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✍ शब्दकार ©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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अपने भारतवर्ष में, उपदेशक भरमार।
टी वी पर छाए हुए, करते ज्ञान प्रसार।।
धंधा ज्ञान प्रसार का,बदल - बदल कर वेश।
देता है धन-धान्य भी, तनिक बढ़ाओ केश।।
वसन रँगे हों देह के,मन हो काला लाल।
घर बैठे पुजते रहो, चंदन चर्चित भाल।।
पूजा होती वेश की, ऐसा अपना देश।
वेशों की ही आड़ में, संत- असंत धनेश।।
डाकू डाक्टर नर्स दल, बाबा नेता फोर्स।
अपने - अपने कर्म का ,पूरा करते कोर्स।।
बिना वेश पूजा नहीं, बिना वेश कब मान ?
संग छाप माला तिलक बढ़ती जाती शान।।
आम जनों से दूर हो , होना अगर विशेष।
अपने तन पर धार लो, कोई ऐसा वेश।।
रसना में गुण बहुत हैं,कहे जाय पाताल।
कभी गले में हार है,जूता कभी कपाल।।
उलटे पलटे शब्द को,रसना रस की खान।
कभी अमृत रसवर्षिणी, बनती तीर कमान
द्रुपद सुता की जीभ से, महा युद्ध की नींव।
पड़ी महाभारत हुआ, टूटी नैतिक सींव।।
बुरा बोलने से भला,चुप रहना हित काज।
'शुभम' जीभ के कर्म से, बनते बिगड़े काज।।
💐 शुभमस्तु !
02.05.2020●5.30 अप.
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