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✍ शब्दकार©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'
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दो कदम पथ चले भीड़ बढ़ती गई,
मंजिलों की तरफ़ बढ़ चढ़ती गई,
एक से सौ फिर हजारों हजारों हुए,
नए भव्य सोपान वह गढ़ती गई।
मैं किसी भीड़ का एक हिस्सा नहीं,
भले नीड़ का एक किस्सा यहीं,
स्वच्छ आकाश में मैं उड़ता स्वयं,
'शुभम' भीड़ में खो न जाए कहीं।
एक पत्थर उछाला गया भीड़ से,
वह गिराया नहीं शून्य से नीड़ से,
एक भी आदमी जिम्मा लेता नहीं,
मैंने पत्थर उछाला था इस भीड़ से।।
भीड़ का कोई भी चरित्तर है क्या?
भेड़ों की तरह अनुगमन है यहाँ,
बस मैं मैं की धुन में सभी मस्त हैं,
अस्मितागत मनुज रह गया है क्या??
मैं मैं का विकल स्वर मैंने सुना,
आदमी भेड़ है ,यह मैंने चुना,
दो नयन पर पट्टिका भीड़ के देख लो,
आदमी ने स्वयं सिर अपना धुना।।
💐 शुभमस्तु !
21.05.2020◆2.15 अप.
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