रविवार, 31 मई 2020

आज की पत्रकारिता [अतुकान्तिका]


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✍ शब्दकार ©
📒 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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विधायिका,
कार्यपालिका ,
न्यायपालिका,
और पत्रकारिता ,
लोकतंत्र के चार
सुदृढ़ स्तम्भ!
 सुदृढ़ ही
होने चाहिए,
पर क्या
आज वे उतने सुदृढ़ हैं?
सशक्क्त हैं ?
अथवा विभक्त हैं?

वे सुदृढ़ हैं
सशक्क्त हैं!
कहीं न कहीं
विभक्त हैं,
क्योंकि वे किसी के
अंधभक्त हैं।

पत्रकारों ने बेच दी
अपनी कार्य धर्मिता,
अपनी अस्मिता,
कुछ कागज के
टुकड़ों के लिए!
बिका हुआ
व्यक्ति स्वामी नहीं
होता है सेवक,
अनुगामी ,
अनुयायी,
अन्धानुगामी।

टीवी पर
अखबार  में
मीडिया में
समाचार में
वही आना है,
जिसे स्वामी की
चाहना है,
बाकी तो सब
टालू बहाना है।

सत्य का मुँह
कागज़ के टुकड़ों ने
बन्द किया है,
पत्रकार अब एक
कमजोर क्रीत
अधजला दिया है!
वह मजबूत खम्भा
नहीं है,
वह अपनी कथनी
औऱ करनी के लिए
स्वतंत्र भी नहीं है!
परतंत्रता
जो चाहे सो करा ले,
काले को सफ़ेद
और सफेद को
काला बता दे!
निर्भीक पत्रकारों को
जीने नहीं दिया जाता,
दुर्बलों से फटा हुआ
सिया नहीं जाता।

कमजोर पड़ गया है
चौथा स्तम्भ ,
देखकर सोचकर
स्तम्भित रहना
पड़ता है ,
चारों ओर
जड़ता है ,
निरर्थक विवाद है,
ऊँची- ऊँची
भड़कीली बहस हैं,
पर वे भीतर की
भड़ास की हवस हैं,
निर्णयहीन निर्णय,
सम्पूर्णतः अनिर्णय?
यह कैसी
पत्रकारिता है?
विज्ञापनबाजी को समर्पित,
अपनी रेट को  अभ्यर्पित,
यह कैसी पत्रकारिता है ?
ये कैसा चौथा स्तम्भ है?

आम आदमी से
 सर्वथा दूर,
विडिओबाजी में मशगूल,
जो दिखना चाहिए
पर्दे में है ,
सब झूठे आंकड़ों के
गर्दे में है ,
सत्य तिरोहित ही
रहता है ,
जिसके लिए
बनाए थे स्तम्भ
वह झोंपड़ी में रहता है।
कहीं रेल की
पटरियों के नीचे,
कभी बाढ़ में बहता है,
और पत्रकार
नेताओं के साथ
हेलीकॉप्टर से
 विहंगम दृश्य का
वीडियो बनाता है,
वह वही कहता है ,
जो नेता
उसके कान में
धीरे  से      फुसफुसाता      है,
क्योंकि  दीवारों  के  भी
कान होते हैं।
 पत्रकार ही तो
विदेश की धरती पर,
नेताजी की शान होते हैं,
क्योंकि वही आता है बाहर,
जो चमकता है,
नकली सोना
कुछ ज़्यादा ही दमकता है।

💐 शुभमस्तु !

29.05.2020 ◆7.40 अपराह्न।

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