401/2022
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✍️ शब्दकार ©
🪁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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-1-
बाजरे की कलगी
बतियाती रही
रात भर,
पछुआ से,
न सोई
न सोने दिया,
पोर - पोर छुआ।
-2-
रात में भी
न रुकी,
न मंथर चली,
जंगल के बीच
बहती रही नदी,
इसी तरह
अनवरत
बीती सदी।
-3-
उदास है आज
गाँव का
पुराना कुँआ,
ऐसा तो अवश्य
कुछ हुआ,
क्या बता पाएगा कुँआ,
नहीं लौटेंगे
अब वे पुराने दिन,
नहीं लौटेगी
चहल-पहल,
चूड़ियों की खनक,
पायलों की रुनझुन,
सब कुछ है नश्वर।
-4-
बड़ी -बड़ी
लंबी -चौड़ी
व्यस्त सड़कें,
डामर से डमराई,
कुछ कंक्रीट से
सँवराई,
एक भी नहीं है
छायादार पेड़,
पर्यावरण की
होती रेड़।
-5-
नारों में
जिंदा है पौधारोपण,
काटे जा रहे वृक्ष
जंगल में निरंतर,
सूनी हैं सड़कें,
आदमी पेड़ जंतु जीव
क्यों न तृषा से
तड़पे?
🪴शुभमस्तु !
06.10.2022◆4.45 प.मा.
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