रविवार, 20 जुलाई 2025

मूल्यांकन [ व्यंग्य ]

 356/2025


               

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति का एक मूल्य होता है।किंतु विडंबना की बात है कि उनका मूल्यांकन वह व्यक्ति करता है ,जिसका अपना कोई मूल्य नहीं होता।ऐसा लगता है कि उस स्वयंभू मूल्यांकनकर्ता के पास ही किसी की अच्छाई और बुराई को मापने के मानक हैं। ये मानक उसकी अपनी बुद्धि ,मानसिक स्तर और उसकी अपनी सोच की तराजू पर तोले हुए होते हैं।उससे किसी ने कहा नहीं है कि वह किसी का मूल्यांकन करे।पर खाली दिमाग शैतान का घर ,क्या करे बेचारा।खाली बैठा बनिया अपने बांटों को ही तोलता रहता है।इसी प्रकार एक निर्मूल्य व्यक्ति देश ,समाज,धर्म,राजनीति, चरित्र आदि का बहुआयामी मूल्यांकनकर्ता बन जाता है कि जैसे देश ने उसे इसी काम के लिए तैनात किया हो।

जिसका अपना कोई मूल्य है,उसके पास अवकाश ही नहीं है कि वह देश और दुनिया का आकलन करे।जिसमें जितनी बुद्धि रहेगी,उससे इतर तो कुछ कर नहीं सकता।मूल्यवान तो चुपचाप अपना कर्तव्य निर्वाह करता है,वह बड़बड़ाता नहीं है।धड़धड़ाता नहीं है। वह शांत है, दूसरों के सुख से दुःखी नहीं।उसमें व्यर्थ की हलचल नहीं।उसमें छल बल नहीं। वह निर्बल भी नहीं।वह शांत सागर की तरह प्रशांत है। वह निरमूल्यों की तरह उद्भ्रांत नहीं। सूरज सितारों का मूल्यांकन नहीं करता। यद्यपि सितारे कितने ही अधिक टिमटिमाएँ।परंतु वह शांत अपने यात्रापथ का अनुगमन करता है।

यह प्रसिद्ध कहावत भी सत्य है कि अधजल गगरी छलकत जाय।भरा हुआ घड़ा कभी छलकता नहीं है।यही स्थिति निर्मूल्य मूल्यांकन कर्ताओं की होती है।वे पान की दुकान, कॉफी हाउस, स्टेशन, चौपाल, बस,ट्रेन आदि में पूरे देश की राजनीति और नेताओं का वर्तमान और भविष्य दर्शन करते हुए देखे जाते हैं।उनके सबके अपने-अपने भगवा,हरे, नीले,काले,पीले मानक हैं, जिनकी छाया में अपने छप्पर छाते रहते हैं।

नंगा खुदा से बड़ा इसीलिए होता है कि उससे कोई क्या ले लेगा।कोई उसका कर भी क्या सकता है।इसीलिए नंगा नहाए तो क्या पहने और क्या निचोड़े।यही कारण है कि वह सबका मूल्य आँकता है।उसे कोई नहीं आँकता,क्योंकि उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं ,जिसे आँका जा सके। नंगा किसी से नहीं डरता, सब उससे ही डरते हैं।वह एक मिनट में किसी की भी उतार के उसे नंगा कर सकता है,पर नंगे को और भी क्या  नंगाओगे? उसकी नग्नता ही उसका वास्तविक मूल्य है।वही उसका मानक है।उसकी जीभ कमान है। सबके ऊपर उसका संधान है।

चुगलखोर कोई भी हो सकता है :स्त्री भी पुरुष भी। पर हर गली मोहल्ले में ,नुक्कड़ पर,घूरे या पनघट पर ,सास सास और बहू के बहू से सम्मिलन पर ;  कौन सर्वाधिक रूप से नुक्ताचीनी करता है,यह किसी से छिपा नहीं है। अब भला मैं ही किसी एक जिंस (प्रजाति) का नाम लेकर दोष अपने सिर पर  क्यों  लूँ। मैं किसी का मूल्यांकन नहीं कर रहा ,पर सुबह से रात होने तक प्याज ,चीनी,हल्दी,तेल,हरी मिर्च ,जामन माँगने से लेकर जो मूल्यांकन होता है,  वह जगत प्रसिद्ध है।पानी में आग लगाना शायद इसी को कहते होंगे।यह नुक्ताचीनी उन्हें बड़ी ही आनन्दप्रद होती है।समाज जैसे चल रहा था,वैसे ही चलता भी रहता है। कानों कान आग इस मोहल्ले से उस मोहल्ले तक ,इस छोर से उस छोर तक, इस गाँव से उस गाँव तक ऐसे फैल जाती है,जैसे जेठ के महीने में आग।

मूल्य  यहाँ  जिसका  नहीं,वहीं जताएँ  मोल।

जीभ - तराजू  तोलते, मूल्यांकन  के   बोल।।


जिसका    कोई   मूल्य    है, बैठा है चुपचाप।

ग्रीवा में  निज  झाँक  लो, मितवा अपने आप।।


जन -जन  की हर बात का ,जान रहे वे  राज।

फैला खुजली जीभ की,वितरित करते खाज।।


चुप  रहना  आता  नहीं, करें अन्य का  मोल।

लिए   तराजू  जीभ   की, देश   रहे वे   तोल।।


कैसी    यही  विडंबना,मूल्य रहित जो   लोग।

वही   मूल्य   अंकन  करें,  बढ़ें  देश में  रोग।।


शुभमस्तु !


20.07.2025● 10.45 आ०मा०

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