537/2023
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●© शब्दकार
● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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-1-
इच्छा - सागर देह में,उमड़ रहा दिन - रात।
मन में उठे हिलोर - सी,कही न जाए बात।।
कही न जाए बात, कहें उतनी कम होती।
इच्छा उर के बीच,बीज नित अनगिन बोती।।
'शुभम्' खो गया चैन,हृदय होता न उजागर।
पूरी होती एक , उठे फिर इच्छा - सागर।।
-2-
मानव - मन में उग रहे, नित इच्छा के बीज।
जब तक बने न पेड़ वे, लगने लगीं पसीज।।
लगने लगीं पसीज, और इच्छाएँ सारी।
मुर्झातीं कुछ एक, बहुत कुछ जातीं मारी।।
'शुभम्' न माना हार,नहीं झुकता है दानव।
रक्तबीज - सी नित्य,उगाता इच्छा मानव।।
-3-
गागर में जब छेद हो,रुके न जल की बूँद।
मानव - मन वैसा बना , कौन सका है मूँद।।
कौन सका है मूँद,अपरिमित इच्छा - जल से।
घटता - बढ़ता इंदु, बना मानस की कल से।।
'शुभम्' न सीमित बिंदु,रिक्त पल -पल हो सागर।
जीवन का हो अंत, नहीं भरती यह गागर।।
-4-
सबकी इच्छा है यही, रहे जगत में शांति।
रूस, चीन या पाक हों,नहीं चाहते क्रांति।।
नहीं चाहते क्रांति,आग फिर कौन लगाता।
रहे जमालो दूर, खड़ी फिर पास न आता।।
'शुभम्'शांति किस ठौर,काँपती दुबकी जग की।
बना क्रूर सिरमौर, उचित इच्छा है सबकी।।
-5-
नेता की इच्छा नहीं, करना देश - विकास।
नारा ही देता रहे, और न कोई आस।।
और न कोई आस, झुनझुना बजते रहना।
इतना ही बस काम, तिजोरी भरता गहना।।
'शुभम्' दाम का दास,नहीं कुछ नेता देता।
झोपड़ियों का वास, रहे महलों में नेता।।
●शुभमस्तु !
15.12.2023●5.00प०मा०
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