गुरुवार, 7 मई 2020

शत्रु [अतुकान्तिका]


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✍शब्दकार©
🌲 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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अपने ही अंदर
रहते हैं
अपने शत्रु,
उनका मारण -मंत्र भी
अपने ही अंदर,
एक ही स्थान पर
शत्रु और मारक मंत्र?
फिर भी समझता
मानव अपने को
स्वतंत्र  !!

पहचान नहीं है
शत्रु की अपने,
क्योंकि चाहिए हमें
मधुर -मधुर सपने,
सपनों की 
पूर्णता हित
समझे ही नहीं हैं
पराए -अपने,
दिलाता है
जब कोई याद,
तो लगते हैं
हम काँपने,
क्या कभी
देखा पहचाना ,
अपने भीतर
अपना शत्रु आपने?

एक नहीं 
अनेक दुश्मन
बना रखे हैं,
उन्हीं के साथ
बैठकर
बिना दूरी के
ज़हरीले मधुर फल
चखे हैं,
समझते हो
उन्हें अपना सखा ,
इसीलिए बैठकर
उनके साथ खाते हो,
परिणाम भी चखते हो,
पर लेशमात्र भी
नहीं सँभलते हो!

आपके ये शत्रु हैं,
काम , क्रोध,लोभ,
मोह , मद, द्रोह,अहंकार,
स्वार्थ, तृष्णा , विक्रोश,
आलस्य ,अभाव ,अज्ञान
और अति ममत्व,
इनमें नहीं है 
मानव -यौनि का सत्त्व,
नहीं चाहते
इनसे कभी बिछोह,
नहीं कर पाते
इनके समक्ष विद्रोह,
दिखते नहीं हैं
ये तुम्हें शत्रु!
बने हुए हो
इसीलिए इनके मित्र।

होते हैं अवसरवादी
करते हुए   बरबादी,
बिना किसी मुनादी,
फिर क्यों हैं  'शुभम'
इन शत्रुओं के आदी!
इन दुश्मनों के आदी!!
..............................
* दूसरों के दुःख में आनंद
लेने की स्वाभाविक विध्वंसक
प्रवृत्ति ही विक्रोश है।

💐 शुभमस्तु!

07.05.2020 ■9.00पूर्वाह्न।

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