006/2025
सब कुछ बदल रहा क्षण-क्षण में।
प्रभु का वास यहाँ कण-कण में।।
शांति नहीं मानव को प्यारी,
जुटा हुआ पल - पल वह रण में।
कलियों का विकास सुमनों में ,
सुमन व्यस्त हैं रस - वर्षण में।
धूल लदी मन पर अति सारी,
झाड़ रहा है मुख दर्पण में।
मानव डूबा अहंकार में,
आग धधकती मन के व्रण में।
जनक -जननि की सेवा कर ले,
लगा न जीवन अपना पण में।
'शुभम्' सोच संकीर्ण अशोभन,
किंचित शांति नहीं जनगण में।
शुभमस्तु !
06.01.2025●5.30आ०मा०
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