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✍️ शब्दकार ©
🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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रावण जला रहे रावण को,
कैसा कलयुग आया।
गई खेत में एक बालिका,
छाया घना अँधेरा।
ताक - झाँक में बैठे रावण,
झटपट उसको घेरा।।
कर डाली मनमानी।
जबरन खींचातानी।।
नहीं तनिक भी दया क्रूर को,
घर में मातम छाया।
कागज़ के पुतले को जिंदा-
रावण यहाँ जलाता।
दानव - दल हो हर्षित सारा,
ताली खूब बजाता।।
तामसता है छाई।
मन में बसा कसाई।।
छिनरे बजा रहे मुख- सीटी,
छिनरपने की माया।
झूठी रस्म अदा करने की,
करता दानव - लीला।
तीर - कमान पटाखे लेता,
अधोअंग है ढीला।।
हया न मन में आई।
हँसते लोग - लुगाई।।
वर्ष - वर्ष दर रावण जलता,
अमर हुई है काया।
घर - घर रावण दर -दर लंका,
एक राम क्या कोई?
सड़कों ,गलियों में हैं दानव,
मानवता है सोई।।
लुटी देश की अबला।
क्लीव बजाते तबला।।
'शुभम्'असत पर कहीं सत्य का,
क्या झंडा लहराया?
🪴शुभमस्तु !
05.10.2022◆2.30 पतनम मार्तण्डस्य।
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