सोमवार, 18 मई 2020

ग़ज़ल


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✍ शब्दकार ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम
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बु रे      वक़्त में मेरी पहचान कैसी?
भूल   ही न जाऊँ रही शान जैसी??

मक़सद       एक  ही है   जिंदा रहूँ मैं,
ज़िंदगी   ही   नहीं तो परीशान कैसी।

न    देखा   है   मंजर ऐसा कभी भी,
कि   गलियाँ   हुई हैं सुनसान ऐसी!

ये     पंखे   औ  ' कूलर  कहने लगे हैं,
रखे      बंद    अपने    इंसान  ए सी।

चेहरे       पे     बैठी     छुआछूत इतनी,
कह  रहे     हैं जमातम ऐसी की तैसी।

डर -   ड र  के जीना भाता न उनको।
करोना     फैलाना   है वे हिंसा हितैषी।

'शुभम '       आज    हैवान ओढ़े हुए हैं,
चमकती   -  दमकती  रँगी खाल ऐसी।।

💐 शुभमस्तु 

17.05.2020◆ 3.15 अपराह्न।

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