है।


देश को नागा अघोरी ही

ही चलाएँ

सैनिकों की क्या जरूरत

जो बचाएँ

शत्रु से वे   खूब   अकड़ें

ये गलत है।


शुभमस्तु !


23.01.2025●11.00आ०मा०

                     ●●●

[1:15 pm, 23/1/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

रस भरे फल को निचोड़ूँ [ नवगीत ]

 032/2025

     


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रस भरे फल को निचोड़ूँ

सोचता हूँ।


पेड़ की फुनगी 

बहुत ऊँची बड़ी है,

उधर पेड़ों की

कतारें भी खड़ी हैं,

एक शाखा भी न मोड़ूँ

सोचता हूँ।


आम खाए 

जो मधुर खट्टे रसीले,

शूल चुभते

जो भरे विष के कँटीले,

जहर की झाड़ी न छोड़ूँ

सोचता हूँ।


आदमी को खूब परखा

मैं न जाना,

है पहेली जिंदगी ये

आज माना,

चाह की बदराह तोड़ूँ 

सोचता हूँ।


कौन अपना या पराया

सोचना क्या,

स्वार्थ के सम्बंध सारे

कब भुलाया?

झूठ  की ग्रीवा मरोड़ूँ

सोचता हूँ।


मंजिलें सबकी अलग हैं

अलग पथ भी,

है नहीं तुलना किसी से

अलग रथ भी,

'शुभम्' का नव पंथ जोड़ूँ

सोचता हूँ।


शुभमस्तु !


23.01.2025● 9.15आ०मा०

                    ●●●

मुझको न विलक्षण कुछ लगता [ नवगीत ]

 031/2025

 

© शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मुझको न विलक्षण कुछ लगता

जब देखा,  हैं   असमान  सभी।


जब काम बँटे  थे  जीवों   को

करनी का ही परिणाम मिला,

जैसा था जिसका काम दिखा

वैसा ही उसका सुमन खिला,

सब कीट  - पतंगे  भले लगे,

क्यों घृणा हृदय में जगे कभी।


नर की देही में श्वान मिले

खग शूकर बैल गाय कीड़े,

चाँदी का चम्मच लिए हुए

कोई - कोई दो कर मीड़े,

जीते जी मानव के तन में

कुछ मिले शशक या शेर अभी।


क्यों फल के कारण रोता है

पकती कर्मों की फसल यहाँ,

जो बीज आम का बोता है

बस आम्र पेड़ ही फले वहाँ,

काँटे बबूल में  लगते हैं

जिसको चुभते है विकल तभी।


शुभमस्तु !


22.01.2025● 9.30प०मा०

                  ●●●

मटर प्याज गोभी [ नवगीत ]

 030/2025

     


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नेताओं के लिए आम जन

मटर प्याज गोभी।


उनके बिना काम कब चलता

वही उठाते हैं

वही   पूँछ   भी   मूँछ वही हैं

जब इतराते हैं

काम निकल जाते पर, वे सब

मटर प्याज गोभी।


बैनर वही बाँधते ऊँचा

गड्ढे भी खोदें

पीछे जब पड़ जाएँ उनके

धनिया भी बो दें

दरी बिछाकर  उठवाते ,जन

मटर प्याज गोभी।


लगवाना  नित तन पर मक्खन

उन्हें खूब भाए

भर - भर चमचा स्वाद  ले  रहे

मजा मौज आए

राजनीति के  सुदृढ़  खंभ  जन

मटर प्याज गोभी।


शुभमस्तु !


22.01.2025●7.45प०मा०

                   ●●●

बुधवार, 22 जनवरी 2025

वर्जनाएँ कौन माने! [ नवगीत ]

 029/2025

             


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आदमी टूटा हुआ है

वर्जनाएँ कौन माने!


आदमी को आदमी में

ढूँढना है अब असंभव,

देह को ही कह रहा है

प्रेम का है आज ये ढव,

आदमी झूठा हुआ है

सर्जनाएँ कौन जाने !


धर्म का सिद्धांत क्या है

जानने की क्या जरूरत,

पाप को ही कर्म माने

बदली हुई है मर्म सूरत,

जिंदगी के अर्थ बदले

संकल्पनाएँ व्यर्थ माने।


पाप  धुलते  कुंभ  में  जा

भूलता अब तक नहीं जो,

गिद्ध -सा जो माँस खाए

मान्यता  उसकी यही जो,

जीव - हत्या में फँसा  है

अल्पनाओं   के   फसाने।


शुभमस्तु !


22.01.2025●10.45 आ०मा०

                   ●●●

पूस माघ संन्यास [ दोहा ]

 028/2025

           

[माघ,फागुन,संन्यास,फगुनाहट,प्रस्थान]

 ©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                सब में एक

माघ   पूर्णिमा  पावनी, सुरसरिता  के   तीर।

नहा   रहे   धर्मी  सभी, धरे  देह  शुभ   चीर।।

दान पुण्य का माघ में,अति महत्त्व मतिमान।

अघ  ओघों से मुक्ति हो, करते मनुज नहान।।


अरुण   वसंती   रंग से, फूले फागुन   मास।

पाटल  गेंदा   झूमते, कलियाँ  करतीं  हास।।

फागुन में  फगुआ मचे,डफ ढोलक का संग।

भौजी  रँग  - वर्षा   करे, दर्शक  होते   दंग।।


पूस   माघ  संन्यास  ले, विदा हुए  हैं  मीत।

वन-वन   टेसू  फूलते, मधु माधव की  जीत।।

कर्मशील   मानव  बनें,  धरें   नहीं संन्यास।

मात-पिता   भी चाहते,  मन में धर विश्वास।।


फगुनाहट  हर ओर है,  भ्रमर  रहे   हैं   झूम।

कली-कली  आलिंगना,  रहे सुमन को  चूम।।

नर-नारी मदमस्त हैं,  फगुनाहट का   घाम।

अंग -अंग को सालता,ऊष्मा ललित ललाम।।


षड् ऋतुओं का आगमन,क्रमशः फिर प्रस्थान।

राजा  मात्र वसंत   ही,  सुमन   सजा  उद्यान।।

मान  नहीं  जिस ठौर में,उचित न रहना   और।

करना   ही प्रस्थान  है,भले लाख     सिरमौर।।


                 एक में सब

माघ-शीत   संन्यास से,  करे ठंड     प्रस्थान।

फागुन  आया झूमकर, फगुनाहट   का  मान।।


शुभमस्तु !


