गुरुवार, 31 जुलाई 2025

चंदन [ सोरठा ]

 384/2025


              


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चंदन  शुभदागार, शीतलता  सद गंध   का।

संग सुखी  संसार, महके  तन -मन आपका।।

यद्यपि    विष आगार,लिपटे रहें भुजंग   भी।

रहे     निर्मलाकार,  चंदन   को व्यापे   नहीं।।


प्रसरित    परम सुगंध,चंदन चर्चित देह   की।

महके  तन - मन कंध,करे परस जो हाथ से।।

करता   चिंता   दूर, चंदन मन को शांति  दे।

सदगंधी  भरपूर,   हरे   त्वचा-सूजन  सभी।।


भक्त   हजारों  लाख,  चंदन की माला   जपें।

बढ़े  भक्त  की शाख, निकट करे जगदीश के।।

शुचि  चंदन  भरपूर, औषधीय  गुण से   भरा।

करे रोग  को दूर,  दोषों   का उपचार     कर।।


लाता   चंदन   नूर,त्वचा - कांति में वृद्धि  कर।

दृढ़ता  को  कर दूर, नहीं  वर्ण फीका    पड़े।।

चन्दन   है   उपचार,  चिंता  और तनाव   का।

तन - मन में सुख सार,ध्यान योग की साधना।।


शीतल    चंदन    तेल,  निद्रा  में  आराम    दे।

समझ    नहीं  ये   खेल,  आयुर्वेदी  ने   कहा।।

लें   पानी    के  संग, किंचित  चंदन चूर्ण  को।

न हो   रोग की   जंग, फंगल  हमला  रोक दे।।


हरता  सकल  तनाव, शीश - वेदना दूर  कर।

चंदन श्रेष्ठ  प्रभाव, नस - नस  को विश्राम दे।।


शुभमस्तु !


31.07.2025●11.45आ०मा०

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हम बादल हैं! [ व्यंग्य ]

 383/ 2025 

 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 क्या समझा है?आपने क्या समझा है? आपने हमें क्या समझा है? आपने हम बादलों को क्या समझा है? कि हम कहाँ से पानी बरसाते हैं!हमारे पास अपना कुछ भी नहीं है। हमें भी ये पानी! इस बरसात के लिए जल कहीं से लेना पड़ता है। हमारा अपना क्या है! हम भी बड़ी- बड़ी नदियों ,तालाबों,झीलों, और समुद्र से जल भरकर लाते हैं,तब कहीं जाकर दुनिया की प्यास बुझाते हैं। धरती को हरा भरा कर पाते हैं। हम बादल हैं ,कोई सागर नहीं हैं।किसी खाली घड़े की तरह खाली के खाली।हम बरसते हैं तो दुनिया बजाती है ताली! न बरसें तो देती है गाली! जब बरस जाते हैं तो खुश होते हैं जीव जंतु,खेत, बाग, वन ,दरिया,नाले और नाली।नाच उठते हैं पेड़ पौधे और लताएँ । अपनी ही कमियाँ और खूबियाँ कहाँ तक बताएँ! हम बादल हैं।जो कभी अकेले अर्थात बे दल नहीं होते,सदैव बा दल(दल सहित ) होते हैं,इसीलिए हम 'बादल' हैं। 

  हम 'बादल' कभी काले हैं ,कभी गोरे तो कभी धूसर या भूरे हैं।ये तरह -तरह के रंग भी हमारे अपने नहीं हैं। ये भी सूरज दादा की कृपा का फल हैं, वे जैसे- जैसे अपनी किरणें हम पर बरसाते हैं, हम उसी प्रकार के रंग दिखलाते हैं।कभी -कभी हम लाल हरे नीले और पीले भी हो जाते हैं। मानो हमने अपने कपड़े बदल डाले हों। 

 हम 'बादल' हवाओं के रुख से बिना पंखों के यात्रा करते हैं।प्रायः हम यात्रा में ही रहते हैं।हाँ, जब कभी कहीं बरसना होता है तो अपना कार्य निर्वाह के लिए हमें थमना पड़ता है। यदि हम थमें नहीं तो बरसें कैसे ! यदि कहीं पर बरस पड़े,तो फिर हमारा जलवा देखते ही बनता है !

  हम 'बादलों' को अनेक नामों से जाना- समझा जाता है। जैसे मेघ,घन,जलद,नीरद, वारिद,अंबुद, तोयद,धराधर,पयोधर,तोयधर, जलधर,वारिधर,घटा,घनश्याम, गगनगहन,जीमूत आदि। हम गरज- गरज कर बरसते हैं और बरस -बरस कर गरजते हैं। कभी - कभी आकाशीय तड़ित चमकती और तड़तड़ाती है। कभी- कभी तो हमें द्रव से ठोस बन जाना पड़ता है और ओले का रूप धारण कर आना पड़ता है।इससे धन - जन की हानि भी होती है। 

  लोग कहते हैं कि जो गरजते हैं,वे बरसते नहीं। ऐसा कहना सही नहीं है। हम गरजते भी हैं और बरसते भी हैं।मनुष्यों की तरह हमें पक्षपात करना नहीं आता। हाँ,आदमी के कुकृत्यों के कारण कहीं बाढ़ और कहीं सूखे की स्थिति आना हमारी विवशता है। कुछ क्षेत्रों में लोग कम वर्षा का आरोप हमारे सिर पर मढ देते हैं। अपने सुख चैन और आमदनी बढ़ाने के लिए उसने इतने कोल्ड स्टोरेज बना रखे हैं कि उनसे निकली हुई अमोनिया गैस से हमारा दम घुट जाता है। दोष आदमी का और मढ देता है हमारे सिर पर।यही कारण है कि जिन क्षेत्रों में आलू आदि को संरक्षित करने के लिए शीतगृहों की अधिकता है,वहाँ बरसने की हमारी रुचि नहीं है। ये आदमी स्वयं अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहा है। कहना तो यह चाहिए कि उसने स्वयं कुल्हाड़ी पर ही पैर पटक दिए हैं।

  बेतहासा वन क्षेत्रों के कटान और मानवीय अति आचरण के कारण भू स्खलन की घटनाएँ आम हो रही हैं। यकायक आए इन परिवर्तनों से जलवायु और स्थानीय तापक्रम प्रभावित होता है,जिससे हम बादलों के फटने की घटनाएं होती हैं।आदमी अपनी भूल मानने के लिए तैयार नहीं है। यही कारण है कि उसे बादल फटने जैसी आपदा से दो चार होना पड़ता है। जंगलों और पहाड़ों की कटाई से ऐसा होता है,जो बादल फटने के रूप में सामने आता है। कभी - कभी पहाड़ की ऊँची चोटी पर भरा हुआ बहुत सारा ठंडा पानी यकायक जल प्रलय का कारण बनता है।

  हम 'बादल' हैं। हमारे बरसने के लिए वर्षा ऋतु निर्धारित कर दी गई है।सावन और भादों के दो महीने हमारे लिए आवंटित हैं कि जितना चाहो बरस लो।पर स्वार्थी आदमी नहीं चाहता कि हम ढंग से बरस भी सकें। थोड़ा सा भी अधिक बरस लो तो हाय तोबा शुरू कर देता है। कहीं बाढ़ आ जाती है तो कहीं गाँव,सड़कें,पुल,फसलें बह जाती हैं। न कम बरसने में कुशल है और न अधिक बरसने में ही हमारी प्रशंसा होती है। 'बादल' जो हैं, बदलाव करें भी तो कितना करें,कब तक करें। 

 शुभमस्तु ! 

 31.07.2025●6.00आ०मा०

पीत पिलपिला आम हुआ है [ नवगीत ]

382/2025


  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पीत पिलपिला आम हुआ है

पक जाने के बाद।


रंग रूप रस प्रतिभा बदली

झुकी हुई है डाल

पल्लव पतित पीत सब होते

बदल गया हर हाल

बैठा  कोई पथिक राह में

थक जाने के बाद।


पक्षी दल भी पास न आते

कोयल के स्वर दूर

सावन फागुन सभी एक-से

आम बड़ा मजबूर

कठिन शीत ने उसे छुआ है

चुक जाने के बाद।


मधुमासों में रंग बिखेरे

आए तितली भौंर

ले पराग उड़ गए सभी दल

बदल गया है दौर

नहीं उतरता ग्रास गले में

छक जाने के बाद।


शुभमस्तु !


31.07.2025●1.15 आ०मा० 

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[6:09 am, 31/7/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 383/ 2025

बुधवार, 30 जुलाई 2025

कचरे वाली गाड़ी [ नवगीत ]

 381/2025


     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


देखो खड़ी सड़क पर टेरे

कचरे वाली गाड़ी।


कूड़ेदान  उठाओ   अपने

दौड़ो शीघ्र उँडेलो

नहीं अधिक वह खड़ी रहेगी

कचरा  बाहर ठेलो

आगे - आगे बढ़ो  बहन जी

रहना  नहीं पिछाड़ी।


छिलके फल सब्जी के किंचित

एक न  रहने पाए

रोटी सब्जी बची हुई तो

कचरे में क्यों जाए

पड़े न रहना घर के भीतर

पिए हुए तुम ताड़ी ।


अन्य किसी के दरवाजे पर

नहीं फेंकना कूड़ा

सिर के बाल गली में कोई

और न डालें जूड़ा

रखनी हरी- भरी हर क्यारी

छत पर ठाड़ी बाड़ी।


शुभमस्तु !


30.07.2025●12.30 प०मा०

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राधा के घनश्याम [ दोहा ]

 380/2025



[संयम,संकेत,नटखट,नीलांबुज,भंगिमा]

  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


               सब में एक

ब्रजबालाओं   को  नहीं, संयम पल को   एक।

कान्हा  से  मिलने चलीं,करतीं जतन    अनेक।।

जीवन  में   संयम नहीं,उपजें मनस    विकार।

पहले   ही   धारण   करें, ज्ञानी  जन सुविचार।।


समझ  लिया  संकेत को,पहुँच गईं उस  कुंज।

ब्रजबालाएँ    गोपियाँ, सघन  पल्लवी   पुंज।।

बुद्धिमान जन  के लिए,  यही उचित संकेत।

पल भर में  समझें  वही, जो करणीय  सुहेत।।


नंदलाल   नटखट  बड़े, नटवर नागर   नेक।

नंदरानी  नित  चाव से, करतीं  तन अभिषेक।।

नटखट   नंदकिशोर   की, लीला अपरंपार।

ब्रजवासी   जानें    नहीं, गोपी  गोप कुमार।।


नीलांबुज  अभिराम  हैं, राधा के घनश्याम।

देख नयन  संतृप्त हों, लगता  नहीं विराम।।

नीलांबुज हरि  की कथा,श्रवणों में  रसधार।

बरसाती   है   नेह की,  रंगों   भरी  फुहार।।


वक्र  भंगिमा श्याम की,देख गोपियाँ   मग्न।

मन में व्यापित नेह की,ललित लाड़ली लग्न।।

भौंह भंगिमा  देखकर, मन  में किया  विचार।

काम नहीं बनना  अभी, संभव   पड़े विकार।।


                   एक में सब

संयम के संकेत  की, ललित भंगिमा  नेक।

नीलांबुज   नटखट बड़े,दिखलाते व्यतिरेक।।


शुभमस्तु !


30.07.2025●12.45 आ०मा० 

मखमल बिछी हरी पगडंडी [ गीत ]

 379/2025


   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मखमल बिछी हरी पगडंडी

हरी -हरी तरु छाँव।


दृष्टि जिधर भी जाती मेरी

और नहीं कुछ भाता

खाट बिछाए बैठे द्रुम तल

कजरी कोई गाता

सघन नीम के नीचे  सारा

 शरण लिए है गाँव।


पास सरोवर में क्रीड़ा रत

गोरी बतख अनेक

दर्पण -सा चमके  सर पानी

बोल रहे बहु भेक

पाँच बकरियाँ बैठ किनारे

सुस्ताती हैं पाँव।


हरे -हरे सब खेत 

फसल के धरे हरे परिधान

लहराते हैं विरल पवन में

'शुभम्' गाँव की शान

क्रीड़ारत बालिका बाल सब

लगा रहे हैं दाँव।


शुभमस्तु !


28.07.2025●10.00प०मा०

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सोमवार, 28 जुलाई 2025

धरती पर मैं सबसे सुंदर [ नवगीत ]

 378/2025

      

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दर्पण ये सच ही कहता है

धरती पर मैं सबसे सुंदर।


मेरी नाक सभी से ऊँची

नखशिख से मैं परी मेनका

हिरनी जैसी कटि है पतली

कहना क्या है चक्षु शेन का

मेरे एक अश्रु से झुकते

धरा धाम के प्रबल पुरंदर।


बिना ईंट दीवार बना दूँ

छत के बिना बना दूँ घर मैं

घरवाली कहती है दुनिया

तुझे घुमा दूँ मैं दर -दर में

दो टाँगों पर मर्द नाचते

उछल-कूद करता ज्यों बंदर।


तुच्छ इशारे में जादू की

छड़ी घुमाना आता मुझको

नयन कोर से बंदी कर लूँ

कहता तू पौरुष है जिसको

कुशल इसी में रहना बाहर

और रहूँ मैं घर के अंदर।


शुभमस्तु !


28072025●11.00आ०मा०

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टेढ़ी है लकीर [ नवगीत ]

 377 /2025

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


टेढ़ी   है  लकीर

सीधी  कोई तो करे।


बचा देह पाँव

सब चले जा रहे

रेख सीधी भी करे

कैसे कोई क्यों कहे

उल्लू सीधा हो निजी

कोई फिक्र क्यों करे !


होना चाहिए सही

सत्य सदियों ने कहा

कैसे सीधी हो लकीर

कहने करने से रहा

तप्त पानी को कोई

नहीं हाथों में भरे।


नजरन्दाजियों में

देश का हाल ये हुआ

उपदेश देते लीडरान

खोदते कुँआ

रहे कुर्सी ये सलामत

कोई भाड़ में गिरे।


शुभमस्तु !


