039/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
खरपतवारों के बीच
कहाँ से उग पाए
नवगीत।
जमींदार के खेत
लुभाते अपनी-अपनी ओर,
बिना नमी की रेत
ले रही ऊँची हुलस हिलोर,
शुष्क शब्दों से सींच
सृजन में क्यों सज जाए
नवगीत!
कथ्य में ढूँढ़ रहे बहु दोष
भाव भी नहीं सरीखे गीत,
नहीं उपमाएँ भर औचित्य
नहीं बन पाए अपना मीत,
खीर में डाली कीच
यजन क्यों करे आज
नवगीत!
बनाओ पहले फ्रेम
उसी में फिट करने हैं बोल,
बजाते जाओ ढोल
सभी अपने सारे दिल खोल,
सभी फेंको खरपतवार
गीतों का सरताज 'शुभम्'
नवगीत।
शुभमस्तु !
24.01.2025●2.30 प०मा०
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