024/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
बाहर से वे
लाल रसीले
भीतर बेर कठोर।
रसना में
रस की वर्षा हो
उर में छिपी कटार,
कनक कामिनी
राजकीयता
बंगला कोठी कार,
साँप दिखाई
देती जनता
बने रँगीले मोर।
जिससे पलना
उसे नोंचना
दिनचर्या का काम,
जिंदा माँस
खींचते बेढब
लाश बिछा आराम,
वे डकैत से
ऊपर सारे
कौन कहेगा चोर।
झूठ पुण्य
इनकी नजरों में
सत्य बोलना पाप,
झुलस रहे हैं
नर - नारी गण
कर चोरों का ताप,
मुफ्त सभी
सुविधाएं भोगें
बने छद्म बरजोर।
स्वयं बने
भगवान देश के
हमीं चलाते देश,
कभी गोल
टोपी धर लेते
नित्य बदलते वेश,
'शुभम्' नहीं
चाहत विकास की
चाहें सदा हिलोर।
शुभमस्तु !
21.01.2025●12.00मध्याह्न
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