28.07.2025●10.30 आ०मा०

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कागा बने मराल [दोहा गीतिका]

 376/2025



©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


श्वेत   वसन   हैं  देह  पर,कागा बने  मराल।

कहते  करें   विकास वे, बैठ कँटीली डाल।।


खाते  हैं  वे   वेश का,  चूस-चूस  कर आम,

बजा  रहे  हैं मौज की,वंशी पर झप ताल।


त्राहि -त्राहि जनता करे, उन्हें  नहीं अवकाश,

सुनते  एक  न  बात  वे, बजा  रहे  वे गाल।


सब निशुल्क  ही  चाहिए,साधिकार लें छीन,

देखो   कौवा  ऐंठकर,   चले  हंस  की   चाल।


नारों  से  चलता नहीं, कभी  देश का  काम,

लोक लुभावन बोलियाँ,उधर न रोटी -दाल।


खाक  छानते  थे  कभी, अब  धन के अंबार,

मार   कुंडली  वे  रमे,  देशभक्ति  की ढाल।


'शुभम्' बदलना रंग को, जिनका आम स्वभाव,

गिरगिट   भी  शरमा रहा, देख देश का    हाल।


शुभमस्तु !


28.07.2025● 6.15 आ०मा०

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श्वेत वसन हैं देह पर [सजल]

 375/2025


           

समांत         : आल

पदांत          : अपदांत

मात्राभार      : 24.

मात्रा पतन    : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


श्वेत   वसन   हैं  देह  पर,कागा बने  मराल।

कहते  करें   विकास वे, बैठ कँटीली डाल।।


खाते  हैं  वे   वेश का,  चूस-चूस  कर आम।

बजा  रहे  हैं मौज की,वंशी पर झप ताल।।


त्राहि -त्राहि जनता करे, उन्हें  नहीं अवकाश।

सुनते  एक  न  बात  वे, बजा  रहे  वे गाल।।


सब निशुल्क  ही  चाहिए,साधिकार लें छीन।

देखो   कौवा  ऐंठकर , चले  हंस  की   चाल।।


नारों  से  चलता नहीं, कभी  देश का  काम।

लोक लुभावन बोलियाँ,उधर न रोटी -दाल।।


खाक  छानते  थे  कभी, अब  धन के अंबार।

मार   कुंडली  वे  रमे,  देशभक्ति  की ढाल।।


'शुभम्' बदलना रंग को, जिनका आम स्वभाव।

गिरगिट   भी  शरमा रहा, देख देश का    हाल।।


शुभमस्तु !


28.07.2025● 6.15 आ०मा०

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शनिवार, 26 जुलाई 2025

पोथी में विद्या बसी [ दोहा ]

 374/2025

         

       

[शाला,बस्ता,पोथी,कलम,पढ़ाई]

        

 ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                 सब में एक


शाला में जाकर करें,बालक नमन प्रणाम।

गुरुवर  देते ज्ञान को,सिखलायें हरि नाम।।

विद्यालय  शाला  सभी, बड़े ज्ञान  आगार।

खेलकूद   होते    वहाँ,  सीखें सद आचार।। 


लाद   लिया   है  पीठ  पर, बस्ता  लेकर  ग्रंथ।

शाला   को   बालक  चले, सीखें ज्ञान सुपंथ।।

अलग-अलग बस्ता लिए, निकले घर से छात्र।

जो  सहेज  उनको  रखे,वही ज्ञान का   पात्र।।


पोथी    में   विद्या   बसी, करना ही    है   प्रेम।

सश्रम   उसे   सहेजना,   मिले  ज्ञान  का  हेम।।

पोथी     ज्ञानागार     है, नहीं  छुवाएँ     पाँव।

भटकोगे   तुम  अन्यथा,नगर-नगर हर   गाँव।।


अपनी -अपनी सब रखें,बालक कलम सँभाल।

लिखें   वर्ण   इमला  सभी,करते हुए  कमाल।।

डॉट  जैल   स्याही   भरे,कलम रखें सब  मित्र।

लिखें  प्रश्न  उत्तर  सभी, सुघर सजीले   चित्र।।


बिना   पढ़ाई   ज्ञान   के, मानव है ज्यों  ढोर।

पढ़ना    है   सश्रम   हमें,  रहें  नहीं कमजोर।।

नहीं   पढ़ाई    जो    करें, पछता   बारम्बार।

कहते  हम  पढ़ते  कभी,  होते उच्च  विचार।।


                 एक में सब

शाला  में  लेकर चलें, पोथी कलम  दवात।

करें   पढ़ाई   लग्न  से,बस्ता पीठ    सुहात।।


शुभमस्तु !


26.07.2025●4.00प०मा०

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भक्त' बनाम 'भोक्ता' [ व्यंग्य ]

 373/2025


       

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

'भक्त' और 'भोक्ता' दोनों ही सम वर्ण हैं ,सवर्ण हों अथवा न हों।और अवर्ण तो कोई होता ही नहीं है।वर्ण तो सब जगह अनिवार्य ही है। इन दोनों शब्दों में पूरा  'भ'  ,आधा 'क' और  पूरा 'त' समान रूप से सम्मिलित हैं।देखने और सुनने में भले ही वे समान लगते हों,किंतु वास्तविकता इसके विपरीत ही है। 'भक्त' वह है, जो किसी व्यक्ति,देवी, देवता,संस्था अथवा देश को समर्पित होता है। उसकी भक्ति में नतमस्तक रहता है।उसका कृपापात्र बना रहता है।यह अलग बात है कि वह 'भक्त' बनकर उसको भोगने लगे।उसका भक्षण करने लगे।और 'भक्त' के चोले के नीचे 'भोक्ता' बन जाए।  इस 'भोक्ता' से  ही मिलता जुलता शब्द 'उपभोक्ता 'भी बहु प्रचलन में हैं।जब कोई किसी का उपभोग करता है तो उसे उपभोक्ता कह दिया जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि भोक्ता कोई और होता होगा। असली भोक्ता तो वह व्यक्ति या संस्था हुई जो किसी वस्तु या कार्य का सृजन करे और उससे खरीद कर कोई अन्य उसे भोगे। वही उपभोक्ता हुआ। एक रुपए लागत की वस्तु को सौ रुपए की बेचे ,वही  वास्तविक भोक्ता है और किसी अन्य से एक सौ दस में ख़रीदकर उपभोग करे ,वह उपभोक्ता है।

देश की सेवा के नाम पर देश भक्ति का चोगा ओढ़े हुए तथाकथित देशभक्त देश का भक्षण कर रहे हैं। वे वस्तुतः उसके भोक्ता हैं,भक्त नहीं।जब तक कोई ऊपरी आवरण न ओढ़ा जाए तब तक देश भक्ति नहीं हो सकती।इस देश में इसी प्रकार की देशभक्ति हो रही है।कर्ता धर्ता देशभक्त कहलाए जाते हैं और थोड़ा बहुत नहीं,टीवी अखबार और सोशल मीडिया पर बखूबी मुस्कराते हुए  फोटो सहित  प्रचारित और प्रसारित किए जाते हैं।ये सभी भक्त के नाम पर भोक्ता  ही हैं। कोई भला क्या उन्हें चुनौती दे सकता है कि ऐसा क्यों हो रहा है। 

ये भक्त रूपी भोक्ता देश के लिए बेचारे हैं।यह अलग बात है कि उनके लिए देश में इधर -उधर पूरब, पश्चिम,उत्तर, दक्षिण,ईशान,वायव्य, नैऋत्य,आग्नेय ऊपर और नीचे चारा ही चारा है।किंतु बेचारगी भी एक चोगा ही है।भिखारियों से भी कम मूल्य पर जिन्हें भोजन,चाय, पानी,फोन,मोबाइल,वाहन,आवास, ए सी,कूलर,सोफा,बेड,गद्दे,यात्राएं सुलभ करा दी जाएँ, उन्हें क्या कहेंगे! वस्तुतः वे ही तो बेचारे हैं। सब मुँह सीये बैठे हैं।कोई कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं। 'मैं न कहूं तेरी तू न कहे मेरी।'की स्थिति चल रही है।ये भक्त नहीं भोक्ता हैं,उपभोक्ता हैं ।देश के सोखता हैं।

'भक्त' का चोगा कितना ही आकर्षक और लुभाऊ  है। समुद्र में जाकर  कितना ही पानी समाकर खारी हो जाए, गङ्गा की पावनता मैली हो जाए; कौन है जो देखे सुने! सब जगह बाईस पंसेरी धान तौले जा रहे हैं, कोई है जो देखे और अपनी चोंच से चों -चों (क्यों -क्यों ) करे ? ये 'भक्ति' एक आड़ है,परदा है। वस्तुतः कोई नहीं चाहता कि पेड़ लगें और देश खुशहाल हो। यदि एक बार में लगाए गए करोड़ों पौधे पनप गए तो आगामी वर्षों में पौधारोपण के लिए एक इंच भी धरती शेष नहीं रहेगी।इसलिए हर साल पौधे रोपो और भूल जाओ । अगले वर्ष फिर जेठ की कड़कती हुई दोपहरी में पेड़ लगाओ ।यह तो पता ही है,कि वे पनप नहीं पाएँगे,इसीलिए जून /जेठ को चुना गया। यदि बरसात के सावन भादों के महीने इस कार्य के लिए चुने जाते तो  शायद इतनी अधिक बुद्धिमत्ता नहीं होती !

इस देश में 'भक्त' ही 'भोक्ता' हैं। उन्हें भला कौन रोकता टोकता है।कोई  कुछ कहे भी तो कहेंगे कि कुत्ता भौंकता है। अपनी बेकार की बक- बक क्यों छोंकता है? देश चलता चला जा रहा है और इसी प्रकार जाता भी रहेगा।चला भी जाएगा समूचा का समूचा तो यही कहा जाएगा कि यही होना था।बोया ही नहीं गया वह बीज जो बोना था। जब सभी 'भक्त' ही 'भोक्ता' थे, तो चुसता हुआ आम भला क्या बोलता। उनके 'रस'  में विष क्यों घोलता! अपनी दो कौड़ी की तराजू पर किस - किस को तोलता! जो हो रहा है,होने देना है। काम करे कोई और 'भक्तों' को श्रेय ले लेना है।मेरी वाह-वाह हो यही तो सीना -पोना है। यदि कोई आगे निकले तो उसकी टाँग तोड़ दो। ज्यादा जबान चलाए तो अंदर को मोड़ दो। अन्यथा उसे नंगा करके सड़कों पर छोड़ दो। आज का भक्त भोक्ता का पर्याय है। उपभोक्ता बेचारा करता रहे हाय-हाय है।उसे तो दस की चीज एक सौ दस या इससे भी ऊपर खरीदनी है। क्योंकि उसे जीना है। जीवन के विष को अमृत की तरह पीना है। 'भक्तों ' की वाह! वाह !! करनी ही है। 'भक्तावाद जिंदाबाद'। 'भोक्तावाद जिंदाबाद'। उन्हें जो रोके टोके ,उसका मुर्दाबाद। गूँज रहा है हर दिशा- दिशा में  यही नाद।

शुभमस्तु !

26.07.2025●1.00 प०मा०

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मलीदाभक्षी [ व्यंग्य ]

 372/2025


             

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

मलीदे से भला कौन सुपरिचित नहीं है। ऐसा भी कोई है ,जो मलीदा खाना नहीं चाहता।शायद नहीं। अब यह  अलग बात  है कि कौन किस तरह से मलीदा खाता है। मलीदा भी खाने वाले और कमाने वाले की श्रेणी के अनुसार अलग -अलग प्रकार का होता है।कोई अपने परिश्रम और गाढ़े पसीने की कमाई से अर्जित मलीदा खाता है तो कोई किसी अन्य के परिश्रम और पसीने की कमाई का मलीदा खाता है।  जैसे  किसी का निकम्मा बेटा आजीवन  बाप की कमाई का ही  मलीदा खाना चाहता है।वह स्वयं कोई काम न करके परिजीवी बनकर जीना चाहता है। वह परिजीवी क्या परिपोषी और परिचूषक जीवन जीने में विश्वास करता है। यह दूसरे के पसीने से बने मलीदे का खाना हुआ।


मलीदे - मलीदे  की क्वालिटी का यह अंतर  उसके स्वाद में भिन्नता भर देता है।जो माधुर्य और  सचिक्कणता स्वार्जित मलीदे में होती है,वह परार्जित मलीदे में कदापि नहीं हो सकती।किसी चोर को चोरी का गुड़ भले ही ज्यादा मीठा लगे ,किंतु स्वार्जित मलीदे की  कुछ और ही बात है। कार्यालयों में अनेक बाबू और अधिकारी कोई काम नहीं करना चाहते। वे उल्लू बनकर मलीदा खाना चाहते हैं। चाहते ही नहीं ,खा भी रहे हैं,खा ही रहे हैं। बॉस द्वारा काम की कहे जाने पर कह देते हैं कि उन्हें अमुक काम आता ही नहीं,इसलिए किसी और से करा लें।  विवश होकर अधिकारी को वह कार्य किसी अन्य से  निष्पादित कराना पड़ता है। बात वहीं पर आकर टिकती है कि रहो 'लुल्ल के लुल्ल और तनख्वाह पाओ फुल्ल।' उनका तो यह जीवन सूत्र ही है कि 'जो करेगा टेंशन,उसकी बीबी पाएगी पेंशन।'

मलीदे वाली यह बात जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रभावी होती है। घर,परिवार,समाज,सरकारी दफ्तर, राजीनीति आदि भला ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जहाँ मलीदा कबड्डी न खेलता हो। यह सबका प्रिय जो है।मलीदा चाहिए ,चाहे जैसे मिले।हर घर -परिवार में जितने सदस्य बेटे ,भाई,बहनें,भाभियाँ आदि होती हैं ,वे सभी कर्मप्रिय नहीं होतीं। बड़ी बहू सोचती है कि छोटी ही घर में झाड़ू लगा ले, मैं तब तक एक मीठी- मीठी झपकी ही ले लूँ। छोटा लड़का यही उम्मीद करता है कि बड़ा भाई ही सारा काम- काज करता रहे,उसे कुछ भी न करना पड़े। यही स्थिति बहनों की भी होती है। प्रत्येक घर का यह अलिखित संविधान है कि जो सदस्य किसी काम का नहीं होता ,अथवा सबसे निकम्मा होता है ,चूल्हे की पहली सिंकी रोटी वही खाता है और जो घर का मुखिया पिता माता या अन्य  हैं ; उसे सबसे बाद में रोटी मिलती है। कभी -कभी तो ऐसा भी होता है कि गृहलक्ष्मी को खाने के लिए सब्जी- दाल या रोटी ही नहीं बचती। मलीदामार कोई और ,और पसीना बहाए कोई और। फिर शिकायत यह रहती है कि सुधार कैसे हो। घर का उद्धार कैसे हो ?

जो बात घर -परिवार के सम्बंध में सत्य है,वही इस देश के दफ्तरों और सरकारों के लिए भी सत्य है। हर व्यक्ति किसी अन्य के मलीदे में हाथ साफ करना चाहता है। यह अकर्मण्यता कहीं  न कहीं दिल के किसी कोने में छिपी बैठी है। हर्रा लगे न फिटकरी ,रंग चोखा ही आए। अपने ही कर्म से बचने और पलायन की यह प्रवृत्ति ईमानदारी से कठोर श्रम करने वालों के मलीदे पर हाथ साफ करती है। काम कम से कम करना पड़े और मलीदा ज्यादा से ज्यादा मिले,यह आम स्वभाव नहीं है।जो करके खाते हैं,वे  स्वार्जित मलीदे का स्वाद जानते हैं। उन्हें अपने कर्म का फल भी सुफल के रूप में मिलता है।

 मलीदा वही  , पर खाने वालों के लिए स्वाद अलग -अलग।यह तथ्य मलीदे पर नहीं ,व्यक्ति -व्यक्ति पर निर्भर करता है। मलीदे में कमियाँ वही खोजता है,जो उसे उपार्जित नहीं करता। किसी के लिए उसमें घी कम है,तो किसी के लिए मिठास कम है,किसी के लिए उसमें यदि सूखे मेवे भी पड़ जाते तो मज़ा ही आ जाता ! स्व श्रम से उपार्जित की गई सूखी रोटी भी किसी मलीदे से कम नहीं होती ; वही उसे सुखी बनाती है। मलीदाभक्षियों की यह  वार्ता किसी के लिए कितनी मधुर हो सकती है और किसके लिए कितनी अलोनी,कुछ कहा नहीं जा सकता। धन्य हैं वे लोग जो स्व श्रम से अर्जित सूखे टिक्कड़ों को भी मलीदे से कम नहीं समझते। ऐसे ही लोगों से यह समाज और देश  धनी है और स्वनाम धन्य भी।आओ हम सब अपने अपने मलीदे की मिठास का आनंद लें और 'देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जीभ' की उक्ति को चरितार्थ करें।

शुभमस्तु !

26.07.2025● 9.30 आ०मा०

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शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

विचलित [ कुंडलिया ]

 371/2025

      

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

करना मत विचलित कभी,मन को धरना धीर।

कहलाता    है  आँधियाँ, चलता  तेज  समीर।।

चलता   तेज   समीर, लुप्त  प्रियता हो  जाती।

क्षुब्ध   बने  सरि  तीर,  सौम्यता  नष्ट  कराती।।

'शुभम्'  धैर्य   की  धार,सदा ही मन  में  भरना।

विचलित मत हो लेश,सोचकर कारज  करना।।


                        -2-

अपना   सुंदर  पथ  कभी, नहीं छोड़ना   मित्र।

उर  विचलित  करना नहीं,रखना उच्च  चरित्र।।

रखना उच्च चरित्र,पतित मत तन- मन करना।

बहा   सुगंधित   इत्र,  सदा खुशबू ही  भरना।।

'शुभम्'  मनुज  की देह,क्षीण होती ज्यों सपना।

बना  प्रेम  का  गेह, नहीं कुछ जग में  अपना।।


                           -3-

जपना  माला   प्रेम  की, सोच जगत- कल्याण।

विचलित मन करना नहीं,यथाशक्य कर  त्राण।।

यथाशक्य  कर  त्राण, धर्म से विमुख  न  होना।

करें    न  ऐसा   काम, बाद  में  पड़ता   रोना।।

'शुभम्'   कमाएँ   नाम, आग में यद्यपि   तपना।

करना  पर  उपकार,  प्रेम  की माला    जपना।।


                         -4-

मानव योनि अमूल्य  है, मत विचलित कर पाथ।

मन   है  एकल  सारथी,  दस  घोड़ों का   साथ।।

दस   घोड़ों   का   साथ,   बाग को थामे   रखना।

 चले  न  पंथ  कुपंथ, स्वाद  मत सबके चखना।।

लेकर    कभी   अभक्ष्य,  उदर में भरता   दानव।

'शुभम्'   बना   निज लक्ष्य,बने रहना ही  मानव।।


                          -5-

वन   में  घर  में  कुंज  में, या  कानन  के   बीच।

विचलित मन करना नहीं,कमल खिलें या कीच।।

कमल  खिलें  या  कीच, मोहिनी  हो   मधुबाला।

वृथा  मोह    मधु प्रीत,  बड़ा है धोखा   आला।।

'शुभम्' न पथ  को भूल, छद्मता है कन - कन में।

विचलित मत कर मीत,सुदृढ़ता रख घर वन में।। 


शुभमस्तु !


25.07.2025●8.45आ०मा०

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गुरुवार, 24 जुलाई 2025

चक्कर 'का चक्कर [ व्यंग्य ]

 370/2025


         

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

'चक्कर' का एक अन्य अर्थ चक्र भले ही हो ,किंतु वह 'चक्कर' की टक्कर में कहीं नहीं ठहरता। चक्र सुदर्शन चक्र तो हो सकता है,किंतु 'चक्कर' के समक्ष नहीं रुक पाता।इस 'चक्कर' ने बड़े -बड़े चक्कर खाए हैं, तब 'चक्कर' की उपाधि से सम्मानित किया जा सका है।प्यार के 'चक्कर' से राजनीति का 'चक्कर' सर्वथा अलग होता है। 'चक्कर' के चक्करों में जो पड़ा ,वह चक्करघिन्नी हो गया। ये 'चक्कर' जाने कहाँ - कहाँ के चक्कर कटवा दे ,कुछ भी कहा नहीं जा सकता।इसलिए मित्रो ! इस 'चक्कर' के चक्कर से सदा बचे रहना।

कोई किसी से कहता है :"किस चक्कर में पड़ गए। इससे तो कुँवारे ही भले थे।" यहाँ चक्कर किसी मुसीबत के अर्थ में आया है। 'इस काम में बड़ा चक्कर है,कहने से शब्द दुरूहता अथवा जटिलता  का भाव व्यंजित करता है।विवाह की सप्तपदी भी 'चक्कर' ही है। वह भी अकेली नहीं,एक साथ सात है।किसी प्रदक्षिणा ,परिक्रमा या भ्रमण को भी 'चक्कर' ही  कहेंगे।

जीव के लिए चौरासी लाख योनियों का चक्र भी किसी चक्र या फेरे से कम नहीं है। कुल मिलाकर 'चक्कर' बड़ा ही चक्कर वाला है।जैसे सीधा -सादा चक्कर न हुआ कोई भूल -भुलैया हो गया ! किसी शुभचिंतक ने अपने किसी शुभेच्छु से कहा इस लड़के के 'चक्कर' में मत पड़ना ,यह बहुत ही चालू चांडाल है।यहाँ  'चक्कर' ने  फिर अपना मुखौटा बदल लिया। ये 'चक्कर ' ही वस्तुतः बहुरूपिया है। 'चक्कर'  का पहिया घूमा नहीं कि अच्छे- अच्छे चक्कर खाकर गिर जाएँ। किसी आपन्नसत्वा को गर्भधारण के कारण अथवा किसी को परीक्षा में कठिन प्रश्न पत्र देखकर  'चक्कर' आ जाते हैं। कोई कमजोरी में 'चक्करों'  का शिकार हो जाता है। 'चक्करों' का रूप  भी बड़ा मायावी है। पात्र -पात्र में रूप बदलता है।

इस धराधाम में भला ऐसा कौन है,जो 'चक्कर' ने  चक्करघिन्नी नहीं बनाया ? कोई प्रेम के चक्कर में,कोई गृहस्थी के चक्कर में, कोई नौकरी न मिलने के चक्कर में, कोई नौकरी मिल जाने पर उसका निर्वाह करने  या न कर पाने के चक्कर में, कोई राजनीति के चक्कर में,कोई धर्म के चक्कर में,कोई गबन ,चोरी ,मिलावट,

अपहरण,राहजनी के चक्कर में चकराया हुआ है  तो कोई किसी के घर के चक्कर लगाने के चक्कर में छक कर सो भी नहीं पाता। जितने लोग उतने चक्कर के नमूने। एक समय का चक्र ही ऐसा चक्र है,जो निरन्तर घूम रहा है।उसके चक्कर में भला कौन नहीं फंस रहा है।बस, ट्रेन ,ट्रक, ट्रैक्टर,कार के चक्रों को कौन गिने। वे तो दृश्य हैं, किन्तु अदृष्ट चक्करों की कोई सीमा नहीं है। हर व्यक्ति अनेक चक्करों में चक्करायमान है।

आइए ! अब दुनिया और जन्म के चक्कर में आ ही गए हैं तो सँभल कर चक्कर लगाएँ । बेहिसाब चक्कर न खाएँ। क्योंकि जब तक जीवन है,ये चक्कर रुकने और थमने वाले नहीं हैं।एक से निकले तो दूसरा तैयार है। कोई चक्कर न किसी का शत्रु है न यार है। ये आदमी तो चक्करों से लाचार है। कोई किसी के चक्कर में न पड़ें ,सब अपने-अपने चक्कर गिनें। ये सीलिंग फेन या कूलर के चक्कर नहीँ कि हमेशा ठंडी - ठंडी हवा देंगे। कभी भाड़ या भट्टी की ज्वाला में भी तपना होगा ,कभी काम बनेगा तो कभी सपना होगा। पर यह मत सोचें कि 'चक्कर' का  चक्कर कभी बन्द होगा !

शुभमस्तु !

24.07.2025●3.30प०मा०

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हरियाली ही हरियाली [ व्यंग्य ]

 369/2025


        

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

जहाँ की और जिसकी बात कही जा रही है;वहाँ और उनकी सावन भादों ही नहीं बारहों मास हरियाली है। वहाँ कभी सूखा नहीं सुख ही देखा जाता है। वहाँ कभी अकाल नहीं, सकाल ही दिखता है। वहाँ पानी की नहीं , सोना - चाँदी की बरसात होती है।जब सोने - चाँदी की बरसात हो तो वहाँ जंगली घास नहीं उगती।वहाँ  'फल' दार पेड़ ही उगते हैं ;जो किसी मौसम विशेष में नहीं बारहों मास फलते हैं। जब जरूरत महसूस हुई,एक डाली को हिलाया ,तो 'फल' का नहीं ; 'फलों' का  अंबार लग जाता है। उन 'फलों' को 'वह' और उनका दुलार खाता है। हर किसी को ये 'फल' नसीब नहीं होते।होते हैं उनको जो उनके करीब होते।

कुछ लोग कहते हैं कि इनकी तो चाल ही बड़ी टेढ़ी है।और जिसकी चाल टेढ़ी हो उसे लोग बदचलन कह दिया करते हैं। पर है किसी में साहस कि इन्हें कोई बदचलन कह सके ! ये तो आम आदमी को भी चरित्र का 'प्रमाणपत्र' देते हैं।यह अलग बात है कि वे कभी-कभी चरित्र भी माँग ;माँग क्या छीन भी लेते हैं।यह 'राज' ही ऐसा है,जिसके कण - कण में पैसा है।कोई इसके कुर्ते में घुसकर तो देखे ! वहाँ वह क्या कुछ नहीं है,जिसकी उसने कभी पूर्व कल्पना भी नहीं की थी।

 सावन कृष्ण अमावस्या को लोग हरियाली मावस मनाते हैं। एक दिन स्न्नान दान और पूजा पाठ करके अपने मन की संतुष्टि कर लेते हैं।पर राज की गद्दे और गद्दी पर पसरे और विराजमान जन किस क्षण हरियाली में मदमस्त नहीं हो जाते हैं ?वे हरियाली पूर्णिमा का साज सजाते हैं। जैसे कोई पेड़ खाद को चूस कर पनपता और बढ़ता है, वैसे ही राजगद्दी नसीन 'आम'को चूस कर उसे खाद की तरह निचोड़ लेता है। उसे जमीन का स्वामी कहकर जमींदार बताया जाता है,उसी के स्वेद और रक्त का खाद बना स्वाद लिया जाता है। वह बेचारा फिर भी मूक बना चुसा जाता है।किंचित मात्र अपना सिर भी नहीं हिलाता है।

सावन के अंधे को बारह मास हरा ही हरा दिखाई देता है।यह बात सही हो या न हो ;परंतु ऐसा लगता है कि यह कहावत इन्हीं को देखकर बनाई गई होगी। कभी गद्दी पर तो कभी गद्दे पर। गद्द से सदा गदगद रहना ही इनकी गारंटी है। गद्द पद ये कहाँ से कहाँ पहुँच जायँ ;  कुछ भी कहा नहीं जा सकता।रातों रात राज्यपाल ! रातों रात महीपाल ! कोई भी नहीं उठा सकता सवाल।भले विपक्ष कर ले कितना ही बवाल ! पर होना ही नहीं है इसका कोई भी हवाल। जब उनकी नजर में हलाल तो सबके लिए भी होना है उसे हलाल। फिरता रहे कोई किसी पेड़ की डाल -डाल ,पर उन्हें तो होना ही है 'हरियाली' से मालामाल।

हरियाली केवल हरे - हरे पत्तों की ही नहीं होती। हरियाली नोटों और संपत्ति की भी होती है। वे उसी हरियाली से हरियाये हुए हैं। कोई कोई तो 'इस' हरियाली को तरस रहे हैं ;परंतु उन पर तो हरे - हरे नोट बरस रहे हैं।वे गरज -गरज कर लरज रहे हैं और सरस रहे हैं। कोई कुछ कहने और  करने वाला नहीं है। वे जो करें ,वे जो कहें ; सब कुछ सही है। उनकी तो ये  सकल मही है।लिखने वाले ने यह झूठ नहीं कही है।बने तो बने किसी के दिमाग का दही है।

हरी - हरी हरियाली के अनेक रूप हैं।किसी को आँखों की हरियाली  चाहिए ;किसी को पाँखों की ,जिससे वे ऊँचे से ऊँचे आसमान में उड़ सकें। इतना अवश्य है कि हरियाली सबको अच्छी लगती है। इसीलिए उसको सेलीब्रेट किया जाता है। लेकिन जिसकी बारहों मास हरियाली हो,उसकी तो पौ बारह ही हैं। उनका सिर ओखली में नहीं; मुँह कढ़ाई में अवश्य है । 

शुभमस्तु !

