बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

कैसा कलयुग आया! ⛳ [ गीत ]

 398/2022

  

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

रावण  जला  रहे रावण को,

कैसा कलयुग आया।


गई  खेत  में   एक  बालिका,

छाया  घना अँधेरा।

ताक - झाँक  में  बैठे  रावण,

झटपट उसको घेरा।।

कर डाली  मनमानी।

जबरन खींचातानी।।

नहीं तनिक भी दया क्रूर को,

घर में मातम छाया।


कागज़ के  पुतले   को  जिंदा-

रावण यहाँ  जलाता।

दानव -  दल  हो हर्षित  सारा,

ताली खूब  बजाता।।

तामसता   है    छाई।

मन में बसा कसाई।।

छिनरे बजा रहे  मुख- सीटी,

छिनरपने की माया।


झूठी  रस्म  अदा  करने  की,

करता  दानव - लीला।

तीर - कमान   पटाखे    लेता,

अधोअंग   है  ढीला।।

हया न मन में  आई।

हँसते लोग - लुगाई।।

वर्ष  - वर्ष  दर रावण  जलता,

अमर हुई है काया।


घर - घर रावण दर -दर लंका,

एक राम क्या कोई?

सड़कों ,गलियों   में  हैं दानव,

मानवता   है  सोई।।

लुटी देश  की अबला।

क्लीव बजाते तबला।।

'शुभम्'असत पर कहीं सत्य का,

क्या झंडा लहराया?


🪴शुभमस्तु !


05.10.2022◆2.30 पतनम मार्तण्डस्य।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...