21.01.2025●11.30प०मा०

                  ●●●

कुंभ नहाएँ! [ व्यंग्य ]

 

 027/2025

            

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

आपको कुंभ - स्नान के लिए अवश्य जाना चाहिए। आप तो जानते ही हैं कि आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है।यह कहावत कोई यों ही तो नहीं बन गई।जब आपने और आप जैसे ही बहुत सारे गुणी जनों ने आवश्यकता के बीज बोए हैं,तभी तो ये कुंभ का पेड़ बढ़कर आज तक सबके सामने प्रकट हुआ है।यह भी आप सब अच्छी तरह जानते हैं कि यह प्रत्येक बारह वर्षों के बाद आता है।कुंभ है तो उसको भरना भी जरूरी है,जब तक वह भरे नहीं ,तब तक उसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। माना यह गया कि बारह वर्षों में तो भर ही जाता होगा ,इसलिए कुंभ में स्नान की परंपरा प्रारंभ की गई।सम्पूर्ण रूप से 144 वर्षों में भरा हुआ माना गया ,इसलिए इसे महाकुंभ की संज्ञा से अभिहित किया गया।

जब बीज बोएंगे ,तो वह उगेगा।और एक दिन पूरा वृक्ष बनकर प्रकट हो लेगा। आज वही सुअवसर आया है कि बारह वर्ष भी हो गए और 144 वर्ष भी पूर्ण हो लिए।इसलिए आप सभी 'महागुणियों' का यह कर्तव्य बनता है कि आप प्रयागराज जाएँ, और त्रिवेणी के संगम में गोते लगाएँ। अपने समस्त पाप ताप को नसाएँ और लौटकर घर पर पधार जाएँ और पुनः उन्हीं कर्मों के क्रम को पूरा करने में जी जान से जुट जाएँ ;जिन्हें अब तक करते चले आ रहे थे और मेरे रोकने से भी आप मानने वाले तो हैं नहीं। आप वही करेंगे जो करते चले आ रहे हैं।जैसे जिसे दूध में पानी और धनिए में लीद मिलानी है ,तो मिलाएगा ही।किसी को हल्दी में रंग और रसायन,मिर्चों में रंग, काली मिर्च में पपीते के बीज,देशी घी में चर्बी,सरसों के तेल में पाम ऑयल, दवाओं में खड़िया,मावा में मैदा,दालों में कंकड़,गेहूँ के आटे में अन्य सस्ते सफेद पाउडर,बेसन में कोई पीला पदार्थ मिलाना है ,तो मिलाएगा ही और कभी छः साल बाद अर्द्ध कुंभ में,कभी मावस पूनों, नहायेगा ही।और अपना पाप परिष्कार कर गंगा में बहाएगा ही।चोर चोरी बन्द नहीं करता, डकैत डकैती में तन मन से संलग्न रहता है। रिश्वती रिश्वत लेना बंद नहीं करता।नेता जनता का शोषण करना नहीं छोड़ता। काम बुभुक्षु व्यभिचार नहीं रोक सकता। फिर कुंभ को ही क्या अवश्यकता है कि वह पुनः आगमन न करे।उसे तो कभी छः साला और कभी बारह साला होना ही है।

कुंभ - स्नान के पर्व को आप इतना सामान्य न समझें। यह विशेष ही है।विशेष जन के लिए ही है।आप जैसे 'महागुणी' भी तो इस हेतु वी. आई. पी. हैं। आप में से बहुत सारे वी.वी.आई.पी.भी हो सकते हैं।इस देश में वीआइपियों के लिए रिश्वत देकर दर्शन करा देने की भी व्यवस्था की जाती है। न मानो तो बड़े -बड़े मंदिरों में जाकर देख लो कि वहाँ कैसे नेताओं ,सुंदर और हसीन अभिनेत्रियों , अभिनेताओं,खिलाड़ियों,अधिकारियों को वीआईपी या वीवीआइपी के दर्जे में भगवान को चोरी चोरी दिखा दिये जाने का आचार चलता है। न ! न! न! इसे आप भ्रष्टाचार  मत कहिए ।यह तो वीआइपियों का विशेष सम्मान है। उन्हें चौबीस घण्टे से कम मिले हैं,इसलिए उन्हें अपना काम निबटाने में ज्यादा जल्दी रहती है। आम आदमी की क्या है !उसे तो चुसना ही है।वह दो चार दिन लाइन में खड़ा रहेगा तो क्या फर्क पड़ता है।हाँ,इस देश में वीआइपियों का विशेष ध्यान रखा जाता है ,तभी तो नेताजी के आगमन पर आम जन को मरने खटने के लिए छोड़ दिया जाता है। आम तो पैदा ही इसलिए हुआ है कि उसे चूसा जाए। समर्थ वीआईपी चूस रहे हैं। उन्हें पूछता ही कौन है ? आम आदमी का समय निर्मूल्य है तो वीआइपियों का अमूल्य ,बहुमूल्य!

'कुंभ' शब्द का अर्थ मेरे अपने अनुसार घड़ा होता है।इससे अधिक सोचने विचारने की इस अकिंचन की औकात ही कहाँ है! घड़ा अर्थात कुंभ भरा और भारी भरकम भीड़ के रूप में फट पड़ा।बारह क्या 144 के बाद आया है; इसलिए 'महाबड़ा' ! इसलिए हर 'महागुणी' स्नानार्थ अड़ा पड़ा।क्योंकि उसे भी तो खाली करना अपना -अपना घड़ा। अरे भाई और बहन जी अब आकर कर लेना ये मिलावट ,घिसावट,रिश्वत,किस्मत का काम। क्योंकि 45 दिन के बाद तो कहीं गङ्गा भी  मैली न हो जाए। और आप अपने घड़े को लुढ़का भी न पाएँ।क्योंकि जिस गति से वहाँ घड़े खाली किए जा रहे हैं,उससे यह नहीं लगता कि एक भी 'महागुणी' अब धरती पर बचेगा भी ! नहाना हो तो नहा लो,बड़े से बड़े पापों को बहा लो।बड़ी से बड़ी मैली कुचैली दीवार को ढहा लो। पर मन में भ्रम मत पालो कि  कुंभमें हल्के हो लेते तो नवीनीकरण हो लेता।अब अगले बारह वर्ष किसने देखे हैं ,कितनों को दिखने हैं।ये भारी घड़ा लेकर विदा होना तो ठीक नहीं है।इसलिए यहाँ का मैल यहीं झाड़ो तो अच्छा है। इससे बढ़िया सुअवसर भला कब आएगा? आपकी आवश्यकता ने आपके द्वारे कुंभ ला खड़ा किया है तो बहती गंगा में हाथ क्यों नहीं धो लेते! हर्रा लगे न फिटकरी रँग चोखा आए! इसलिए जल्दी से कार्यक्रम तय करें और कुंभ नहाएँ।

मैंने पहले ही कहा है कि इतना भारी भरकम 'घड़ा' यहाँ से ऊपर ले जाने में आपको बहुत कष्ट होगा। मैंने तो आपके भले के लिए ही कुंभ - स्नान का  अकुम्भ सुझाव दिया है। अब यह आपकी इच्छा है कि आप उसे मानें या ठुकरायें।एक कुंभ आपके धड़ पर है और एक कुंभ उधर है। बड़े में छोटे को खाली भर करना है। और हल्का होकर तरना है। अब ये बात अलग है कि उसे आपको क्या पुनः भरना है ?अथवा खाली करके  यों ही  जीना - मरना है।आपकी आवश्यकता ने एक कुंभ जन्माया है तो वह प्रयागराज में बारह सालों में पुनः आया है।उस कुंभ की जननी भी तो आप ही हैं। कुंभ आपका ही अविष्कार है। इसलिए इसमें कर लीजिए किए गए  'कर्मों' का परिष्कार।अगर चूक गए तो दिल करेगा  बार- बार  धिक्कार।इसलिए चले जाइये प्रयागराज गङ्गा यमुना सरस्वती के द्वार।

शुभमस्तु !

21.01.2025●7.45प०मा०

                   ●●●


रहा श्वान का श्वान! [ नवगीत ]

 026/2025

       


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


श्वान नहाया

गंगा यमुना 

रहा श्वान का श्वान।


दूध गाय का 

बेचा जी भर

मिला -मिला सद नीर,

माथे तिलक

लगाए पहुँचा

भक्त त्रिवेणी तीर,

राम राम का

जाप कर रहा

आया कुंभ - नहान।


हल्दी में रँग

धनिया में भी

मिला रहा था लीद,

नाप तोल 

कम ही करता है

खुली न अब तक नींद,

वही 'भक्त' क्यों

राजदुलारा

गाता गंगा -गान।


पिया खून

जनता का जी भर 

आया तीर्थ प्रयाग,

गंगाजी बोली

उस नर से

खुले हमारे भाग,

तेरे जैसे

 नर-पिशाच ने

किया गंग जल-पान।


करे पाप तू

मैं धो डालूँ

यही शेष मम काम,

पाप नहीं

धुलते गङ्गा में

भज ले पापी राम,

इसीलिए तो 

कहते कविजन

मेरा देश महान।


शुभमस्तु !


21.01.2025● 4.15प०मा०

                   ●●●

स्वार्थ ही आधार है [नवगीत]

 025/2025

         

©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कौन अपना

या पराया

स्वार्थ ही आधार है।


आदमी में आदमीपन

ताड़ से नीचे गिरा है,

रो रहीं ममता दया भी

कनक पैसे से घिरा है,

आदमी ने आदमी के

प्रेम को जिंदा चबाया

स्वार्थ ही आधार है।


मान मिलता जनक माँ को

अब नहीं तिल मात्र भी,

पल्लुओं से जा बँधे सुत

चाहते तिय गात्र ही,

काम्य हैं बस कामिनी ही

नारियों ने नर लुभाया

स्वार्थ ही आधार है।


बाप बूढ़े सड़ रहे हैं

पुत्र को चिंता कहाँ,

तीय आलिंगन लुभाता

अब नहीं संतति यहाँ,

और कुछ दिखता नहीं है

काम का ही लुब्ध साया

स्वार्थ ही आधार है।


शुभमस्तु !


21.01.2025● 3.45 प०मा०

                     ●●●

भीतर बेर कठोर [ नवगीत ]

 024/2025

             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बाहर से वे

लाल रसीले

भीतर बेर कठोर।


रसना में

रस की वर्षा हो

उर में छिपी कटार,

कनक कामिनी

राजकीयता

बंगला कोठी कार,

साँप दिखाई

देती जनता

बने रँगीले मोर।


जिससे पलना

उसे नोंचना

दिनचर्या का काम,

जिंदा माँस

खींचते बेढब

लाश बिछा आराम,

वे डकैत से

ऊपर सारे

कौन कहेगा चोर।


झूठ पुण्य 

इनकी नजरों में

सत्य बोलना पाप,

झुलस रहे हैं

नर - नारी गण

कर चोरों का ताप,

मुफ्त सभी

सुविधाएं भोगें

बने छद्म बरजोर।


स्वयं बने

भगवान देश के

हमीं चलाते देश,

कभी गोल

टोपी धर लेते

नित्य बदलते वेश,

'शुभम्' नहीं

चाहत विकास की

चाहें सदा हिलोर।


शुभमस्तु !


21.01.2025●12.00मध्याह्न

                    ●●●

गरमाए हैं दिन [ नवगीत ]

 023/2025

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्


नरम धूप की

चादर ओढ़े

गरमाये हैं दिन।


शॉल दूध की

ओढ़े झाँके

सूरज करे विहान,

फैला अपनी

दीर्घ भुजाएँ

कौन रहा अनजान,

जीवन धारे

जीव जंतु सब

एक -एक पल गिन।


देवी उषा

पल्लू बाँधे

मोती लाख हजार,

बरसा रही

धरा पर हर्षित

ज्यों अमूल्य उपहार,

मँडराई पाटल

पर तितली

करती है झिन-झिन।


मटर नाचती

पहन लहरती

साड़ी का परिधान,

हरे- हरे

गंदुम लहराते

करें मौन वे गान,

भूल नहीं

सकतीं ये आँखें

माघ मास के छिन।


महाकुंभ में

उमड़ा सागर

जन मानस का एक,

हर- हर गंगे

बोल रहे हैं

धर्म पर्व ही टेक,

सुनी जा रहीं

ध्वनि वाद्यों की

धाक धिना धी धिन।


इड़ा पिंगला

मध्य सुषुम्ना 

महाकुंभ में नित्य,

'शुभम्' नहाए 

काव्य -त्रिवेणी

उदित वहीं आदित्य,

काव्य-कठौती

भरी भाव-जल

होता हुआ उरिन।


शुभमस्तु !


21.01.2025●10.30 आ०मा०

                  ●●●

यही अन्नदाता भारत का [ गीत ]

 022/2025

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


यही अन्नदाता

भारत का

फतुही पहने छेद हजार।


गिरे रात भर

आँधी पानी

होती ओलों की बरसात,

दुखी दृष्टि से

खेत निहारे

हुआ  वज्र का भीषण पात,

हाय विधाता

क्या होगा अब

कठिन भाग्य की पड़ती मार।


पसर  गई है

फसल खेत में

हाथ न आए दाना एक,

पीले कैसे

हाथ करूँगा

बिटिया हुई सयानी नेक,

नहीं भाग्य के

आगे चलता

जोर किसी का हुआ प्रहार।


फटेहाल तो

था पहले ही

साबुत वसन नहीं थे देह,

साड़ी फ़टी 

हुई है पहने

घरनी   मेरी   मेरे     गेह,

'शुभम्' नहीं

रो सकता खुलकर

रोता है दिल जारम जार।


शुभमस्तु !


21.01.2025●3.00आ०मा०

                  ●●●

सोमवार, 20 जनवरी 2025

भगवत ने कुंभ नहाया [ गीतिका ]

 021/2025

          

©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ग्यारह    बीता     बारह     आया।

भगवत    ने  तब   कुंभ  नहाया।।


जीवन का   वह   प्रथम कुंभ था,

माता  ने    जब     पाठ   पढ़ाया।


निकले  थे    दो अक्षर    मुख  से,

विज्ञों  से   वह   काव्य   कहाया।


छः -छः    कुंभ   नहाए   जिसने,

'शुभम्' वही   कविवर कहलाया।


ढाई      दर्जन       गङ्गा    यमुना ,

सरस्वती    का     दीप   जलाया।


कवि के    बोल    'बोलते आँसू',

'लोकचरितमानस'  भी    गाया।


शोध  ग्रंथ     नागार्जुन   जी    का,

छपा  और   जग  में    दिखलाया।


'बुद्ध तपस्वी'      महाकाव्य    में,

चरित महान   शुभम्  सिर  नाया।


एक -  एक    कर   तीस  हो  गए,

नाम 'शुभम्'   कौशल  को  भाया।


कहती   है  कवि   जिसको  दुनिया,

आज 'शुभम्'  कविवर  जग  छाया।


लगा    वर्ष      पच्चीस   'शुभम्'  ने,

बढ़ा   तीस    से     ऊपर    आया।।


शुभमस्तु !


20.01.2025● 1.00प०मा०

                    ●●●

देती है फिर भी [गीतिका]

 020/2025


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


देती    है   फिर   भी   है   नदिया।

करती है फिर भी न  कुछ  किया।।


कितने   मनुज   जगत  में     ऐसे,

फटे  वसन    के   भरते   बखिया।


करती   है   पति- कुल  की  सेवा,

फिर भी   वह कहलाए  द्वितिया।


बँधी      द्वार    पर    जैसे    कोई,

सींग पूँछ    बिन  कोई    बछिया।


कैकेयी      माँ     की   दृढ़  आज्ञा,

राम    संग  वनवासी     सु-सिया।


मानव  हैं       मानवता    भी    हो,

द्रवीभूत   हो    सबका    सु-हिया।


'शुभम्'    वही  है   जीवन   सच्चा,

मानव  वही    परहित    में  जिया।


शुभमस्तु !


20.01.2025●8.45आ०मा०

                   ●●●

मानव वही [सजल ]

 019/2025

              


समांत         :इया

पदांत          : अपदांत

मात्राभार     : 16.

मात्रा पतन  : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


देती    है   फिर   भी   है   नदिया।

करती है फिर भी न  कुछ  किया।।


कितने   मनुज   जगत  में     ऐसे।

फटे  वसन    के   भरते   बखिया।।


करती   है   पति- कुल  की  सेवा।

फिर भी   वह कहलाए  द्वितिया।।


बँधी      द्वार    पर    जैसे    कोई।

सींग पूँछ    बिन  कोई    बछिया।।


कैकेयी      माँ     की   दृढ़  आज्ञा।

राम    संग  वनवासी     सु-सिया।।


मानव  हैं        मानवता    भी   हो।

द्रवीभूत   हो    सबका    सु-हिया।।


'शुभम्'    वही  है   जीवन   सच्चा।

मानव  वही    परहित    में  जिया।।


शुभमस्तु !


20.01.2025●8.45आ०मा०

सृष्टि की समानुपातिकता [आलेख ]

 17/2025 


लेखक©

 डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 सृष्टि का समानुपात सर्वथा सराहनीय है। एक ही सृष्टि में अनेक सृजन निरंतर हो रहे हैं।प्रकारांतर से यह कहा जा सकता है कि एक ही असीम सृष्टि में अनेक सृष्टियाँ हो रही हैं।प्रत्येक सृष्टि की एक विशेष विशिष्टता है कि वहाँ समानुपात है। यह ठीक है कि किसी भी सृजन के लिए सृजनकर्ता को अनेक प्रकार की कच्ची सामग्री की आवश्यकता होती है,जिसके बिना कोई सृजन नहीं किया जा सकता।वह कच्ची सामग्री किस अनुपात में हो कि मनवांछित वस्तु का सृजन किया जा सके। 

  उदाहरण के लिए मानव को प्रत्यक्ष रखा जा सकता है।संसार में जितने मनुष्य हैं ,उनके उतने ही प्रकार हैं। सबके सबसे भिन्न स्वभाव हैं। भिन्न रचनाएँ हैं।कोई किसी से मेल नहीं खाता।कोई चोर,डकैत,राहजन यकायक काव्य सृजन करने नहीं लगता।उसे अपने कार्य में ही प्रवीणता हासिल करने के गुर सीखने की तीव्र लालसा लगी रहती है। एक दिन वह बहुत बड़ा चोर, डकैत अथवा राहजन बन जाता है।इस प्रकार उसमें काव्यत्व तत्त्व का अनुपात शून्य ही समझा जाएगा। इसी बात को उलटकर देखा जाए तो किसी कवि में चोरत्त्व का भाव तो विद्यमान हो सकता है,किन्तु किसी का सोना-चाँदी,धन- सम्पत्ति,वाहन आदि की चोरी का न होकर काव्य की चोरी का हो सकता है। जिस प्रकार देह निर्माण में अस्थि,माँस,मज़्ज़ा,रक्त,त्वचा आदि का अपना-अपना समानुपात है।जो उसे विशेष आकार प्रदान करता है। क्षिति,जल,पावक,गगन और समीर इन पंच महाभूतों से निर्मित सृष्टि में पेड़ पौधे,पशु,पक्षी, जलचर, कीट,पतंगे आदि सभी का सृजन हुआ है,किंतु भिन्न - भिन्न अनुपात में।यह अनुपातों की सुभिन्नता ही एक जीव को दूसरे से अलग करती है।

    मानव के मन के सृजन की ही बात की जाये तो जितने जन उतने मन। सबके अपने-अपने ठनगन।अलग - अलग ढंग ,अपने रंग में मगन। एक ही छत के नीचे रहने वाले पति -पत्नी भी आजीवन एक मन नहीं हो पाते।अपने स्वार्थ के लिए कुछ पल के लिए एक तन हो लें ,तो हों। किंतु एक मन होना एक दुर्लभ कृत्य है।औरस संतान के गुण भी एक सम अनुपात में नहीं होते।जबकि उनके गुणसूत्र समान होते हों।सबके सृजनात्मक तत्वों का समानुपात मेल नहीं खाता।' मुंडे- मुंडे मतिर्भिन्ना' तभी तो कहा जाता है।

   विचित्र तथ्य की बात यह है कि इस समानुपतिकता के परिणामस्वरूप सृष्टि की विभिन्नता भी जुड़ी हुई है।इसलिए प्रत्येक जीव एक चलता- फिरता उपन्यास है। जिस प्रकार किसी उपन्यास में नायक, नायिका, खलनायक, खलनायिका,दास, दासी,सहायक पात्र और विदूषक होते हैं,उसी प्रकार प्रत्येक जीव का जीवन चक्र एक विशेष समानुपात से सृजित होकर अपने चक्र को पूरा करता है।एक साथ रहकर भी सब स्वतंत्र जीवन यापन करते हैं।सहजीवन के बावजूद एक सूक्ष्म विभेद बना रहना अनिवार्य है। यह विभेद ही एक इकाई को दूसरी से विशेषत्व प्रदान करता है।संसार में एक भी ऐसा जीव अथवा नर नारी नहीं है ,जो अपने निहित विशेषत्व से शून्य हो।उनका यह विशेषत्व ही उन्हें परस्पर आकर्षित करता है और उन्हें परस्पर पूरक बनने के लिए प्रेरक बनता है।

    समानुपातिकता जहाँ एक ओर परस्पर संयोजन करती है,वहीं वह उन्हें विभेद की ओर भी ले जाती है।प्रकृति की ओर से सृष्टि को समानुपातिकता एक चमत्कारिक वरदान है।विभिन्न गुणों, विशेषताओं,अवगुणों,भावों,विचारों आदि का निर्माण इसी से होता है।इसका अपना महत्त्व है।अपना अस्तित्व है।भले भी मानव रक्त का रंग लाल होता है,किंतु हम सबकी लालिमा भी अपने सूक्ष्म रूप में अलग ही है।रक्त का वर्गीकरण चार वर्गों में करने के बावजूद कहीं भी सदृशता नहीं है। सब अपने में 'यूनिक' हैं। इस स्तर पर इतिहास अपने को दुहराता नहीं है।हर जीव अपना विशेष जीवन लेकर अवतरित होता है और अपनी विशेषताएँ लिए हुए ही विदा हो जाता है। प्रकृति का पिता नित्य निरंतर नए साँचे बनाता है और नई और 'यूनिक' सृष्टियाँ करता है। युग पर युग बीतते चले जाते हैं ,चले जा रहे हैं,किंतु कहीं भी कोई पुनरावृत्ति नहीं है। हर विहान नव विहान है। हर साँझ नव्य संध्या है। हर फूल नया है,हर शल्य नया है।यही नहीं तो सृष्टि की नित्य नवलता ही क्या है !

