सोमवार, 18 मई 2020

जिऐ बुऐ [ लोकगीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍ शब्दकार©
🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
नहाय   धोय  चों आइ ग  ई बु जिऐ बुऐ ।
उठि   खटिया  तें खाय रई बु  जिऐ बुऐ।।

सोवै     सिगरी    राति  उठे बो धौपर कूँ,
खाय     धरी भरि  रोट फूहड़ी जिऐ बुऐ।


अकड़े     धकड़े   रोजु खसम पैचढ़ि बैठै,
डंडा   मारै  चारि   चंडिका    जिऐ बुऐ।

मैलि     कुचैली   साड़ी  धोबै ना  कबहूँ,
लगै    महावर   रोजु चरन में जिऐ बुऐ।

बोलै   कर्कश  बोल   मुहल्ला  भय भारी,
अनख    लड़ाई  रोजु  अनौखी जिऐ बुऐ।


फटे   चीथड़ा   पैरि   बालकनु मारि रही,
भेजै   ना   इस्कूल   धरम सों जिऐ बुऐ।


इत   की उत करि देय चुगलियानारि बड़ी,
आगि    लगावै  रोजु 'शुभम' जी जिऐ  बुऐ ।।


💐 शुभमस्तु !

17.05.2020 ◆6.30 पूर्वाह्न।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...