24.07.2025●11.00 आ०मा०

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आओ मटके में गुड़ फोड़ें [ नवगीत ]

 368/2025


  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आओ मटके में

गुड़ फोड़ें।


लटके-झटके 

आँख मिचौली 

बहुत जरूरी

राज न जाने

कोई अपना

 रखना दूरी

बहता हुआ

 धार का पानी

उलटा मोड़ें।


रस तो सारा 

अपना ही है 

उसको चूसें

कोई राज

नहीं जाने यों

जन को मूसें

यही राज है

राजनीति है

जन को तोड़ें।


अभिनेता 

नकली नेता है

वह क्या जाने

असली हैं हम

राजनीति के

करके ठानें

बार -बार

जन की माटी को

भरसक गोड़ें।


शुभमस्तु !


24.07.2025● 8.30आ०मा०

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राज की नीति [अतुकांतिका]

 367/2025

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

जान गए तो

राजनीति क्या ?

जो कर ले

वह राजा।


नहीं आम का काम

खास ये

जो चुसता वह आम,

चूषण में जो

जितना भूषण

वही राज का राज।


राजनीति चुसने में ?

बिलकुल नहीं

नहीं जी, नहीं- नहीं,

सदा चूसना

राजनीति है

यत्र तत्र सर्वत्र कहीं।


जितना बड़ा 

चूसने वाला

उतना ही वह 

सुसफ़ल नेता,

अभिनेता तो 

नाटक करता

असली तो बस 

नेता होता।


सबके वश का

काम नहीं है

पहले तो

मन गदला कर लो,

चले अगर तो

राज -मार्ग पर

राजनीति कुर्ते में

भर लो।


राजफ़ाश

जब हो जाए तो

समय पूर्व

क्या राजनीति है?

मटकी में 

गुड़ फोड़ा जाए

कहते हैं जन

कूटनीति है।


जन के ऊपर

कहलाता है

दबा  रखे जो

जन का नेता,

राजनीति का

मुकुट वही है

नहीं कभी

धेला भर देता।


चढ़ी पेट पर

सदा दबाती

जन- जन को

यह राजनीति ही,

बचना है 

आसान न इससे

रीति पुरानी 

बिना प्रीति की।


शुभमस्तु !


24.07.2025●7.00आ०मा०

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बुधवार, 23 जुलाई 2025

कहाँ गई हरियाली [ नवगीत ]

 366/2025

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कंकरीट के जंगल उगते

कहाँ गई हरियाली।


फूल - पत्तियाँ रंग- बिरंगे

प्लास्टिक के छतनार

घर की बढ़ा रहे हैं शोभा

चारु चँदोवा चार

दृष्टि जिधर भी जाती अपनी

दिखती एक न डाली।


दुर्घटना में मरे आदमी 

कोई पास न आता

खड़ा-खड़ा कुछ ही दूरी पर

लाइव चित्र सजाता

नहीं चिकित्सा करवाता वह

खबर करे कुतवाली।


नीम छाँव अमराई पीपल

नहीं पास में एक

पाँच मिनट को जाए बिजली

खोए मनुज विवेक

बिजलीं वालों को साला कह

करे सुशोभित गाली।


शुभमस्तु !


23.07.2025 ●3.15 आ०मा०

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चलो कर लें प्यार [नवगीत]

 365/2025

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चलो कर लें प्यार

पर शर्तें कड़ी हैं।


हृदय में मेरे रहोगे

रात -दिन तुम

नयन में मेरे बसोगे

होना नहीं गुम

आ न पाएँ विरह की

बेकल घड़ी हैं।


दूसरों से बोलो 

नहीं बतला सकोगे

मैं कहूँ रुक जाओ

तो बेशक रुकोगे

प्यार के दायित्व की

तगड़ी छड़ी हैं।


आजमाना मत मुझे

आजाद हूँ मैं

प्यार का देना न ताना

अच्छाद हूँ मैं

नज़र मत ऊपर करो

रहनी गड़ी हैं।


शुभमस्तु!


23.07.2025● 1.15प०मा०

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झूमकर आता नहीं इनको बरसना [ नवगीत ]

 364/2025

    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


इन घटाओं से नहीं उम्मीद कोई

झूमकर आता नहीं इनको बरसना।


चहलकदमी-सी करें दिन रात यों ही

नापना आकाश को इनकी शपथ है

चातकों की प्यास भी इनसे न बुझती

मिलना नहीं इनको कभी यश का सुजस है

तालाब के भी भेक सब प्यासे पड़े हैं

जब भरें तालाब तब उनको हरसना।


शुष्क प्यासी मरु धरा बेचारगी-सी

बाँह  फैलाए पड़ी दिन - रात  ऐसे

विरहिणी हो सेज पर करती प्रतीक्षा

वर्ष से प्रीतम न   आए  प्रात  जैसे

लिख गया है भाग्य में प्यासी मरे वह

बूँद के बिन प्यार में यों ही तरसना।


मौन हैं चारों  दिशा जलमुर्गियाँ भी

एक सन्नाटा सिमट दुहरा  हुआ है

जुगनुओं की अब नहीं चढ़ती बरातें

रो रहा अंधेर में  काला  कुँआ है

लाल मखमल-सी नरम वह लाल गुड़िया

आती नहीं नम भूमि से कैसा सरसना।


शुभमस्तु !


23.07.2025● 9.45 आ०मा०

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शूल तलवों में नहीं चुभने दिए [ नवगीत ]

 363/2025


  शूल तलवों में नहीं चुभने दिए

                [ नवगीत ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दूब पाँवों के तले बिछती रही

शूल तलवों में नहीं चुभने दिए।


कष्ट  पाँवों  को न हो

वे सदा निर्बाध ही बढ़ते रहें

पददलित होकर कभी रोई नहीं

पशु चरें विचरण करें चढ़ते रहें

उलझना सीखा नहीं पल को कभी

मखमली गद्दे बिछा उसने दिए।


डाल तोड़ी एक उसको ले गया

थाल में उसने सजाया शुद्ध कर

शंभु-सुत के चरण में वह जा बिछी

संकटों के कंट को अवरुद्ध कर

सहज दूर्वा का समर्पण धन्य है

सौम्यता सुखसार रस तप ने दिए।


जो जिया है दूसरों के वास्ते

वह अमर है हरित बिछली दूब-सा

डूबते का जो सहारा बन गया

ज़िंदगी जीता वही शुभ  खूब-सा

आदमी ही आदमी का भोज क्यों

आदमी को लोभ के सपने दिए।


शुभमस्तु !


23.07.2025●8.45 आ०मा०

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सावन भादों की झड़ी [ दोहा ]

 362/2025

    

[सावन,बिजुरी,कजरी,पीहर,राखी]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


               सब में एक

सावन  सहज  सुहावना,सखियाँ करें   धमाल।

अमराई   में  झूलतीं,  झर-झर झरती    डाल।।

सावन -भादों   की झड़ी,चुरा चित्त   का   चैन।

आल्हादित मन को करे,झर-झर- झर दिन-रैन।।


बिजुरी   तड़पे  मेघ में,पिया न घर  में  आज।

थर-थर-थर काँपे  हिया, लगे गिरी अब  गाज।।

बिजुरी   की   अति चौंध में,खुले न   मेरे नैन।

पल्लव-सी   मैं  काँपती,  नींद  न आए   रैन।।


कजरी गीत मल्हार का,मौसम आया  आज।

टपकें टपका  बाग में,चलें छोड़ सखि   काज।।

कजरी ने  इतिहास  में,लिखा लिया  है नाम।

मोबाइल   में    नारियाँ,  व्यस्त  हुईं बेकाम।।


वधू   नवोढ़ा    सोचती, पीहर हुआ   अतीत।

सखियों  के  सँग झूलती,गा-गा कजरी गीत।।

पीहर  के  दिन  चार  हैं, फिर जाना   परदेश।

पता  नहीं  कैसे  मिलें, प्रीतम  प्रणय   परेश।।


राखी  धागा प्रेम का,भगिनि भ्रात    सद्भाव।

आजीवन    निर्वाह   से,पार  उतरती   नाव।।

राखी   का   त्योहार है, चलें बहन   के  गेह।

बंधु  कहे   निज   तीय  से,बरसे उर से   नेह।।


               एक में सब

सावन   में   पीहर  गई, राखी   का त्योहार।

बिजुरी   दमके   मेघ  में, कजरी  करे दुलार।।


शुभमस्तु !


23.07.2025● 4.45 आ०मा०

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मंगलवार, 22 जुलाई 2025

रैपर [ व्यंग्य ]

 361/2025



 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 हर सोने जैसी चमकीली वस्तु भले सोना नहीं हो।किंतु व्यापारिक और व्यावहारिक जगत में चमत्कार और चमक का विशेष महत्त्व है।यही कारण है कि हर नर -नारी,बालक, बालिका,प्रौढ़ ,प्रौढा,वृद्ध और वृद्धा उससे चौंधियाई हुई है।यह चमक किसी भी तरह बहुविध तरीकों से पैदा की जा सकती है। उससे अनेक साधन और उपाय हैं। व्यापार जगत में चमक लाने के लिए चमकीले,भड़कीले और सजीले-धजीले 'रैपरों' का प्रयोग किया जाता है।चाहे वे घर -गृहस्थी में नित्य प्रति काम आने वाली वस्तुएँ :साबुन,मंजन,मसाले,नमक, क्रीम,पाउडर,लिपस्टिक,कंगन, बिंदी,मेहंदी,काजल,अलक्तक,साड़ी,जूता,चप्पल,पर्फ्यूम,इत्र आदि कुछ भी हो। बिना सुंदर और आकर्षक रैपर के उन वस्तुओं की बिक्री नहीं होती।ये रैपर तो उन वस्तुओं के लिए फूलों में सुगंध की तरह हैं।जैसे फूलों की सुगंध और रंगीन चित्ताकर्षक दलों से प्रभावित होकर तितलियां और भौंरे दौड़े चले आते हैं ,ठीक वैसे ही रैपर देखकर आदमी खिंचा चला जाता है। भले ही खरीदने के बाद प्रयोग से पूर्व ही उस रैपर को मूल्यहीन जानकर कूड़ेदान में फेंक दिया जाता हो।यहीं रैपर के महत्त्व की इतिश्री हो लेती है। 

   आप किसी भी रैपर के मूल्य और महत्त्व से सुपरिचित होंगे।उसका जीवन कितना ? कि बिक जाने तक। प्रयोग के बाद उसे फिंकना ही फिंकना है। चाहे उसकी लागत पर पचास रुपए का खर्चा आया हो,पर उसे तो फेंक ही देना है।पचास रुपए का नोट संभाल कर रख लिया जाएगा,पर पचास रुपए के रैपर का अब न कोई मूल्य है और न महत्त्व ही। यह ठीक वैसे ही है,जैसे नेता के सामने गुर्गा।बैनर लगाने,बाँस बल्लियाँ गाड़ने, झंडा ऊँचा करने,नारे लगाने,जुलूस निकालने के बाद गुर्गा रूपी रैपर को कोई नहीं पूछता। अपनी शेखी के बलबूते गुर्गा कितना ही इतराए तो इतराता रहे ! पर सब कुछ निष्फल और अकारथ। 

   समाज और देश में कुछ लोगों की अहमियत मात्र एक रैपर की ही होती है। उनकी चमक से चमकता कोई और है ,पर वे अपने अहं में यही समझते रहते हैं कि गाड़ी किसी और के नहीं ,उन्ही के बलबूते चल रही है। जैसे बिना रैपर के नंगा साबुन नहीं बिकता ,वैसे ही जनता में नंगा नेता नहीं चलता।उसे उसके रैपरों द्वारा ही चलाया चमकाया जाता है।

   साले की शादी में जीजाजी का रैपर चमकता है। जीजाजी की जय जय और फूफाजी की फूं फूं चिंघाड़ मारती है।जीजाजी के साथ जीजी और फूफाजी के साथ फूफी की फूं फां नए-नए रंग दिखलाती है।भाभी की भभक भी कुछ कम नहीं। वह भी एक महकता हुआ रैपर - बंडल है। रिश्तों में रैपरों का बड़ा महत्त्व है। लेकिन उतना ही जितना किसी बच्चे के टेढ़े मेड़ें के पैकिट का है।

 रैपरों की दुनिया बड़ी रंग -बिरंगी और सुगंधी है। रैपरों के परों से ही चिड़ियाएँ आसमान में उड़ती हैं।कोई रैपर निरर्थक नहीं है। वही तो नववधू की मुँह दिखाई से पहले गोटा की ओट है। उसी के कारण नवोढ़ा दुल्हन को वोट है। ये अलग बात है कि घूँघट उठने पर पता लगे कि उसका निचला कटा होठ है।पर यहाँ बिका हुआ माल वापस नहीं होता। यह तो अपना- अपना भाग्य है कि किसी को घोड़ा मिले या खोता।

देश और दुनिया में रैपरों ने धमाल मचा रखा है।सभी रैपरों को अपने हस्र का पता अच्छी तरह से है। फिर भी वे इतराने से बाज नहीं आते। वे दुकान की सजावट हैं। ग्राहक की चाहत हैं।उसी के कारण बढ़ते हुए ग्राहक हैं।वे चाँदी के वर्क नहीं ,जो खा लिए जाएँ।उन्हें तो कूड़ेदान की शोभा बढ़ानी ही बढ़ानी है। चार दिन की चाँदनी शायद इसी को कहते होंगे।रैपरों के पर होते तो उड़ जाते। किन्तु वे बेचारे हैं,असमर्थ हैं। परिजीवी हैं। परिपोषी हैं। किताब के ऊपर लिपटा हुआ लोकार्पण पूर्व का रैपर! बेचारा !! ऐसे बेदर्दी से उतार फेंका कि जैसे उसकी कोई अहमियत ही न हो ! मेरे विचार से इनका भी 'रैपर दिवस' सेलिब्रेट करना चाहिए। जिस चीज का महत्त्व घट जाने लगता है ,उसका दिवस मनाया जाने लगता है। जैसे: मातृ दिवस,पितृ दिवस, शिक्षक दिवस, मजदूर दिवस आदि आदि। जूता और चप्पल दिवस कभी नहीं मनाया जाता,क्योंकि इनका महत्त्व कभी कम नहीं होता। ये तो चमड़ा, प्लास्टिक, रबर, रैग्जीन आदि के साथ- साथ बातों के भी बरसते हुए देखे जाते हैं।

 शुभमस्तु ! 