      आइए सृष्टिकर्ता की इसी समानुपातिकता को समझें,उस पर विचार करें।जितनी गहराई में उतरेंगे ,हमें नए मुक्ता मणि सुलभ होंगे।उन मुक्ता मणियों को पाएँ और आनंद लाभ करें। सृष्टिकर्ता के उस आनंद को पाना ही जीवन है। वही हमारा लक्ष्य भी होना चाहिए। 

 शुभमस्तु ! 

 18.01.2025● 11.45आ०मा० 


सोना है इसलिए जागना भी है! [आलेख ]

 18/2025


 

 ©लेखक

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 मैं रोज ही सोता हूँ। मैं रोज ही जागता हूँ।सोना है,इसलिए जागना भी है। जागना है ,इसलिए सोना भी है। मेरे लिए जागने और सोने का यह क्रम अनवरत है।जब से जन्म लिया है ,तब से निरंतर सोता और जागता रहा हूँ।मेरे सोने और जागने की यह अनिवार्यता यह दर्शाती है कि मैं जीवित हूँ।एक जीवंत जीव हूँ। एक जीवित मानव हूँ। इस सोने और जागने के बीच में भी बहुत कुछ है ,जो नित्य प्रति परिवर्तित होता है।जीवन की कितनी अनिवार्य क्रियाएँ इसी देह से सम्पन्न हो रही हैं।जो यह सिद्ध करती हैं कि मैं एक जीवित मनुष्य हूँ।यह बीच वाला काम आपको और अधिक खोलकर बताना युक्तिसंगत नहीं होगा ;क्योंकि आप सब भी वही सब करते हैं,जो मुझसे कहलवाना चाहते हैं। 

  सोने और जागने के मध्य एक और महत्त्वपूर्ण कार्य यह भी है कि किसी को जगाना।केवल अपने सोने और जागने से काम चलने वाला नहीं, मुझे ऐसा भी कुछ करना है ,करना भी चाहिए, जो मेरे सोने और जागने की सार्थकता बता सके।किसी सोते हुए को जगा देना कोई छोटा काम तो नहीं।कम से कम मेरी अपनी दृष्टि में तो कदापि नहीं।वह भी क्या सोना और जागना कि खाए,पिए,अर्जन, विसर्जन किए और अलविदा हो लिए।जियें तो ऐसे जिएं कि जो शेष जीने वाले हैं वे भी कहें कि क्या था उसका जीना ! मनुष्यों के बीच में जिंदा नगीना! 'ऐसी करनी कर चलो, तुम हँसो जग रोए ।' 

  सोने का अपना एक अलग आनन्द है और उधर जागने का तो और भी अलग आनंद है।जिसने सोने , जागने और मध्यवर्ती कर्मों का आनन्द जान लिया ,उसी का जीना सार्थक है।वरना एक सुअर श्वान या अन्य जीवों के जीवन में अंतर ही क्या रह जाएगा?प्रत्येक विहान एक नया विहान हो,वही जागना जागरण है और जो सोना शांति की अतल गहराइयों में गोते लगवाए ,वही सोने का स्वर्ण है। 

  अभी मैंने एक बात कही कि सोने और जागने के बीच में किसी को जगाना भी मेरा और हमारा काम है।इस काम को हम कितनी सफलतापूर्वक कर पाएँ ,ये अलग बात है।सोए हुए को जगाना अच्छा नहीं माना जाता। विशेषकर किसी का सोना अभी अधूरा हो। नींद कच्ची हो।यदि कुम्भकर्ण को कच्ची नींद से ही उठा दिया जाएगा, तो क्या कहर बरपेगा इसकी कल्पना भी नहीं की सकती।इसलिए अधूरी नींद की पहचान करके ही जगाना श्रेयस्कर रहता है।तरह -तरह के लोग अलग - अलग विधि विधानों से जगाते हैं।इसके लिए उपदेश, भाषण, काव्य लेखन, कविता पाठ, सहित्य सृजन,डांट-फटकार,गुरु मंत्र,विभिन्न प्रकार की पुस्तकों से स्वाध्याय,विद्यालय में शिक्षकों द्वारा शिक्षण कार्य करना,धर्म,अध्यात्म आदि का आश्रय लिया जाता है। 

   हमें जगाने में हमारे संस्कार भी विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। संस्कार भी यथासमय जाग्रत होते हैं।कुछ लोग 9-10वर्ष की आयु में ही विरक्त जीवन स्वीकार कर योगी,सन्यासी, अघोरी या नागा बन जाते है। यह पूर्व जन्म के संस्कारों का जागरण ही है।इसीलिए हर व्यक्ति योगी ,सन्यासी,अघोरी या नागा नहीं बन जाता। यह भी पूर्व जन्म की अधूरी मंजिल को पाने का प्रयास है। प्रत्येक व्यक्ति इसीलिए कवि अथवा साहित्यकार नहीं बन जाता।सच्ची लगन और प्रयास अपना रंग अवश्य दिखलाते हैं, किंतु जन्मजात संस्कार की बात कुछ अलग ही होती है।जागना सोना तो रोज सबको है।यह दो अनिवार्य जैविक क्रियाएँ हैं।जिनके बिना जीवन की सूचारुता नहीं।मानव और मानवेतर प्राणियों के लिए ये दोनों अनिवार्य हैं।इसके अतिरिक्त मनुष्यों के हिस्से में कुछ और भी आया है।संभवतः मैं वैसा ही कोई मनुष्य हूँ ,इसलिए सोए हुओं को अपने ढंग से जगाने का कार्य कर लेता हूँ। 

  आप में से कुछ लोग सोचेंगे कि यह भी ऐसी कौन सी नई बात कह दी कि सोना और जागना।अपनी -अपनी सोच है,अपना-अपना मंथन है, चिंतन है।इस सोने जागने और उसके साथ में मुझे कुछ विशेष तत्त्व मिले कि सामान्य सोना और जागना मुझे विशेष लगा।जीव के जीवन के एक ही सिक्के के दो पहलू।वह भी कोई सामान्य पहलू नहीं, विशेष पहलू।जिनमें विशेष रस है।विशेष आनंद है। जहाँ आनंद है ,वहीं जीवन भी है।आप भी उस आनंद का रसास्वादन करें और अपने ऊपर प्रभावी करके उनके दोलनों में झूलें। अनन्त आकाश की बुलंद ऊंचाइयां छू लें। आप पाएँगे कि आप ने कुछ नया पाया है।वरना व्यर्थ ही सोती जागती आपकी काया है। सर्वत्र परम आनंद की छाया है। 


 शुभमस्तु ! 


