●●●●●●●●●●●●●●●●●●
✍ शब्दकार ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम
●●●●●●●●●●●●●●●●●●
बु रे वक़्त में मेरी पहचान कैसी?
भूल ही न जाऊँ रही शान जैसी??
मक़सद एक ही है जिंदा रहूँ मैं,
ज़िंदगी ही नहीं तो परीशान कैसी।
न देखा है मंजर ऐसा कभी भी,
कि गलियाँ हुई हैं सुनसान ऐसी!
ये पंखे औ ' कूलर कहने लगे हैं,
रखे बंद अपने इंसान ए सी।
चेहरे पे बैठी छुआछूत इतनी,
कह रहे हैं जमातम ऐसी की तैसी।
डर - ड र के जीना भाता न उनको।
करोना फैलाना है वे हिंसा हितैषी।
'शुभम ' आज हैवान ओढ़े हुए हैं,
चमकती - दमकती रँगी खाल ऐसी।।
💐 शुभमस्तु
17.05.2020◆ 3.15 अपराह्न।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें