455/2022
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✍️ शब्दकार ©
🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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इधर सृजन तो उधर मरण है।
प्रकृति का रुकता न चरण है।
अटल नियम है परिवर्तन का,
गतिमयता में हर कण-कण है।
भ्रम में जीता सदा आदमी,
ज्ञान नहीं कैसा तृण-तृण है।
अहंकार के मद में पागल,
नहीं सही का करे वरण है।
क्या सोचा दसकंधर तूने,
क्या सीता का उचित हरण है।
कितना भी ऊँचा हो जाए,
होता गिरि का सदा क्षरण है।
'शुभम्'शांति सबको हितकारी,
फिर भी क्रूर चाहता रण है।
🪴 शुभमस्तु !
30.10.2022◆3.45
पतनम मार्तण्डस्य।
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