सोमवार, 20 जनवरी 2025

कवि जीवन सौभाग्य [कुंडलिया]

 014/2025

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                           -1-

चलते  अपनी  चाल से, कविगण ढंग  अनेक।

आम आदमी  से  सदा,  उनका भिन्न  विवेक।।

उनका  भिन्न    विवेक,  भाव   हों  भले पुराने।

बाँध    छंद   के    बंध,   गीत   गाते मनमाने।।

'शुभम्' रहें  जग बीच,नहीं वे जन को   छलते।

कविगण  अपनी चाल,जगत में उलटी  चलते।।


                         -2-

मानव तन  बड़भाग्य  है, कवि तन है  सौभाग्य।

करता  लाखों  पुण्य  जो,बनता कवि बहु  विज्ञ।।

बनता  कवि बहु  विज्ञ,अलग प्रभु की  संरचना।

लगता  वह  सामान्य, नहीं उससे कुछ  बचना।।

'शुभम्' अलग ही सोच,बुझाता सामाजिक दव।

कवि का यह सौभाग्य,आज जो दिखता मानव।।


                         -3-

बातें करता आज की,कल को लिया  समेट।

कवि ऐसा  वह  जीव है,जो न करे आखेट।।

जो  न   करे  आखेट, सभी की सेवा करता।

कविता ही  आधार, मनुज की पीड़ा हरता।।

'शुभम्' न  दिन में  चैन,नहीं सुखमय  हैं रातें।

कागज  कलम  दवात, सदा करतीं हैं  बातें।।


                         -4-

कविता होती आ रही,आया कलयुग आज।

त्रेता  सतयुग  और है,  द्वापर कृष्ण सुराज।।

द्वापर कृष्ण सुराज,आदि कवि जन्मे भूपर।

देख वियोगी क्रोंच, काव्य  जागा भ्रू ऊपर।।

'शुभम्'  वहाँ गंतव्य,जहाँ पहुँचे नभ सविता।

कवि है  ऐसा  जीव, करे जो  भावी कविता।।


                         -5-

बीते   युग  सदियाँ  गईं,  कवियों का  संसार।

एक  अलग  ही  रंग है, अनुपम  रूप  अपार।।

अनुपम   रूप  अपार, पिता माँ गुरु की  सेवा।

करते  शुचि  सम्मान, मिले  उनको नित मेवा।।

'शुभम्' योनि नर धन्य,सभी कवि जीवन जीते।

कहते    नहीं    विशेष,   बिताते  जैसे   बीते।।


शुभमस्तु !


15.01.2025●2.00पतनम मार्तण्डस्य।

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