012/2025
©शब्दकार
डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
नोंन तेल लकड़ी
की तिकड़ी
भूल गए सब रंग।
मस्ती के दिन
नहीं लौटते
गुल्ली डंडा खेल।
मित्र सखाओं की
महफ़िल में
चलती छुक- छुक रेल।।
भूल गए वे
खेल खिलौने
छूट गया वह संग।
दुनियादारी की
चिंता क्या
कभी न सोची बात।
नहीं जानते थे
क्या तिकड़म
नहीं जानते घात।।
सदा खिलंदड़
रहता तन- मन
खेले नंग -धड़ंग।
जा बस्ती से
दूर कहीं पर
खेले रंग हजार।
इधर - उधर की
बात न कोई
बचपन था उपहार।।
तेरी गुल्ली
मेरा डंडा
यही एक थी जंग।
शुभमस्तु !
14.01.2025● 5.00आ०मा०
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