 19.01.2025●10.30प०मा०


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कुंभ - स्नान [ अतुकांतिका ]

 016/2025

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


महाकुंभ का 

महापर्व है

तीर्थराज प्रयाग,

शमन करें 

त्रिपथगा जल में

तन-मन की हर आग।


धर्म सनातन

मानवता का

पावनतम पर्याय,

एक सौ चवालीस

वर्ष बाद ये

खुला कुंभ का द्वार।


तन के घट में

निजी कुंभ को

पहचानें,

इड़ा पिंगला

और सुषुम्ना की

त्रिपथगा को जानें।


श्वास-श्वास में

गंगा-यमुना

बहती सुषुमन धार,

क्यों न करे स्नान!

मानव मूढ़ महान,

नित्य कुंभ कर पान।


मन हो यदि चंगा

बने कठौती गंगा,

काशी या दरभंगा

मिले कुंभ त्रय रंगा।


'शुभम्' बारहों मास

श्वास-श्वास प्रति श्वास

गंगा कुंभ नहान,

करे श्वास आदान-प्रदान,

सत्य सनातन का गुणगान।


शुभमस्तु !


16.01.2025●3.00प०मा०

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दिन थे वे भी खूब [कुंडलिया]

 015/2025

          

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

गुल्लीडंडा    खेल    के,   दिन थे वे भी   खूब।

मौज   मजा   मस्ती  रही,नहीं कभी थी   ऊब।।

नहीं  कभी  थी  ऊब, पाँव  भी बिलकुल  नंगे।

किया   न   मन  में दम्भ, खेलते  मन  से   चंगे।।

'शुभम्' न किया फसाद,नहीं फोड़ा खग अंडा।

 खेल  खेल  बस  खेल, बसा  था गुल्ली डंडा।।


                         -2-

गोली   कंचा  खेलना , था अपना प्रिय   खेल।

कभी   अठारह  गोटियाँ,  कभी चलाते    रेल।।

कभी  चलाते  रेल,रेल  छुक-छुक कर   जाती।

कभी    गली  में   खेल,  गाँव में  धूम  मचाती।।

'शुभम्'  कबड्डी    गेंद, बिना क्या चलती  टोली।

मिले     ओट   में    धूप, खेलते  कंचा   गोली।।


                            -3-

झाँझी-टेसू      खेल     के, थे  अपने   नवरंग।

क्वार    सुदी    पड़वा  सदा,   करती दंगमदंग।।

करती   दंगमदंग,    साँझ   होते   ही     जाते।

दिया     जलाकर   एक, संग टोली के     गाते।।

'शुभम्'  माँगते  भीख, न रोटी सब्जी  भाजी।

गेहूँ      आटा    अन्न ,    चवन्नी   टेसू -  झाँझी।।


                           -4-

आया   सावन   मास  तो,छाया अलग   उछाह।

पेड़ों     पर   झूले  पड़े, जगी अलग ही    चाह।।

जगी   अलग  ही   चाह, झूलना हमको  भाता।

झोंटा      देता    एक,   एक को एक  झुलाता।।

'शुभम्'   बहन भी  झूल,  गीत सावन का गाया।

पींग     बढ़ाती   एक,  मनोहर सावन   आया।।


                           -5-

आए  क्यों  अब लौटकर, बीत गया जो काल।

अलग  मौज मस्ती  मजा, मनोहारिणी  ताल।।

मनोहारिणी   ताल,   नए   नित खेल   निराले।

खेल  रहे   हम   नित्य,  छबीले  हम  मतवाले।।

'शुभम्'  मल्हारें    गीत, गेंद  कंचा तब   छाए।

मोबाइल   की  मार,  नहीं  वे  फिर  से   आए।।


शुभमस्तु !


15.01.2025●3.30प०मा०

                   ●●●

कवि जीवन सौभाग्य [कुंडलिया]

 014/2025

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                           -1-