 22.07.2025●11.45 आ०मा०

 ●●●,

चौरासी लाख योनियाँ [ व्यंग्य ]

 360/2025

         

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

वैसे चौरासी लाख की संख्या कोई कम नहीं होती। ब्रह्मा जी ने जिस क्षण योनियों का निर्धारण किया होगा,उसी क्षण किसी जीव के कर्मों की संख्या का भी पूर्व निश्चय कर लिया होगा कि कोई भी जीव इतने तरह के कर्म कर सकता है। जो जैसा कर्म करेगा ,वैसा ही उसे फल मिलेगा। इससे यह धारणा पक्की हो जाती है कि कर्म और कुछ नहीं ,किसी जीव के पेड़ का बीज है।वही जब झड़कर गिरेगा ,तो योनि की धरती से फूटकर एक अंकुर बन जायेगा।किस कर्म रूपी बीज की किस योनि में धारणा हो ,पहले से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।पहले उसके पूरे जीवन के कर्मों का अंत और प्रभाव देखा जाता है,उसके बाद ही उसे किस योनि में डाला जाए ,यह सोचा जाता होगा।वास्तव में ब्रह्मा जी का यह काम बड़ा ही जटिल और दुरूह है।परंतु युग -युगांतर से करते -करते यह उनका स्वभाव बन गया है कि उन्हें पलक झपकते हुए यह निश्चय करने में देर नहीं लगती कि किस जीवात्मा को कहाँ ला पटका जाए। इस दुरूह कार्य को निपटाने के लिए उन्होंने चित्रगुप्त जैसे कुशल लेखा -जोखा विशेषज्ञ को नियुक्त कर रखा है।आत्माओं को लाने और निबटाने के लिए यमराज और धर्मराज जैसे प्रशासक पदासीन किए हुए हैं ।फिर उन्हें चिंता ही किस बात की है कि किस जीवात्मा को किस योनि में  स्थापित कर संसार में सबके समक्ष लाया जाए !

कहा जाता है कि जलचरों की 09 लाख,स्थावरों(पेड़-पौधों) की 20 लाख,पक्षियों की 10 लाख,कृमियों की 11 लाख,पशुओं की 30 लाख और मनुष्यों की सबसे कम 04 लाख योनियाँ होती हैं।इसका अर्थ यह हुआ कि सृष्टि में सर्वाधिक संख्या में पशु और सबसे कम संख्या में मनुष्य हैं। यह तो विधाता ही जानें कि किस कर्म का फल कौन सी योनि (जन्म) है? भले ही पृथ्वी पर मनुष्यों की चार लाख योनियाँ हैं,पर संख्यात्मक दृष्टि से वे नौ अरब से कम नहीं होंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि पृथ्वी के समान ही अन्य पृथ्वियाँ भी होंगीं,जहाँ इस पृथ्वी से भिन्न प्रकार के 3,99,000 प्रकार के मनुष्य पाए जाते होंगे। कभी - कभी मनुष्य जैसे एलियन जीवों की चर्चा सुनने -पढ़ने में आती है ।वे भी एक मनुष्यों की ही योनि हो सकती है। सबसे कम होने पर भी वे चार लाख प्रकार के हैं,तो जलचर,स्थावर,खग,पशु और कृमियों को सम्मिलित करते हुए 80 लाख योनियाँ भी अकल्पनीय हैं। 

सोचने की बात यह है कि कलयुग में तो यह मनुष्य ही इतने प्रकार के नए -नए कर्म कर रहा है,जो विधाता की दृष्टि में उनकी नई योनि के कारक होने चाहिए।इससे उसकी योनियों की संख्या चार लाख से भी  बहुत ऊपर चली  जानी चाहीए थी। हो सकता है ब्रह्मा जी ने मनुष्यों के कर्मों की बढ़ती हुई संख्या के आधार पर योनि -संख्या में बढ़ोत्तरी की हो,जो हम तुच्छ मानवों की जानकारी में न हो। इसी औसत से अन्य योनियों के जीवों में भी बढ़ोत्तरी स्वाभाविक है ,जो एक दो करोड़ पहुँच गई होगी।यद्यपि कर्मानुसार योनि निर्धारण हमारे हिन्दू धर्म ग्रंथों पुराण आदि में किया गया है,किन्तु वह विवरण मुझे अपर्याप्त ही लगा। कम से कम चौरासी लाख प्रकार के कर्म और तदनुसार योनि निर्धारण तो होना ही चाहिए था। परंतु बहुत कुछ ऐसा भी सम्भव है ,जो हमारी सोच और संज्ञान के परे है। हम उससे अनभिज्ञ हैं।

कोई जीवात्मा यह नहीं जानता कि वह किस कर्म के कारण इस योनि (मनुष्य,पशु,पक्षी,कृमि,मछली,पेड़) में जीवन जी रहा है  और  जब संचित कर्मों का कोटा समाप्त हो जाएगा तो उसे पुनः किस योनि में जाना पड़ेगा? कौन सा कर्म अच्छा है या बुरा है ? यह भला कौन नहीं जानता? इसीलिए उसने पाप कर्म और पुण्य कर्म की धारणा स्थिर कर ली है। मनुष्य ने अपने लिए तो  एक मानक बना रखा है,पाप और पुण्य का।किन्तु ऐसा लगता है कि अन्य अस्सी लाख योनि के जीव तो पाप कर्म का ही फल भोग रहे हैं! इसीलिए वे उन योनियों में पड़े हुए हैं। किसी मच्छर से यदि यह पूछा जाए कि क्या वह मरना चाहता है  और उसके बाद तुझे और भी अच्छी योनि मिल सकती है,तो वह  मरने के लिए कदापि सहर्ष तैयार नहीं होगा। इसी प्रकार गधा,कुत्ता,सुअर,बिल्ली,साँप, बिच्छू,गिरगिट,गाय,भैंस,बकरी आदि से प्राण त्याग के बाद योनि बदलने के लिए कहा जाए,तो क्या वे तैयार होंगे।मेरे विचार से वे तुरंत ही इंकार कर देंगे। इसका कारण यह है कि हर जीव को अपनी उस देह से इतना मोह हो जाता है कि वह उसे छोड़ना नहीं चाहता।मरना नहीं चाहता। उसे वही प्रिय लगने लगती है।यही हाल मनुष्य वर्ग का है। किंतु समय आने पर यह जीवन त्यागना ही पड़ता है। जन्म और मरण पर जीव का कोई नियंत्रण नहीं है।ये दोनों ही ब्रह्माधीन हैं। चित्रगुप्त जी की घड़ी में उलटी सुई  चलती रहती है और बचे हुए वर्षों,महीनों,दिनों ,पलों और साँसों का आगणन करती रहती है।

कहा यह भी जाता है कि चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि ही सर्वश्रेष्ठ है। हो सकता है कि हर योनि के जीव को अपने वर्तमान जीवन और योनि के संबंध में यही धारणा हो। सबसे अच्छी बात यह है कि जो जहाँ है;वहीं संतुष्ट है। इसीलिए कोई  गधा घोड़ा नहीं होना चाहता। कोई मच्छर मोर नहीं होना चाहता। कोई साँप नेवले की योनि में नहीं जाना चाहता। सब अपने में तुष्ट हैं,संतुष्ट हैं, संपुष्ट हैं; इसलिए  कोई किसी से  नहीं रुष्ट है।यह बात अलग है कि दबती है,तो चींटी भी काट लेती है । वरना वह भी अपने बिल में दाना -संग्रह और अंडा -सेचन में मग्न रहती है।


यों तो कुछ मनुष्य देहधारी भी देह से मनुष्य हैं ,किन्तु कर्म से वे वृश्चिक साँप से भी भयंकर हैं।पता नहीं किस कर्म के कारण उन्हें यह मनुष्य योनि मिल गई ,वरना वे किसी कीट योनि या सरीसृप योनि के ही अधिकारी थे।कभी - कभी ऐसा लगता है कि परमात्मा से योनि निर्धारण में कुछ भूल हो गई होगी। किंतु ऐसा सम्भव नहीं है। हो सकता है कि वे किसी ऐसी ही योनि से आए हों,और उनका वह संस्कार अभी भी शेष हो। वे देह से मनुष्य  हों ,किन्तु कर्म से अभी वही के वही हैं।यह क्रियमाण कर्म भी अगली योनि निर्धारण का महत्त्वपूर्ण कारक है।वस्तुतः यह जीवन प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण कर्म का परिणाम है। यह चौरासी लाख में से चार लाख  का नहीं ,चौरासी लाख  योनियों का ही संरजाम है। लिखा है बहुत कम, पर समझें तमाम है।

शुभमस्तु !

22.07.2025 ● 9.15 आ०मा०

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मेघ मूसलाधार बरसते [ गीत ]

 359/2025

    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मेघ मूसलाधार बरसते

सनन -सनन जलधार।


सड़कों पर प्रवाह पानी का

अविरल कल- कल गान

हर्षित हरे पेड़ भू तृण-तृण

करते हुए नहान

वर्षा है ऋतुओं की रानी

मौसम का उपहार।


सावन का यह मास मनोरम

बुझी धरा की प्यास

नीला गगन ढँका मेघों से

जाग उठी है आस

बरस-बरस कर श्याम जलद नव

लुटा रहे मृदु प्यार।


कृषक चले हल-बैल लिए निज

मुदित गा रहे गान

टर्र - टर्र कर रहे भेक दल

छेड़ रहे मधु तान

'शुभम्' देख नदियों में आया

उछल-उछल जल ज्वार।


शुभमस्तु !


22.07.2025●4.45 आ०मा०

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सावन आया [ गीतिका ]

 358/2025


       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सावन    आया      सघन   घटा   है।

सजल  मेघ   की    रम्य   छटा  है।।


इतना  जल   बरसा झर- झर- झर,

जल- थल  का   संबंध    कटा  है।


इंद्रधनुष        ने       रंग      बिखेरे,

किंचित   घन   का   गात फटा  है।


पर्वत  पर    शिव    शंभु    खड़े  हैं,

बिखरी  भू   तक   श्याम   जटा है।


खेत   बाग   वन     हरे -भरे   सब,

परिश्रम  को  जा   कृषक खटा है।


सरिताओं ने  कल- कल - कल का,

निशा- दिवस निज  पाठ   रटा  है।


वन  में   गए   भ्रमण   करने    हम,

खोद - खोद   कर   प्राप्त   गटा है।


'शुभम् '  देख    लो   अस्ताचल  में,

अंबर    से   कुछ   मेघ   हटा    है।


शुभमस्तु !


20.07.2025●10.45 प०मा० (रात्रि)

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सजल मेघ की छटा [सजल]

 357/2025



      

समांत        :अटा

पदांत         :  है

मात्राभार    :  16.

मात्रा पतन  : शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सावन    आया      सघन   घटा   है।

सजल  मेघ   की    रम्य   छटा  है।।


इतना  जल   बरसा झर- झर- झर।

जल- थल  का   संबंध    कटा  है।।


इंद्रधनुष        ने       रंग      बिखेरे।

किंचित   घन   का   गात फटा  है।।


पर्वत  पर    शिव    शंभु    खड़े  हैं।

बिखरी  भू   तक   श्याम   जटा है।।


खेत   बाग   वन     हरे -भरे   सब।

परिश्रम  को  जा   कृषक खटा है।।


सरिताओं ने  कल- कल - कल का।

निशा- दिवस निज  पाठ   रटा  है।।


वन  में   गए   भ्रमण   करने    हम।

खोद - खोद   कर   प्राप्त   गटा है।।


'शुभम् '  देख    लो   अस्ताचल  में।

अंबर    से   कुछ   मेघ   हटा    है।।


शुभमस्तु !


