शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

इसको उसको ताके [ नवगीत ]

 349/2025

     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मैं ही 'मैं' को जान न पाया

इसको - उसको ताके।


छलनी में थे छेद हजारों

चिमटा से कर बैर

कहती छेद बंद कर अपना

नहीं अन्यथा खैर

मिली ख्याति ताकत पैसा पद

चले वक्र इतराके।


विगत योनियों में तू

भैंसा मच्छर शूकर श्वान

अहंकार में इठलाया तन

आज बना इंसान

संस्कार अब भी ढोरों का

मारे वृथा ठहाके।


तीन हाथ की तेरी दुनिया

फिर भी बड़ा गुरूर

समझे कीट मनुज को नन्हा

तन में बढ़ा सुरूर

गिनी-चुनी साँसों का खेला

चौरासी में जाके।


शुभमस्तु !


17.07.2025●1.00प०मा०

                ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...