347 /2025
© शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
जितना सोचा
कहा न उतना
अच्छा ही है।
मन तो उड़ता
रहे गगन में
किंतु लौट धरती पर आता
किले हवाई
कभी बनाए
कभी ध्वस्त पल में हो जाता
कब मन की
सब पूरी होती
अच्छा ही है।
कौन न चाहे
उडूँ गगन में
सबसे ऊपर
सबको मैं
नीचा दिखलाऊँ
रहूँ न भू पर
बिना पंख
उड़ता मन पागल
अच्छा ही है।
मेरा ही बस
अच्छा हो सब
अशुभ अन्य का
खुश होता है
उछले नभ में
अजब वन्यता
कुछ फीसद ही
पूरा होता
अच्छा ही है।
शुभमस्तु !
17.07.2025●10.25आ०मा०
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