20.07.2025●10.45 प०मा० (रात्रि)

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रविवार, 20 जुलाई 2025

मूल्यांकन [ व्यंग्य ]

 356/2025


               

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति का एक मूल्य होता है।किंतु विडंबना की बात है कि उनका मूल्यांकन वह व्यक्ति करता है ,जिसका अपना कोई मूल्य नहीं होता।ऐसा लगता है कि उस स्वयंभू मूल्यांकनकर्ता के पास ही किसी की अच्छाई और बुराई को मापने के मानक हैं। ये मानक उसकी अपनी बुद्धि ,मानसिक स्तर और उसकी अपनी सोच की तराजू पर तोले हुए होते हैं।उससे किसी ने कहा नहीं है कि वह किसी का मूल्यांकन करे।पर खाली दिमाग शैतान का घर ,क्या करे बेचारा।खाली बैठा बनिया अपने बांटों को ही तोलता रहता है।इसी प्रकार एक निर्मूल्य व्यक्ति देश ,समाज,धर्म,राजनीति, चरित्र आदि का बहुआयामी मूल्यांकनकर्ता बन जाता है कि जैसे देश ने उसे इसी काम के लिए तैनात किया हो।

जिसका अपना कोई मूल्य है,उसके पास अवकाश ही नहीं है कि वह देश और दुनिया का आकलन करे।जिसमें जितनी बुद्धि रहेगी,उससे इतर तो कुछ कर नहीं सकता।मूल्यवान तो चुपचाप अपना कर्तव्य निर्वाह करता है,वह बड़बड़ाता नहीं है।धड़धड़ाता नहीं है। वह शांत है, दूसरों के सुख से दुःखी नहीं।उसमें व्यर्थ की हलचल नहीं।उसमें छल बल नहीं। वह निर्बल भी नहीं।वह शांत सागर की तरह प्रशांत है। वह निरमूल्यों की तरह उद्भ्रांत नहीं। सूरज सितारों का मूल्यांकन नहीं करता। यद्यपि सितारे कितने ही अधिक टिमटिमाएँ।परंतु वह शांत अपने यात्रापथ का अनुगमन करता है।

यह प्रसिद्ध कहावत भी सत्य है कि अधजल गगरी छलकत जाय।भरा हुआ घड़ा कभी छलकता नहीं है।यही स्थिति निर्मूल्य मूल्यांकन कर्ताओं की होती है।वे पान की दुकान, कॉफी हाउस, स्टेशन, चौपाल, बस,ट्रेन आदि में पूरे देश की राजनीति और नेताओं का वर्तमान और भविष्य दर्शन करते हुए देखे जाते हैं।उनके सबके अपने-अपने भगवा,हरे, नीले,काले,पीले मानक हैं, जिनकी छाया में अपने छप्पर छाते रहते हैं।

नंगा खुदा से बड़ा इसीलिए होता है कि उससे कोई क्या ले लेगा।कोई उसका कर भी क्या सकता है।इसीलिए नंगा नहाए तो क्या पहने और क्या निचोड़े।यही कारण है कि वह सबका मूल्य आँकता है।उसे कोई नहीं आँकता,क्योंकि उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं ,जिसे आँका जा सके। नंगा किसी से नहीं डरता, सब उससे ही डरते हैं।वह एक मिनट में किसी की भी उतार के उसे नंगा कर सकता है,पर नंगे को और भी क्या  नंगाओगे? उसकी नग्नता ही उसका वास्तविक मूल्य है।वही उसका मानक है।उसकी जीभ कमान है। सबके ऊपर उसका संधान है।

चुगलखोर कोई भी हो सकता है :स्त्री भी पुरुष भी। पर हर गली मोहल्ले में ,नुक्कड़ पर,घूरे या पनघट पर ,सास सास और बहू के बहू से सम्मिलन पर ;  कौन सर्वाधिक रूप से नुक्ताचीनी करता है,यह किसी से छिपा नहीं है। अब भला मैं ही किसी एक जिंस (प्रजाति) का नाम लेकर दोष अपने सिर पर  क्यों  लूँ। मैं किसी का मूल्यांकन नहीं कर रहा ,पर सुबह से रात होने तक प्याज ,चीनी,हल्दी,तेल,हरी मिर्च ,जामन माँगने से लेकर जो मूल्यांकन होता है,  वह जगत प्रसिद्ध है।पानी में आग लगाना शायद इसी को कहते होंगे।यह नुक्ताचीनी उन्हें बड़ी ही आनन्दप्रद होती है।समाज जैसे चल रहा था,वैसे ही चलता भी रहता है। कानों कान आग इस मोहल्ले से उस मोहल्ले तक ,इस छोर से उस छोर तक, इस गाँव से उस गाँव तक ऐसे फैल जाती है,जैसे जेठ के महीने में आग।

मूल्य  यहाँ  जिसका  नहीं,वहीं जताएँ  मोल।

जीभ - तराजू  तोलते, मूल्यांकन  के   बोल।।


जिसका    कोई   मूल्य    है, बैठा है चुपचाप।

ग्रीवा में  निज  झाँक  लो, मितवा अपने आप।।


जन -जन  की हर बात का ,जान रहे वे  राज।

फैला खुजली जीभ की,वितरित करते खाज।।


चुप  रहना  आता  नहीं, करें अन्य का  मोल।

लिए   तराजू  जीभ   की, देश   रहे वे   तोल।।


कैसी    यही  विडंबना,मूल्य रहित जो   लोग।

वही   मूल्य   अंकन  करें,  बढ़ें  देश में  रोग।।


शुभमस्तु !


20.07.2025● 10.45 आ०मा०

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दल बनाम दल - दल [ व्यंग्य ]

 355/2025


              

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

जिसे हिंदी वाले दल के नाम से नहीं  'पार्टी' के नाम से जानते हैं,उसे ही वे ही लोग 'दल' के नाम से सुपरिचित हैं। क्या ही बढ़िया शब्द चुने हैं 'पार्टी' और 'दल'।जिनका तात्पर्य प्रायः मिलता -जुलता ही है। 'पार्टी' वह है जो 'पार्ट'  - 'पार्ट' कर दे,अर्थात टुकड़े -टुकड़े यानी खंड -खंड कर दे।जहाँ भी जाए,टुकड़े कराए।संगठन और एकता को तुड़वा दे ,वही 'पार्टी'  पार्टी है।अब बात की जाए  'दल' की।यह तो और भी बहुरूपिया है।जैसे किसी पेड़ के दल अर्थात पत्ते। किसी पेड़ के पत्ते भी खंड- खंड अर्थात  अलग -अलग ही होते हैं।तो दल का एक काम टुकड़े ,खण्ड या अलगाव पैदा करना भी हुआ। समाज और देश को जो खंडित और बिखराव की ओर ले जाए ,वही दल है।

'दल' जब बहुत सारा एकत्र हो जाय तो दल-दल बन जाता है।इस दल-दल में जो फँसा ,वह फँसा का फँसा ही रह गया।वह फिर कभी हँसा ही नहीं और जो हँसा ही नहीं ,वह हँसा भी नहीं सकता। उसे सब रोते हुए हुए ही भाते हैं,सुहाते हैं। अर्थात वह किसी को खुश नहीं देख सकता। दल का एक सम्बन्ध दलन से भी है। वह सबको दलने का आकांक्षी है।वह सबको कूट- पीस करने चूर्ण - विचूर्ण करना चाहता है।वह नहीं चाहता कि उसके दलन से कोई बच पाए। दल के दलन से जब तक दलित अवस्था में न पहुँचा ले ,तब तक उसे विराम है और न ही विश्राम।सहित्य कोष में 'दल' नाश का पर्याय भी है।

'दल' किसी बड़ी वस्तु का एक पक्ष ,हिस्सा या अंश भी है। और जो स्वयं में एक अंश है,वह पूर्ण कैसे हो सकता है। जो स्वयं अपूर्ण है,उससे पूर्णता की अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है। वह पहले अपने अंश को को ही सर्वांश या पूर्णांश कर ले,तब किसी अन्य की पूर्णता की सोचे! 

मैं किसी दल का नाम नहीं ले रहा।नाम लेने से भला होगा भी क्या?मुझे किसी के किसी दल का भाव नहीं बढ़ाना।जब बढ़ाना ही नहीं तो घटाना भी नहीं।क्योंकि मुझे स्वयं में किसी भी दल से कोई भी प्रत्यक्ष या परोक्ष सरोकार नहीं। मेरे सरोकार रखने अथवा न रखने से होगा भी क्या ? मुझे किसी दल के दालान में अपनी खटिया भी नहीं बिछानी।

आजकल दलभक्ति का जमाना है। दल भक्तों के दल के दल इधर से उधर और उधर से इधर दोलायमान हैं। जिनके अपने - अपने नारे हैं,नारियाँ भी हैं। झंडे हैं ,झंडों की  झाड़ियाँ भी हैं। प्रत्येक दल का अपना एक अतीत है,वर्तमान है। जब ये दोनों हैं,तो भविष्य भी होगा। अब मैं अकिंचन कोई भविष्यवक्ता तो नहीं, इतना अवश्य है कि दलों की कलों में देश सुरक्षित नहीं। सबको एक ही चीज चाहिए। जब चाही जाने वाली चीज एक ही है,तो जूतों में दाल- वितरण होना ही है। हो भी रहा है। कोई रायता फैलाता है तो कोई  दल की दाल का भरपूर स्वाद अस्वादित करता है।देश , दल और दलदल सबकी राशि भी एक ही है। वे भले अपने को दल दरवेश कहते चीखते रहें,पर उन्हें चाहिए स्वर्ण सिंहासन ही। सिंहासन मिलने के बाद उनके दिल की दलकन भी आगामी पाँच साल के लिए और भी एक्सप्रेस हो जाती है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि दल एक दुलत्ती से कम नहीं है।इससे पीछे- पीछे चलने वालों और वालियों को सावधान रहना है।पता नहीं कि कब दुलत्ती पड़े और पिछलग्गू चारों खाने चित्त हो जाँय।दलों का दलदल ही ऐसा है,इसमें जो घुसा वह फँसा। 'दल' और 'पार्टी' के बहुत सारे मतलब समझ गए होंगे कि इन दलों की दास्ताँ क्या है ! जिसने रखा इनसे वास्ता ,उसका नपा रास्ता। भूल गया दाल - रोटी मिला भी नहीं नाश्ता। इसलिए शांति से जीना है तो दल की दलबंदी से मुक्त रहें ।देश आपका है,उसकी सेवा करें और मनुष्यता की रक्षा करें।देश सेवा और समाज सेवा कुर्सी से नीचे रहकर भी की जाती है,की जा सकती है। देश सेवा के लिए न दल चाहिए और न ऊँची कुर्सी ही चाहिए।इसलिए किसी दलदल में न फँसें ,इसी में कल्याण है।

शुभमस्तु !

20.07.2025●7.30आ०मा०

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शनिवार, 19 जुलाई 2025

साहित्य का फंगस [ व्यंग्य ]

 354/2025 


         

©व्यंग्यकार

डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

आदमी एक बुद्धिमान नहीं, अति बुद्धिमान जंतु है। जंतु शब्द पढ़कर चौंकिए मत,यह भी सत्य है कि वह पशु,पक्षी, कीट,पतंगों, मछली,मेढक की तरह ही जंतु ही है। यदि उसे अपने को जंतु समझने में कोई आपत्ति हो तो कोई क्या कर सकता है। यदि उसे मेरी बात का विश्वास न हो तो जंतु विज्ञान की किसी अच्छी सी किताब का अध्ययन कर सकता है और मेरे कथन की पुष्टि कर सकता है। मुद्दे की बात यह है कि वह एक 'अति बुद्धिमान ' जीव है।उसने अपनी इस अति बुद्धिमत्ता का सदुपयोग भी किया है और दुरुपयोग भी किया है। अपनी 'अति बौद्धिकता' की अनवरत प्रगति भी हो रही है। प्रगति इस अर्थ में कि उसने जीवन के हर पहलू को सिक्कों से नहीं ,नोटों से बल्कि ये कहें कि सोने- चाँदी से तोला है; तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। और तो और उसे बात करने का भी पैसा चाहिए। यदि मेरी बात का विश्वास न हो तो किसी भी डॉक्टर, वकील ,दलाल, क्लर्क और कचहरी की ईंट- ईंट से संपर्क कर देखिए।

 दुनिया में प्रत्येक चीज को धन की तराजू में नहीं तोला जा सकता।कुछ चीजें मानव मात्र के कल्याण के लिए बनी हैं। फूल खिलते हैं,अपनी सुगंध बिखेरते हैं,पर किसी से मूल्य नहीं माँगते।हवा बहती है, जीव -जंतु और सृष्टि को जीवन देती है,पर अपना मूल्य नहीं माँगती।धूप और प्रकाश निःशुल्क सेवा करते हैं। धरती और आकाश बिना वेतन अपने दायित्व का निर्वाह अहर्निश कर रहे हैं।इसी प्रकार साहित्य का सृजन भी जन कल्याण के लिए हुआ है,किन्तु इस आदमी नामक प्राणी ने उसे भी धनार्जन का साधन बना लिया है। ये ठीक है कि किताब बिके तो उसके मूल्य का भुगतान भी करना ही है।किंतु किताब को इस प्रकार चालाकी और शातिरी से छापा जाए कि आदमी आदमी का शोषण करके धन कमाए,यह सर्वथा अनुचित है।

  छपास की महत्त्वाकांक्षा की नब्ज पकड़ने वाले नीम हकीमों ने कुछ ऐसा बीज वपन किया है कि रजिस्ट्रेशन के नाम पर पाँच -पाँच सौ, एक -एक हजार या जो भी उन्हें उचित लगे; धन मँगाकर साझा संकलन निकाल कर नव कवियों का शोषण कर रहे हैं। सौ लोगों से एक - एक हजार मिल गया, सौ प्रतियों में बीस - पच्चीस हजार खर्च हुए, छ:-सात हजार डाक व्यय में लगे ।फिर भी साठ हजार तो कहीं गए नहीं हैं। इससे बढ़िया धंधा भला और क्या हो सकता है। व्हाट्सएप पर एक रसीला,भड़कीला, चमकीला मैसेज टाइप करो और बिना किसी हर्रा फिटकरी के हजार पाँच सौ को भेज दो । सौ तो कहीं गए नहीं हैं। धंधा अच्छा है,स्वस्थ है,स्वच्छ है। आयकर रहित है। हर प्रेषक मोहित है क्योंकि साथ में एक रंग -बिरंगा प्रमाणपत्र और प्रतीक चिह्न भी तो है।जो घर के शो केस की शोभा बढ़ाएगा और लड़के की शादी वालों के लिए इज्जत का मुकाम भी सजाएगा।

  भारत से लेकर नेपाल तक यह साहित्यिक धंधा जोरों पर है।साझा संग्रहों की बाढ़ नहीं ;सुनामी आई हुई है।जो रह गया सो रह गया।बह गया सो बह गया। कुछ भी हो, प्रमाणपत्र पाकर बड़े साहित्यकारों की सूची में नाम भी लिख गया। आज के युग में यदि सूर,कबीर,तुलसी,बिहारी,रसखान,रहीम,घनानंद,प्रसाद ,पंत, निराला, महादेवी वर्मा यदि रहे होते तो अपना भाग्य कोस रहे होते।जिन्हें अपने से ही अवकाश नहीं,वह इन धंधों में क्यों पड़े? आज प्रचार और विज्ञापन का युग है,बिना इसके कोई साहित्यकार प्रख्यात नहीं हो पाता।लोग अवसर का लाभ उठा रहे हैं और अपने नाम में चार -चार नहीं ,आठ -आठ चाँद लगा रहे हैं। दस बीस साझा संकलनों में नाम छपने के बाद वे बड़े सहित्यकार बन जा रहे हैं। स्वयं घोषित और स्वयं पोषित ।और अब तो परिचय में बीस साझा संकलनों का नाम भी छपने लगा है। अब वे बड़े कवि हैं। उनकी साहित्य के गगन में ऊँची छवि है।अब वे चाँद - तारे नहीं , रवि हैं। समझ में नहीं आता कि धंधे में सहित्य है अथवा सहित्य में धंधा पनप गया है। मैं उसे सहित्य का फंगस कहूं तो किसी को क्या फर्क पड़ता है। फंगस तो फंगस ही रहेगा न ! 

