बुधवार, 2 जुलाई 2025

मानसून बरसें घने [ दोहा ]

 326 / 2025

    

[झील,सरोवर,मेघ,चातुर्मास,कछार]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक

मानसून  बरसें  घने, सड़कें  बनती झील।

छाए  बादल मेह के,गगन नहीं अब नील।।

प्रिये नयन की झील  में,डूब गया आकंठ।

मुझे उबारो शीघ्र ही ,बनूँ न जब तक संठ।।


भरे   सरोवर    अंबु   से,  टर्राते   हैं    भेक।

प्रेयसि के  आह्वान  में, त्यागें  सभी विवेक।।

खिले   सरोवर में बड़े,कमल पुष्प   रतनार।

अलि दल मँडराने  लगे, करें  सुमन से प्यार।।


मेघ सघन  आषाढ़ के, गरज रहे चहुँ   ओर।

उधर  वनों  में   टेरते,नाच -  नाच बहु   मोर।।

सुनी मेघ की  गर्जना,कंपित विरहिणि  देह।

दुबकी   गृह-एकांत  में,पास नहीं पति - नेह।।


ध्यान  करें  निज  इष्ट का,  पावन चातुर्मास।

शयन   लीन   हरि धाम  में,लेते पुण्य  प्रवास।।

गणों सहित शिव जी करें,संचालन शुचि सृष्टि।

आए    चातुर्मास  जब, करें   नेह की   वृष्टि।।


अति   उपजाऊ  भूमि है, कहते जिसे  कछार ।

हरे - भरे  तरुवर   खड़े,  छाया  घनी   सवार।।

अमराई    मनभावनी, सरि - कछार के  बीच।

झूले   पड़ते  बाग में,   एक   न  गाँव  नगीच।।


                   एक में सब

बादल  चातुर्मास  के, झील सरोवर    ताल।

करते  धन्य  कछार को, बरस मेघ   संजाल।।


शुभमस्तु !


02.07.2025● 6.30 आ०मा०

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मंगलवार, 1 जुलाई 2025

खुदगर्ज़ दुनिया [ नवगीत ]

 325/2025


   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


किसी को किसी की

चिंता न चर्चा

देखी है हमने

खुदगर्ज़ दुनिया।



अकेला ही आया

अकेला ही जाना

किसी को किसी की

खबर भी नहीं है

ये मेरा ये तेरा

सभी कर रहे हैं

अपना कहें जिसको

जग में कहीं है?

आया जो टेशन

उतर वे गए सब

मुड़कर के पीछे

न देखेगी दुनिया।


शिकवा भी क्यों हो

राहें अलग हैं

चले जा रहे हैं

मुसाफ़िर अकेले

बुरा या भला

जो मिलता है तेरा

कहते यही सब

न मतलब के धेले

पैसे से चिपका है

इंसान सारा

पैसे के परित:

भ्रमती है दुनिया।


मिथ्या है माया की

गठरी ये भारी

अकेले -अकेले

उठानी है सबको

सहारा भी देना

न मंजूर इनको

फिसल जब पड़ोगे

पुकारोगे रब को

न कोई सफ़र में

हमदम तुम्हारा

जीती या मरती है

भुगती है दुनिया।


शुभमस्तु !


01.07.2025●12.15 आ०मा०(रात्रि)

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उगते ही सूरज के [ गीत ]

 324/2025

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उगते ही सूरज के

आशा फिर जाग उठी।


दूर हटा काला तम

गान  करे   झेंपुलिया

जाग गए पंछी सब

भजन करे पिड़कुलिया

प्राची में लगता है

भाषा अनुराग उठी।


सूखा है एक पेड़

झाड़ों के बीच खड़ा

फुनगी पर बैठा खग

 ज्योतिर्मय रूप बड़ा

धीरे-धीरे पूरब को

तमसा भी भाग उठी।


बहती है हवा सहज

हिलती हैं डाली सब

उजला है अंबर भी

सोते हैं तारे अब

बोल पड़ा उल्लू भी

देखो यह आग उठी।


शुभमस्तु !


30.06.2025 ●11.30 प०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...