013/2025
[कुंभ,प्रयाग,त्रिवेणी,संक्रांति,गंगा]
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सब में एक
मन पापी तन दानवी, कैसा कुंभ - नहान।
मानवता जिनकी मरी, रहे ध्वजा वे तान।।
कुंभ नहाए स्वर्ग में, बना रहे वे ठौर।
अश्व-लीद जिनके यहाँ,बिके बनी सिरमौर।।
जिनके मन में मानवी,भावों का शुभ गेह।
पग-पग वहीं प्रयाग है, है निस्सार सुदेह।।
ब्रज हो या कि प्रयाग हो,हो काशी शुभ धाम।
धन्य वही उर मानवी,जिसमें बसते राम।।
सरस्वती गंगा त्रयी, यमुना तन के बीच।
इड़ा सुषुम्ना पिंगला, सदा त्रिवेणी सींच।।
देह त्रिवेणी नित्य ही, मानव की यह जान।
श्वास- श्वास में जो बसी,मूढ़ मनुज पहचान।।
मन का सूरज नित्य ही,दिखलाए सुख शांति।
जान न पाए आदमी, यही पुण्य संक्रांति।।
क्षण आए संक्रांति का, बदले काल दुकाल।
चमके सूर्य प्रकाश ले,झुके तिमिर का भाल।।
इड़ा पिंगला देह में , गंगा -यमुना धार।
मध्य सुषुम्ना की बहे,अविरत नित्य प्रसार।।
गंगा सुरसरि पावनी, पावन तीर्थ प्रयाग।
करता वही नहान शुभ, जिसके खुलते भाग।।
एक में सब
गंगा कुंभ प्रयाग के, पावन तीनों नाम।
नर तन में संक्रांति का, यही त्रिवेणी धाम।।
शुभमस्तु !
15.01.2025●1.15 आ०मा०(रात्रि)
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