372/2025
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मलीदे से भला कौन सुपरिचित नहीं है। ऐसा भी कोई है ,जो मलीदा खाना नहीं चाहता।शायद नहीं। अब यह अलग बात है कि कौन किस तरह से मलीदा खाता है। मलीदा भी खाने वाले और कमाने वाले की श्रेणी के अनुसार अलग -अलग प्रकार का होता है।कोई अपने परिश्रम और गाढ़े पसीने की कमाई से अर्जित मलीदा खाता है तो कोई किसी अन्य के परिश्रम और पसीने की कमाई का मलीदा खाता है। जैसे किसी का निकम्मा बेटा आजीवन बाप की कमाई का ही मलीदा खाना चाहता है।वह स्वयं कोई काम न करके परिजीवी बनकर जीना चाहता है। वह परिजीवी क्या परिपोषी और परिचूषक जीवन जीने में विश्वास करता है। यह दूसरे के पसीने से बने मलीदे का खाना हुआ।
मलीदे - मलीदे की क्वालिटी का यह अंतर उसके स्वाद में भिन्नता भर देता है।जो माधुर्य और सचिक्कणता स्वार्जित मलीदे में होती है,वह परार्जित मलीदे में कदापि नहीं हो सकती।किसी चोर को चोरी का गुड़ भले ही ज्यादा मीठा लगे ,किंतु स्वार्जित मलीदे की कुछ और ही बात है। कार्यालयों में अनेक बाबू और अधिकारी कोई काम नहीं करना चाहते। वे उल्लू बनकर मलीदा खाना चाहते हैं। चाहते ही नहीं ,खा भी रहे हैं,खा ही रहे हैं। बॉस द्वारा काम की कहे जाने पर कह देते हैं कि उन्हें अमुक काम आता ही नहीं,इसलिए किसी और से करा लें। विवश होकर अधिकारी को वह कार्य किसी अन्य से निष्पादित कराना पड़ता है। बात वहीं पर आकर टिकती है कि रहो 'लुल्ल के लुल्ल और तनख्वाह पाओ फुल्ल।' उनका तो यह जीवन सूत्र ही है कि 'जो करेगा टेंशन,उसकी बीबी पाएगी पेंशन।'
मलीदे वाली यह बात जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रभावी होती है। घर,परिवार,समाज,सरकारी दफ्तर, राजीनीति आदि भला ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जहाँ मलीदा कबड्डी न खेलता हो। यह सबका प्रिय जो है।मलीदा चाहिए ,चाहे जैसे मिले।हर घर -परिवार में जितने सदस्य बेटे ,भाई,बहनें,भाभियाँ आदि होती हैं ,वे सभी कर्मप्रिय नहीं होतीं। बड़ी बहू सोचती है कि छोटी ही घर में झाड़ू लगा ले, मैं तब तक एक मीठी- मीठी झपकी ही ले लूँ। छोटा लड़का यही उम्मीद करता है कि बड़ा भाई ही सारा काम- काज करता रहे,उसे कुछ भी न करना पड़े। यही स्थिति बहनों की भी होती है। प्रत्येक घर का यह अलिखित संविधान है कि जो सदस्य किसी काम का नहीं होता ,अथवा सबसे निकम्मा होता है ,चूल्हे की पहली सिंकी रोटी वही खाता है और जो घर का मुखिया पिता माता या अन्य हैं ; उसे सबसे बाद में रोटी मिलती है। कभी -कभी तो ऐसा भी होता है कि गृहलक्ष्मी को खाने के लिए सब्जी- दाल या रोटी ही नहीं बचती। मलीदामार कोई और ,और पसीना बहाए कोई और। फिर शिकायत यह रहती है कि सुधार कैसे हो। घर का उद्धार कैसे हो ?
जो बात घर -परिवार के सम्बंध में सत्य है,वही इस देश के दफ्तरों और सरकारों के लिए भी सत्य है। हर व्यक्ति किसी अन्य के मलीदे में हाथ साफ करना चाहता है। यह अकर्मण्यता कहीं न कहीं दिल के किसी कोने में छिपी बैठी है। हर्रा लगे न फिटकरी ,रंग चोखा ही आए। अपने ही कर्म से बचने और पलायन की यह प्रवृत्ति ईमानदारी से कठोर श्रम करने वालों के मलीदे पर हाथ साफ करती है। काम कम से कम करना पड़े और मलीदा ज्यादा से ज्यादा मिले,यह आम स्वभाव नहीं है।जो करके खाते हैं,वे स्वार्जित मलीदे का स्वाद जानते हैं। उन्हें अपने कर्म का फल भी सुफल के रूप में मिलता है।
मलीदा वही , पर खाने वालों के लिए स्वाद अलग -अलग।यह तथ्य मलीदे पर नहीं ,व्यक्ति -व्यक्ति पर निर्भर करता है। मलीदे में कमियाँ वही खोजता है,जो उसे उपार्जित नहीं करता। किसी के लिए उसमें घी कम है,तो किसी के लिए मिठास कम है,किसी के लिए उसमें यदि सूखे मेवे भी पड़ जाते तो मज़ा ही आ जाता ! स्व श्रम से उपार्जित की गई सूखी रोटी भी किसी मलीदे से कम नहीं होती ; वही उसे सुखी बनाती है। मलीदाभक्षियों की यह वार्ता किसी के लिए कितनी मधुर हो सकती है और किसके लिए कितनी अलोनी,कुछ कहा नहीं जा सकता। धन्य हैं वे लोग जो स्व श्रम से अर्जित सूखे टिक्कड़ों को भी मलीदे से कम नहीं समझते। ऐसे ही लोगों से यह समाज और देश धनी है और स्वनाम धन्य भी।आओ हम सब अपने अपने मलीदे की मिठास का आनंद लें और 'देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जीभ' की उक्ति को चरितार्थ करें।
शुभमस्तु !
26.07.2025● 9.30 आ०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें