बुधवार, 22 जनवरी 2025

गरमाए हैं दिन [ नवगीत ]

 023/2025

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्


नरम धूप की

चादर ओढ़े

गरमाये हैं दिन।


शॉल दूध की

ओढ़े झाँके

सूरज करे विहान,

फैला अपनी

दीर्घ भुजाएँ

कौन रहा अनजान,

जीवन धारे

जीव जंतु सब

एक -एक पल गिन।


देवी उषा

पल्लू बाँधे

मोती लाख हजार,

बरसा रही

धरा पर हर्षित

ज्यों अमूल्य उपहार,

मँडराई पाटल

पर तितली

करती है झिन-झिन।


मटर नाचती

पहन लहरती

साड़ी का परिधान,

हरे- हरे

गंदुम लहराते

करें मौन वे गान,

भूल नहीं

सकतीं ये आँखें

माघ मास के छिन।


महाकुंभ में

उमड़ा सागर

जन मानस का एक,

हर- हर गंगे

बोल रहे हैं

धर्म पर्व ही टेक,

सुनी जा रहीं

ध्वनि वाद्यों की

धाक धिना धी धिन।


इड़ा पिंगला

मध्य सुषुम्ना 

महाकुंभ में नित्य,

'शुभम्' नहाए 

काव्य -त्रिवेणी

उदित वहीं आदित्य,

काव्य-कठौती

भरी भाव-जल

होता हुआ उरिन।


शुभमस्तु !


21.01.2025●10.30 आ०मा०

                  ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...