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✍ शब्दकार ©
👑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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यदि होता नेता स्वदेश का,
ठाठ - बाट से रहता।
चमचे घेरे रहते मुझको,
सबकी गाली सहता।।
सौ - सौ कारें होतीं मेरे,
बँगले के परिसर में।
नौकर-चाकर दास -दासियाँ,
होतीं मेरे घर में।।
तेल लगाते सारे चमचे,
हाथ जोड़ती जनता।
पंक्क्तिबद्ध हो करती वंदन,
मैं उतना ही तनता।।
सेवा - शुल्क दौड़कर आता,
सदा तिजोरी मेरी।
बातों से ही खुश करता मैं,
करके हेरा - फेरी।।
जनता का सेवक कहलाता,
पर मैं राजा होता।
सात पुश्त के इंतज़ाम के,
बीज रात - दिन बोता।।
बगले जैसे वसन धारकर,
रोज़ बदलता कारें।
सोहें मोटे हार गले में,
आरति लोग उतारें।।
चंचल चितवन चारु चक्षुणी,
चपल चंचला बाला।
चितवन से ही मद से भर दे,
बिना पिलाए हाला।।
सौ-सौ न्योंछावर वे तरुणी,
सीढ़ी पर चढ़ने को।
रूप और यौवन के मद में,
मंजिल पर बढ़ने को।।
मेरा क्या जाता अंटी से,
ज्यों ही मैं तन छूता।
उन्हें स्वर्ग - सोपान चढ़ाता,
जितना मेरा बूता।।
अपने बेटी - बेटों को मैं,
जा विदेश पढ़वाता।
औ' स्वदेश के स्कूलों में,
नारे नए गढ़ाता।।
शिक्षा के अभियान चलाता,
कोरे कागज़ भरता।
मिडडे मील खिलाकर निर्धन,
बच्चों के दुख हरता।।
छाप अँगूठा होकर भी मैं,
शिक्षा मंत्री बनता।
नई नीतियाँ लागू करके,
जा कुर्सी पर तनता।।
पर क्या ऊँची शिक्षा लेकर,
मैं शिक्षक बन पाया।
नामा नाम न कमा सका मैं,
मात्र तुष्टि सुख आया।।
'शुभम' ज्ञान जिसने भी पाया,
मिला उसे संतोष।
शिष्यों को जो ज्ञान दिया है,
वही बसा आगोश।।
💐 शुभमस्तु !
04.05.2020 ◆6.30 अप
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