  इस तथ्य से आप अनभिज्ञ नहीं होंगे कि फंगस में हरित लवक नहीं होता। इसी प्रकार धंधेखोरी से छपास पूरी करने के महत्त्वाकांक्षियों के साहित्य में भी हरीतिमा नहीं होती। कभी कभी वह स्व-चोरित भी होता है।पर छापने वाले को क्या ,पकड़ा जाएगा तो स्वयं भुगतेगा।उसका धंधा पक्का हो गया।यह तो वह स्व- घोषणा में ही लिखवा देता है,कि इसका सम्पूर्ण दायित्व संपादक का नहीं,लेखक का होगा। बरसात हो रही है,दादुर टर्रा रहे हैं। इधर इस लेख का लेखक टर्रा रहा है, पर क्या कर सकता है? धंधा है फल- फूल रहा है। मनमर्जी की सरकार है। किसी के रोकने- टोकने की क्या दरकार है? आज जमाना ही ऐसे बरसातियों का है,जो बराबर बरस रहे हैं और बरस -बरस कर हर्ष रहे हैं और जो इस धंधे से दूर हैं ,वे तरस नहीं रहे हैं। वे युग की वास्तविकता के उत्कर्ष रहे हैं।

 शुभमस्तु ! 

 19.07.2025● 3.15 प०मा० 


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मत कर बैर -विरोध [ व्यंग्य ]

 353/2025


  

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

व्यक्ति की बुद्धिमत्ता इसी बात में है कि वह अपने से बड़ों से बैर- विरोध नहीं करे।इसी में उसका कल्याण है। अन्यथा म्रियमाण होने में देर नहीं। अपने हाथ पैर मति और जीभ को कछुए की तरह समेटे रखने में ही खैर है।अन्यथा अंधेर ही अंधेर है।एक नन्हा - सा जुगनू भला सूरज से बैर करके भी क्या पा लेगा! सिवाय स्वयं के भस्मीभूत हो जाने के ! क्षुद्र चींटी विशालकाय हाथी से शत्रुता करके कौन -सा लाभ अर्जित करेगी! एक घोंसलेवाली गौरैया किसी बंदर की शैतानी के समक्ष क्या जी पाएगी? सोच विचार का निष्कर्ष यही निकलता है कि किसी छोटे को अपने से बड़े से न तो बैर ही करना चाहिए और न ही उसकी किसी बात का विरोध ही करना चाहिए। 

 विचार करने की बात यह है कि कोई अपने को किसी अन्य से छोटा दिखना -दिखाना ही नहीं चाहता।एक चौकीदार अपनी औकात से बाहर निकल कर अपने वरिष्ठ से भिड़ जाता है। कहता है कि मैं तुझसे कम नहीं हूँ। जिसकी नौकरी मैं करता हूँ ,उसी मालिक का तू भी नौकर है। परिणाम यह होता है कि अगले पल उसे संस्था से निष्कासित कर दिया जाता है।यह है छोटे का बड़े से अविवेक पूर्ण ढंग से भिड़ जाने का परिणाम ! अहंकार में स्व विवेक को खोता हुआ मनुष्य पतित ही होता है। और उसका वही हाल होता है ,जो सूरज से बैर ठानने वाले जुगनू का हुआ। 

 विशाल वट वृक्ष के नीचे घास भी नहीं पनपती।अंततः उसे वहाँ से विदा होना ही पड़ता है।प्रकृति में सर्वत्र इस विधान का पालन किया जाता है।प्रकृति के संतुलन और अस्तित्व के लिए यह आवश्यक भी है। अपने से बड़ों का सदा सम्मान करना चाहिए ,यह नियम यों ही नहीं बना! आप किसी से छोटे तो किसी अन्य से बड़े भी हो सकते हैं। जब आपको अपने से छोटों से मान-सम्मान चाहिए तो आपसे बड़े को भी आपसे वही चाहिए। आप किसी के स्वाभिमान को मारकर जिंदा नहीं रह सकते। बाप बाप ही रहता है ,बेटा बेटा ही रहता है। इस जन्म में बेटा बाप का बाप न बना है और न ही बनेगा। हाँ,पुनर्जन्म के बाद पाशा पलट जाए तो अलग बात है।वरना हर बेटे को अपने बाप को बाप का मान - सम्मान देना ही होगा - स्ववश या परवश अथवा लोकलाज वश !

  जहाँ तक बैर -विरोध की बात है ,वह तो बड़े को भी छोटों के प्रति नहीं करना चाहिए।पता नहीं कि कौन सी पिपीलिका किसी हाथी की सूंड़ में पहुँचकर उसकी जान ले ले।छोटा - बड़ापन तो सृष्टि की अनिवार्यता है। इस तथ्य की अस्वीकार्यता ही उसकी धृष्टता है। बड़े को बड़ा मानना और तदनुरूप सम्मान देना ही उचित है।बड़ों के द्वारा छोटों को स्नेह देना ही सहज स्वीकार्य है। जहाँ छोटे में अपने गुरुत्व का अहंकार समाया ,वहीं उसका सवा सत्यानाश! इसी बिंदु पर उसके बैर या विरोध का आरम्भ होता है,श्रीगणेश नहीं। बैर या विरोध कभी भी न स्वीकार्य हुए हैं ,न ही होंगे। इसलिए स्नेह, मान- सम्मान के साथ जीना ही मानव की मानवता है ,अन्यथा मानव देह में भी वह पशुता का बोझ ढो रहा होता है। यदि आपकी किसी से नहीं बनती,तो बिना किसी बैर - विरोध के उससे विमुख हो जाना ही श्रेयस्कर है।यह भी कोई आवश्यक नहीं कि दुनिया में जन्मे सभी चेहरे आपको पसंद आएँ ही। आदमी तो स्वार्थ का चलता-फिरता ,नाचता-कूदता पुतला है।जहाँ भी उसका उल्लू सीधा होता है, उसी शाख पर आ बैठता है। यदि स्वार्थ पूर्ति में खटाई पड़ी ,वहीं दूध फट जाता है।यह मानव संसार का प्रचलित लोकप्रिय नियम है। आदमी बिना स्वार्थ की वैशाखियों के एक कदम भी नहीं चल सकता। अकारण अनावश्यक बैर और विरोध करना भी उसकी फ़ितरत है।

 जिस प्रकार आग से आग शांत नहीं हो सकती ,उसी प्रकार बैर से बैर भी शमित नहीं होता। प्रश्न ये है कि फिर बैर का समाधन कैसे हो ? इसको एक उदाहरण से समझा और समाधान किया जा सकता है। सूरज को देखकर जुगनू कितना ही जले ,बैर करे ,तो सूरज की उपेक्षा ही सब कुछ ठीक कर देती है।हाथी अपने मार्ग पर निकले चले जाते हैं, और कुत्ते भौंकते रह जाते हैं।उसकी एक टाँग या पूँछ का बाल भी नहीं छू पाते। आप अपना रास्ता चलें ,कौन क्या भौंक रहा है या टाँग अड़ा रहा है,इसकी चिंता न करें ।यदि उसकी टाँग कुछ ज्यादा ही आड़े आ जाए तो उसे तोड़ देना ही सर्वश्रेष्ठ समाधान है। नजरंदाज करने की भी एक सीमा होती है।जब पानी गले से ऊपर हो तो उस गले का इंतजाम भी अनिवार्य होता है। जब तक आदमी है,ये बैर -विरोध भी जिंदा रहेंगे।इनसे ऐसे ही विजय पाई जा सकती है। मनुष्य ने कभी भी नहीं सुधरने की कसम जो ले रखी है।यह तो पाकिस्तान के भारत से बैर -विरोध की तरह अटल है। वह अपने बाप को भी नहीं बाप मानता ,इससे बड़ा जघन्य बैर -विरोध और हो भी क्या सकता है? 

 शुभमस्तु ! 

 19.07.2025●1.00 पा०मा०

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मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना [ व्यंग्य ]

 352/2025



           

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना' हमारे वायु पुराण की यह सुंदर उक्ति निश्चय ही विचारणीय ,मननीय और माननीय है।इस संसार में जितने मुंड,शुण्ड और तुण्ड बनाए गए हैं,उनकी महिमा भी महनीय है।यहाँ तक कि सृष्टि के सारे चेहरे भी एक दूसरे से नहीं मिलते तो मुंड और उनमें विद्यमान मतियाँ एक समान कैसे हो सकती हैं ? जब मतियाँ एक समान नहीं तो उनकी गतियाँ रतियाँ और स्वस्तियाँ एक सदृश कैसे हो सकती हैं! सृजन कर्ता का सारा सृजन ही सुभिन्न है।कहीं कोई एक रूपता नहीं।हो भी कैसे?हो भी क्यों?फिर इतनी बड़ी और व्यापक सृष्टि का लाभालाभ ही क्या ? सृजन का स्वामी भी विविधता और रंगीनियों से स्नेह करता है ।इसलिए वह सृष्टि में अनेक रंग भरता है।

 'मुंडे -मुंडे मतिर्भिन्ना' के कारण ही कोई नौकर है तो कोई मालिक। कोई चोर है तो कोई शाह। कहीं वाह - वाह है तो कहीं आह ही आह। कोई नेता है तो कोई गुर्गा। कोई अंडाखोर है तो कोई मुर्गा।इधर हाथी शेर है तो उधर मच्छर भुनगा।कोई भिखारी है तो कोई दाता। कोई बीजवपन कर्ता जनक है तो धारक पालक और सुधारक माता।सबकी मति अर्थात विचार यदि एक से होते तो यह रंगीनी और नव्यता कहाँ से आती ! पाँच पंचों की राय भी कभी एक नहीं होती ,क्योंकि मुंडे - मुंडे मतिर्भिन्ना जो है।

 सब आदमी आदमी जैसे लगते हैं,पर एक - से होते नहीं। उनके मुंड की संरचना और उसमें उपजे विचार भिन्न ही होते हैं।प्रकृति की इस प्रवृत्ति की महती सराहना करनी ही चाहिए,क्योंकि यदि सबके मुंड की मति भी एक समान होती तो हर गुर्गा मंत्री और प्रधान मंत्री बनने के लिए रार ठान देता। कोई नौकर चाकर नहीं होता सब मालिक और शाह क्या शहंशाह का सिंहासन हथियाने के लिए महाभारत नहीं तो महापाकिस्तान करते।इतनी मति भिन्नता के बावजूद विश्व में इतनी घोर अशांति है, यदि ऐसा न होता तो अब तक कितनी बार प्रलय हो चुकी होती और कितनी बार ब्रह्मा जी को नई सृष्टि बनाने का दायित्व भार उठाना पड़ता। वैसे भी सृष्टि का निर्माण करते करते उनके बाल श्वेत हो गए हैं ।यदि मतिर्भिन्ना न होता तो उनकी दाढ़ी और सिर पर एक भी बाल नहीं बचा होता। सबके सब ताबीजों के काम आ गए होते। 

  किसी भी प्रवृति के होने या न होने के एक नहीं ,कई आयाम होते हैं। वे सकारत्नक भी हो सकते हैं और नकारात्मक भी। इसी तरह मतिर्भिन्ना के भी सकार और नकार होते।इससे सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि इधर मच्छर खून पीकर ही संतुष्ट है ,उधर आदमी दंशजन्य खुजली को खुजाकर ही शांत है। मच्छर न होता तो मच्छर अगरबत्ती , आल आउट, तेल, कॉइल आदि के बड़े-बड़े कारखाने कैसे खुलते। इस मच्छर जैसे नन्हे संगीतप्रिय जंतु ने इतने बड़े उद्योगधंधों को जन्म दिया है, तो शेर ,चीते, बघर्रे आदि के अस्तित्व और मतिर्भिन्ना ने बड़े- बड़े नगरों,महा नगरों, कस्बों और गाँवों को जन्माया है।अवश्यकता सदा अविष्कार की जननी रही है।ये बहुमंजिला इमारतें, बहु खंडीय गगन चुम्बी भवन सब मतिर्भिन्ना के परिणाम हैं। मानव और सृष्टि का समग्र विकास ही इसी मतिर्भिन्ना ने पैदा किया है। 

 कहा जाता है कि आदमी चौबीसों घण्टे ,सातों दिन और बारहों मास आदमी नहीं रहता। कभी वह आदमी जैसा आदमी है तो कभी देवता तो कभी राक्षस होता है। ये अलग बात है कि वह कब क्या होगा,यह उसकी मतिर्भिन्ना की स्थिति पर निर्भर करता है। उसके मुंड में अवतरित विचार और उनका व्यवहारिक रूप ही उसे आदमी देवता या राक्षस बनाता है।  आदमी के मतिर्भिन्ना ने ही साहित्य में दस रसों को पैदा किया है।प्रिया या पत्नी के साथ शृंगार रत है तो युद्ध में वीरता रत वीर रस, कभी भयानक रस तो कभी क्रोध में रौद्रता का खेल खेलता है। हँसने हँसाने में हास्य का फव्वारा फूटता है तो भक्ति लीन मुंड नयन मूँद शांत रस लीन हो लेता है। यह मतिर्भिन्ना किसी अलौकिक चमत्कार से कम नहीं है। कविता की विधाएँ ,छंद,शैलियाँ,गुण, रीति आदि सब कुछ मतिर्भिन्ना के विविध रंग - रूप हैं। 

 आइए हम सब इस मतिर्भिन्नता का आनंद लें और सृष्टि के विविध राग रंगों में खो जाएं। यहाँ सब कुछ रस मय है। यह तो हमारी और आपकी मतिर्भिन्नता पर निर्भर करता है कि हम उसका रस निर्वेद में ग्रहण करें या संवेद्य में।सब कुछ हमारे अंदर निवेशित है। कब कौन सा रस निसृत होता है ,यही जानना पहचानना है।जब एक ही धरती की विविध मिट्टियों में खोदे गए कुओं के पानी का स्वाद बदल सकता है,तो ये तो आदमी है ।कोई पता नहीं कि उसके मुंड में कब क्या मति हो। उसकी क्या गति हो। सुगति हो या कुगति हो या दुर्गति ही हो !

