गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

पाँच क्षणिकाएँ 🪁 [ अतुकान्तिका ]

 401/2022

   

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✍️ शब्दकार ©

🪁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

बाजरे की कलगी

बतियाती रही 

रात भर,

पछुआ से,

न सोई

न सोने दिया,

पोर - पोर छुआ।


                         -2-

रात में भी

न रुकी,

न मंथर चली,

जंगल के बीच

बहती रही नदी,

इसी तरह

अनवरत

बीती सदी।


                         -3-

उदास है आज

गाँव का

पुराना  कुँआ,

ऐसा तो अवश्य

कुछ हुआ,

क्या बता पाएगा कुँआ,

 नहीं लौटेंगे

अब वे पुराने दिन,

नहीं लौटेगी

चहल-पहल,

चूड़ियों की खनक,

पायलों की रुनझुन,

सब कुछ है नश्वर।


                         -4-

बड़ी -बड़ी

लंबी -चौड़ी

व्यस्त सड़कें,

डामर से डमराई,

कुछ कंक्रीट से

 सँवराई,

एक भी नहीं है

छायादार पेड़,

पर्यावरण की

होती रेड़।


                         -5-

नारों में

 जिंदा है पौधारोपण,

काटे जा रहे वृक्ष

जंगल में निरंतर,

सूनी हैं सड़कें,

आदमी पेड़ जंतु जीव

क्यों न तृषा से 

तड़पे?


🪴शुभमस्तु !


06.10.2022◆4.45 प.मा.

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