रविवार, 20 जुलाई 2025

दल बनाम दल - दल [ व्यंग्य ]

 355/2025


              

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

जिसे हिंदी वाले दल के नाम से नहीं  'पार्टी' के नाम से जानते हैं,उसे ही वे ही लोग 'दल' के नाम से सुपरिचित हैं। क्या ही बढ़िया शब्द चुने हैं 'पार्टी' और 'दल'।जिनका तात्पर्य प्रायः मिलता -जुलता ही है। 'पार्टी' वह है जो 'पार्ट'  - 'पार्ट' कर दे,अर्थात टुकड़े -टुकड़े यानी खंड -खंड कर दे।जहाँ भी जाए,टुकड़े कराए।संगठन और एकता को तुड़वा दे ,वही 'पार्टी'  पार्टी है।अब बात की जाए  'दल' की।यह तो और भी बहुरूपिया है।जैसे किसी पेड़ के दल अर्थात पत्ते। किसी पेड़ के पत्ते भी खंड- खंड अर्थात  अलग -अलग ही होते हैं।तो दल का एक काम टुकड़े ,खण्ड या अलगाव पैदा करना भी हुआ। समाज और देश को जो खंडित और बिखराव की ओर ले जाए ,वही दल है।

'दल' जब बहुत सारा एकत्र हो जाय तो दल-दल बन जाता है।इस दल-दल में जो फँसा ,वह फँसा का फँसा ही रह गया।वह फिर कभी हँसा ही नहीं और जो हँसा ही नहीं ,वह हँसा भी नहीं सकता। उसे सब रोते हुए हुए ही भाते हैं,सुहाते हैं। अर्थात वह किसी को खुश नहीं देख सकता। दल का एक सम्बन्ध दलन से भी है। वह सबको दलने का आकांक्षी है।वह सबको कूट- पीस करने चूर्ण - विचूर्ण करना चाहता है।वह नहीं चाहता कि उसके दलन से कोई बच पाए। दल के दलन से जब तक दलित अवस्था में न पहुँचा ले ,तब तक उसे विराम है और न ही विश्राम।सहित्य कोष में 'दल' नाश का पर्याय भी है।

'दल' किसी बड़ी वस्तु का एक पक्ष ,हिस्सा या अंश भी है। और जो स्वयं में एक अंश है,वह पूर्ण कैसे हो सकता है। जो स्वयं अपूर्ण है,उससे पूर्णता की अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है। वह पहले अपने अंश को को ही सर्वांश या पूर्णांश कर ले,तब किसी अन्य की पूर्णता की सोचे! 

मैं किसी दल का नाम नहीं ले रहा।नाम लेने से भला होगा भी क्या?मुझे किसी के किसी दल का भाव नहीं बढ़ाना।जब बढ़ाना ही नहीं तो घटाना भी नहीं।क्योंकि मुझे स्वयं में किसी भी दल से कोई भी प्रत्यक्ष या परोक्ष सरोकार नहीं। मेरे सरोकार रखने अथवा न रखने से होगा भी क्या ? मुझे किसी दल के दालान में अपनी खटिया भी नहीं बिछानी।

आजकल दलभक्ति का जमाना है। दल भक्तों के दल के दल इधर से उधर और उधर से इधर दोलायमान हैं। जिनके अपने - अपने नारे हैं,नारियाँ भी हैं। झंडे हैं ,झंडों की  झाड़ियाँ भी हैं। प्रत्येक दल का अपना एक अतीत है,वर्तमान है। जब ये दोनों हैं,तो भविष्य भी होगा। अब मैं अकिंचन कोई भविष्यवक्ता तो नहीं, इतना अवश्य है कि दलों की कलों में देश सुरक्षित नहीं। सबको एक ही चीज चाहिए। जब चाही जाने वाली चीज एक ही है,तो जूतों में दाल- वितरण होना ही है। हो भी रहा है। कोई रायता फैलाता है तो कोई  दल की दाल का भरपूर स्वाद अस्वादित करता है।देश , दल और दलदल सबकी राशि भी एक ही है। वे भले अपने को दल दरवेश कहते चीखते रहें,पर उन्हें चाहिए स्वर्ण सिंहासन ही। सिंहासन मिलने के बाद उनके दिल की दलकन भी आगामी पाँच साल के लिए और भी एक्सप्रेस हो जाती है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि दल एक दुलत्ती से कम नहीं है।इससे पीछे- पीछे चलने वालों और वालियों को सावधान रहना है।पता नहीं कि कब दुलत्ती पड़े और पिछलग्गू चारों खाने चित्त हो जाँय।दलों का दलदल ही ऐसा है,इसमें जो घुसा वह फँसा। 'दल' और 'पार्टी' के बहुत सारे मतलब समझ गए होंगे कि इन दलों की दास्ताँ क्या है ! जिसने रखा इनसे वास्ता ,उसका नपा रास्ता। भूल गया दाल - रोटी मिला भी नहीं नाश्ता। इसलिए शांति से जीना है तो दल की दलबंदी से मुक्त रहें ।देश आपका है,उसकी सेवा करें और मनुष्यता की रक्षा करें।देश सेवा और समाज सेवा कुर्सी से नीचे रहकर भी की जाती है,की जा सकती है। देश सेवा के लिए न दल चाहिए और न ऊँची कुर्सी ही चाहिए।इसलिए किसी दलदल में न फँसें ,इसी में कल्याण है।

शुभमस्तु !

20.07.2025●7.30आ०मा०

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