035/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मन पोखर
तन गंगा धोया
जीभ ले रही स्वाद।
बगुला भगत
टाँग एकल पर
नित्य भक्ति रंगीन ,
मछली उसे
दिखाई देती
पोखर पड़ी मलीन,
वसन गेरुआ
तन पर धारे
करनी है आजाद।
मादा बगुला भी
क्यों कमतर
नर के तुल्य समक्ष,
बगुला को
सँग में ले डूबे
मटका बाईं अक्ष,
एक-एक कर
होते ग्यारह
करते चुप संवाद।
हर-हर जपे
हरा ही दीखे
चंदन तिलक विशाल,
माल मुफ्त
औरों का चाहे
स्वीकृत नहीं जवाल,
उसके जाने
कोई भी यों
हो जाए बरबाद।
शुभमस्तु !
23.01.2025●2.00प०मा०
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