 शुभमस्तु !

 19.07.2025● 9.15आ०मा०

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शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

सावन [ कुंडलिया ]

 351/2025

            

                   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

सावन  सुखद  सुहावना,सलिला बहे अबाध।

गरज- गरज बरसे जलद, पूर्ण हुई भू- साध।।

पूर्ण   हुई   भू-साध,  हरी  पहनी शुभ   साड़ी।

कृषक  चले  निज  खेत,साथ में बैल अगाड़ी।।

'शुभम्' हर्ष  की  रेख, नयन सबके मनभावन।

ऋतु रानी बरसात, बरसता निशि दिन सावन।।


                         -2-

पावस   ऋतु   मनभावनी,  बरसे सावन   मास।

नर - नारी   खग  ढोर   सब,लगा रहे  थे  आस।।

लगा  रहे  थे   आस,स्वाति  का प्रेमी    चातक।

तजे  न  प्रण को  लेश, नहीं करता तृण पातक।।

'शुभम्' भक्ति की सीख, मनुज को देता थ्यावस।

बीता  मास   अषाढ़,  आगमित सावन   पावस।।


                         -3-

सावन   आया   झूमकर, पड़ा न झूला   एक।

कजरी  और  मल्हार का, गीत न गाया  नेक।।

गीत  न  गाया  नेक,  लीन   हैं अब ब्रजबाला।

मोबाइल    की  टेक,  दिखातीं गरम मशाला।।

'शुभम्'  नारियाँ  गीत,  नहीं गातीं मनभावन।

अमराई    में   देख,  शून्य  में तकता  सावन।।


                         -4-

सावन    में      दिखती    नहीं, वीरबहूटी   नेक।

नहीं    निकलते    केंचुआ, नहीं  गिजाई   एक।

नहीं      गिजाई     एक,   मात्र   दादुर     टर्राते।

जुगनू   लेकर  टॉर्च, कभी   घर में दिख   जाते।।

चींटे       रेलमपेल,   घूमते   घर   या     आँगन।

बीत  गया  वह काल,अलग होते जब   सावन।।


                         -5-

सावन    में    देखो  भरे, सरिता सागर    ताल।

झर-झर- झर बुँदियाँ झरें,प्रमुदित नारी   बाल।।

प्रमुदित   नारी   बाल,  कृषक  खेतों  पर  जाते।

साथ    लिए  हल - बैल, गीत  गाते मन   भाते।।

'शुभम्'    बाग   में   कूक,सुनाई  देती   पावन।

विरहिन   देखे   बाट, सहज सरसाया   सावन।।

शुभमस्तु !


17.07.2025 ●11.00प०मा०

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आदमी और गलती [ अतुकांतिका ]

 350/2025

 

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अपनी गलती

सहज ही स्वीकार ले

वह आदमी नहीं,

आदमी की  

परिभाषा से

परे है ,

वह कुछ और ही हो

पर एक स्वाभाविक 

आदमी कदापि नहीं।


स्वीकार लेना

सहज ही

अपराध बोध होगा,

इसलिए तुरंत नकारना

झुठकारना आसान होगा,

आदमी बने रहो 

और अपने दुष्कर्म को

झटकारते रहो,

यही तो तेरी आदमियत है,

वरना देवता बन जाए।


आदमी से गलतियाँ

हो भी जाती है

अनजाने में,

कभी- कभी वह 

करता भी है 

लगता छिपाने में,

पर ये नासूर

एक दिन फूटता ही है,

और दूध का दूध 

पानी का पानी

छँट जाता है,

हाँ,मैंने ही किया है

वह कह पाता है।


आदमी और गलती

गलती और आदमी

दोनों का साथ

चोली  - दामन का,

यदि आदमी देवता होता

तो कोर्ट कचहरियां

 पुलिस नहीं होते,

अब राम राज्य के

अर्थ बदल गए हैं।


शुभमस्तु !


17.07.2025 ●9.00प०मा०

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इसको उसको ताके [ नवगीत ]

 349/2025

     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मैं ही 'मैं' को जान न पाया

इसको - उसको ताके।


छलनी में थे छेद हजारों

चिमटा से कर बैर

कहती छेद बंद कर अपना

नहीं अन्यथा खैर

मिली ख्याति ताकत पैसा पद

चले वक्र इतराके।


विगत योनियों में तू

भैंसा मच्छर शूकर श्वान

अहंकार में इठलाया तन

आज बना इंसान

संस्कार अब भी ढोरों का

मारे वृथा ठहाके।


तीन हाथ की तेरी दुनिया

फिर भी बड़ा गुरूर

समझे कीट मनुज को नन्हा

तन में बढ़ा सुरूर

गिनी-चुनी साँसों का खेला

चौरासी में जाके।


शुभमस्तु !


17.07.2025●1.00प०मा०

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ढूँढ़ लो मैं हूँ कहाँ पर [ नवगीत ]

 348/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ढूँढ़ लो मैं हूँ कहाँ पर

देह में तेरी।


तुम  बताते आत्मा का

अर्थ ही अपना

पास मैं रहती सदा 

फिर भी लगे सपना

रक्त की हर बूँद में मैं

कर रही फेरी।


देख तो मुझको न पाया

आज तक कोई

मैं सदा जाग्रत रहूँ 

अब तक नहीं सोई

जब निकलना हो मुझे

लगती नहीं देरी।


रूप में भौतिक नहीं

परमात्मा जैसी

मैं सदा से ही पहेली

पथिक परदेशी

कब तलक मेरा ठिकाना

कब बजे भेरी।


शुभमस्तु !


17.07.2025●12.15 प०मा०

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अच्छा ही है! [ नवगीत ]

 347 /2025

             

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'



जितना सोचा

कहा न उतना

अच्छा ही है।


मन तो उड़ता

रहे गगन में

किंतु लौट धरती पर आता

किले हवाई 

कभी बनाए

कभी ध्वस्त पल में हो जाता

कब मन की

सब पूरी होती

अच्छा ही है।


कौन न चाहे

उडूँ गगन में 

सबसे ऊपर

सबको मैं

नीचा दिखलाऊँ

रहूँ न भू पर

बिना पंख

 उड़ता मन पागल

अच्छा ही है।


मेरा ही बस

अच्छा हो सब

अशुभ अन्य का

खुश होता है

उछले नभ में

अजब वन्यता

कुछ फीसद ही

पूरा होता

अच्छा ही है।


शुभमस्तु !


17.07.2025●10.25आ०मा०

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सुधार [ सोरठा ]

 346/2025


                         


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अपना स्वयं सुधार,आवश्यक सबको यहाँ।

मनुज     पूर्णताकार,  कौन  यहाँ संसार   में।।

पहले सुधरे व्यक्ति, करना  देश - सुधार तो।

मिलती है शुभ शक्ति,सब सुधरें तो देश को।।


करना    देश -सुधार,  नेता चीखें मंच   पर।

बने   ईश -अवतार,निज सुधार में लीन   वे।।

मात -  पिता   का धर्म,संतति के निर्माण  में।

करके   शोभन   कर्म, कर लें आत्म-सुधार वे।।


करते    हैं   सब लोग,बातें बहुत सुधार   की।

फैलाते   बहु  रोग,  नहीं   गले  निज झाँकते।।

सबका   पूर्ण    सुधार,करने से ही हो    सके।

जैसे   सलिल   फुहार,  थोथी बातें व्यर्थ   हैं।।


कोई     कभी  सुधार, भाषण से होता  नहीं।

फिर   पूरा  संसार,  पहले आत्म-सुधार   हो।।

पहले   करके  देख,  कथनी से करनी  बड़ी।

करे  न  मीन न  मेख,तब ही सर्व सुधार   हो।।


बड़बोलापन     आम, पर उपदेशी जगत   है।

करे    न  शोभन  काम,कैसे व्यक्ति-सुधार हो।।

बड़े   न  बोले  बोल ,हम सुधरें सुधरे   जगत।

रहें  हृदय को  खोल,  तोलें  तुला सुधार  की।।


साबुन   रगड़   अबाध,धोना पड़ता वस्त्र  को।

पूर्ण व्यक्ति की साध,त्यों सुधार हो व्यक्ति का।।


शुभमस्तु !


17.07.2025●7.30 आ०मा०

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बुधवार, 16 जुलाई 2025

जब तक चलते रहना [ नवगीत ]

 345/2025

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


तब तक ये दो हाथ-पाँव हैं

जब तक चलते रहना।


चलती इनसे देह समूची

गति को जीवन कहते

ये चलते तो जीवन चलता

अंग सुरक्षित रहते

हाथ पाँव जो गतिमय रहते

पड़े न दुख भी सहना।


पोषण के दो यंत्र संजीवन

विद्युत बल संचार यहाँ

सुदृढ़ हैं यदि हाथ-पाँव तो

तन-मन की हर जीत वहाँ

सागर से ज्यों मिलती सरिता

हर पल- पल ही बहना।


चलना ही इनका जीवन है

जड़ता मृत्यु कराती है

दिल दिमाग यकृत सब चलते

नींद चैन की आती  है

श्रम की रोटी खाते दोनों

झूठ  नहीं ये कहना।


शुभमस्तु !


16.07.2025● 9.15 आ०मा०

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सजल वृष्टि घनघोर [ दोहा ]

 344 /2025


       

[सजल,वृष्टि, घनघोर,लहर,सैलाब]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक

भरत- राम की भेंट में,सजल नयन हैं चार।

वाणी   दोनों   मूक   हैं, ग्रीवा   में भुजहार।।

सजल मेघ सजने लगे,गरज -तरज घनघोर।

चपला  चंचल  चाव से,मचा रही अति  शोर।।


सावन आया झूमकर, वृष्टि विकट   बरजोर।

खेत   बाग   वन  में हुई, शोर  मचाएं   मोर।।

बिना वृष्टि क्या खेत में, फसल  न पैदावार।

ऋतुओं की रानी  सजी,  बाँटे  जल उपहार।।


सावन  मास  अषाढ़   में,छाए नभ घनघोर।

दिवस -निशा बरसात हो,भीग गया हर पोर।।

श्वेत   साँवले  मेघ  हैं,  बरस रहे चहुँ   ओर।

प्रमुदित हैं नर -नारियाँ,आच्छादित घनघोर।।


सरिता  में  क्रीड़ा  करें,लहरे लहर   विशाल।

भँवर   पड़ें   गह्वर   घने,मानो क्रोध उबाल।।

सघन लहर - आक्रोश में,तरणी का बदहाल।

त्राहि-त्राहि   मचने  लगी,पावस करे कमाल।।


बहे  गाँव   जन ढोर भी,विकट चला सैलाब।

रहे न गेह  दुकान  भी,जल आक्रोशित ताब।।

सफल नहीं  शासन  हुआ,आया जब  सैलाब।

धन - जन   बचे न गाँव  में,उमड़े सरि तालाब।।


               एक में सब

सजल  वृष्टि  घनघोर  है, लहर बनीं  सैलाब ।

हरी -भरी    धरती  हुई,  गगन   करे आदाब।।


शुभमस्तु !


15.07.2025●11.15प०मा०

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क्या किया अपराध इसने? [ गीत ]

 343/2025


   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


वृद्ध ये क्योंकर बिठाया

क्या किया अपराध इसने?


पुलिस वाले कुर्सियों पर

शान से तैनात हैं

दूध से वे सब धुले हैं

करते न कोई घात हैं

फर्श पर गुमसुम विचिन्तित

क्या फटा सिया न इसने?


पहनना  गणवेश तन पर

क्या सुशासन भी यही है?

कृषक का अपमान करना

क्या पुलिस को ये सही है?

न्याय ही मिलना उचित है

पी लिया अवसाद इसने?


न्याय की लेकर तराजू

न्याय ही करना जरूरी

स्वाभिमानी आदमी को

उद्गार की हो छूट पूरी

कानून है सबको बराबर

दिन का किया क्या रात इसने?


शुभमस्तु !


15.07.2025●10.15आ०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...