चलते  अपनी  चाल से, कविगण ढंग  अनेक।

आम आदमी  से  सदा,  उनका भिन्न  विवेक।।

उनका  भिन्न    विवेक,  भाव   हों  भले पुराने।

बाँध    छंद   के    बंध,   गीत   गाते मनमाने।।

'शुभम्' रहें  जग बीच,नहीं वे जन को   छलते।

कविगण  अपनी चाल,जगत में उलटी  चलते।।


                         -2-

मानव तन  बड़भाग्य  है, कवि तन है  सौभाग्य।

करता  लाखों  पुण्य  जो,बनता कवि बहु  विज्ञ।।

बनता  कवि बहु  विज्ञ,अलग प्रभु की  संरचना।

लगता  वह  सामान्य, नहीं उससे कुछ  बचना।।

'शुभम्' अलग ही सोच,बुझाता सामाजिक दव।

कवि का यह सौभाग्य,आज जो दिखता मानव।।


                         -3-

बातें करता आज की,कल को लिया  समेट।

कवि ऐसा  वह  जीव है,जो न करे आखेट।।

जो  न   करे  आखेट, सभी की सेवा करता।

कविता ही  आधार, मनुज की पीड़ा हरता।।

'शुभम्' न  दिन में  चैन,नहीं सुखमय  हैं रातें।

कागज  कलम  दवात, सदा करतीं हैं  बातें।।


                         -4-

कविता होती आ रही,आया कलयुग आज।

त्रेता  सतयुग  और है,  द्वापर कृष्ण सुराज।।

द्वापर कृष्ण सुराज,आदि कवि जन्मे भूपर।

देख वियोगी क्रोंच, काव्य  जागा भ्रू ऊपर।।

'शुभम्'  वहाँ गंतव्य,जहाँ पहुँचे नभ सविता।

कवि है  ऐसा  जीव, करे जो  भावी कविता।।


                         -5-

बीते   युग  सदियाँ  गईं,  कवियों का  संसार।

एक  अलग  ही  रंग है, अनुपम  रूप  अपार।।

अनुपम   रूप  अपार, पिता माँ गुरु की  सेवा।

करते  शुचि  सम्मान, मिले  उनको नित मेवा।।

'शुभम्' योनि नर धन्य,सभी कवि जीवन जीते।

कहते    नहीं    विशेष,   बिताते  जैसे   बीते।।


शुभमस्तु !


15.01.2025●2.00पतनम मार्तण्डस्य।

                    ●●●

गंगा कुंभ प्रयाग [ दोहा ]

 013/2025

              

[कुंभ,प्रयाग,त्रिवेणी,संक्रांति,गंगा]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक

मन  पापी   तन  दानवी, कैसा कुंभ - नहान।

मानवता  जिनकी  मरी, रहे  ध्वजा वे   तान।।

कुंभ   नहाए   स्वर्ग   में,  बना रहे   वे   ठौर।

अश्व-लीद जिनके  यहाँ,बिके बनी  सिरमौर।।


जिनके  मन  में  मानवी,भावों का शुभ  गेह।

पग-पग  वहीं  प्रयाग  है, है निस्सार   सुदेह।।

ब्रज हो या कि प्रयाग हो,हो काशी शुभ धाम।

धन्य  वही  उर  मानवी,जिसमें बसते   राम।।


सरस्वती    गंगा  त्रयी, यमुना  तन के   बीच।

इड़ा    सुषुम्ना  पिंगला, सदा त्रिवेणी  सींच।।

देह  त्रिवेणी नित्य  ही, मानव की यह जान।

श्वास- श्वास  में जो बसी,मूढ़ मनुज पहचान।।


मन का सूरज नित्य ही,दिखलाए सुख शांति।

जान  न  पाए  आदमी, यही पुण्य संक्रांति।।

क्षण आए संक्रांति का, बदले काल  दुकाल।

चमके सूर्य प्रकाश ले,झुके तिमिर का  भाल।।


इड़ा   पिंगला   देह में ,  गंगा -यमुना     धार।

मध्य   सुषुम्ना की बहे,अविरत नित्य  प्रसार।।

गंगा सुरसरि   पावनी, पावन तीर्थ    प्रयाग।

करता वही नहान शुभ, जिसके खुलते भाग।।


                    एक में सब

गंगा   कुंभ   प्रयाग  के,  पावन तीनों   नाम।

नर  तन  में  संक्रांति  का, यही त्रिवेणी धाम।।


शुभमस्तु !


15.01.2025●1.15 आ०मा०(रात्रि)


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भूल गए सब रंग [ गीत ]

 012/2025

                


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नोंन तेल लकड़ी

की तिकड़ी

भूल गए सब रंग।


मस्ती के दिन

नहीं लौटते

गुल्ली डंडा खेल।

मित्र  सखाओं की

महफ़िल में

चलती छुक- छुक रेल।।

भूल गए वे

खेल खिलौने

छूट गया वह संग।


दुनियादारी की

चिंता क्या 

कभी न सोची बात।

नहीं जानते थे

क्या तिकड़म

नहीं जानते घात।।

सदा खिलंदड़

रहता तन- मन

खेले नंग -धड़ंग।


जा बस्ती से

दूर कहीं पर

खेले रंग हजार।

इधर - उधर की

बात न कोई

बचपन था उपहार।।

तेरी गुल्ली 

मेरा डंडा

यही एक थी जंग।


शुभमस्तु !


14.01.2025● 5.00आ०मा०

अच्छी लगे रजाई [बाल गीतिका]

 011/2025

         


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अति   की  अच्छी लगे   रजाई।

ऊपर    लेटी    सजे      रजाई।।


शीत   सताए     पूस  - माघ  में,

देती   है     सब     मजे   रजाई।


कौन      चाहता    आना   बाहर,

कैसे       कोई       तजे    रजाई।


सहती     ठंड    तुषार      हवाएँ,

राम   -  राम      ही   जपे  रजाई।


जो       लेटा      बाँहों   में   भीतर,

इधर  - उधर  से      दबे      रजाई।


नहीं      बोझ     भी  लगता  भारी,

जब      ऊपर    से     लदे  रजाई।


कम्बल     में   तो  कम बल होता,

भारी  -  भरकम   फबे      रजाई।


शुभमस्तु !


12.01.2025● 11.00प०मा०

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मानव इतना आज तना है [ गीतिका ]

 010/2025

     

शब्दकार© 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मानव     इतना    आज   तना   है।

अहंकार    का     धूम     घना   है।।


समझे  नहीं   किसी   को   अपना,

तमस   पंक  में    निपट  सना   है।


धन - संपति  के  रिश्ते    हैं    सब,

मानवता   के     लिए    मना    है।


बालाओं  को    पति    पसंद   वह,

पैसों     से    जो    बना -  ठना है।


चरित  घास    घूरे     पर     चरता,

भ्रष्ट   आचरण   का   जपना    है।


नर    नहला   तो     दहला   नारी

संस्कृतियों  को    यों   मिटना   है।


'शुभम्'  गर्त  में  मानव  प्रति क्षण,

भाड़    न    फोड़े   एक  चना   है।


शुभमस्तु !


12.01.2025●10.00प०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...