413/2022
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✍️ शब्दकार ©
⛳ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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पूछने पर उन्होंने अपना नाम प्रकाशानंद बताया।उस समय मैं छठी कक्षा का छात्र था।गाँव में घर के बाहर अपने खेत में मेरे बाबा स्व.तोताराम जी ने अपने बगीचे में रेलवे क्रीपर की सघन हरी बेलों और चिलम के आकार के बैंजनी पुष्पों से आच्छादित बंगला बनाया हुआ था। जिसकी पीछे वाली पश्चिमी दीवाल को छोड़कर शेष तीनों दीवालों में तीन बिना किवाड़ों के दरवाजे और ईंटों से निर्मित जालीदार दीवालें थीं।इसे ही हम बंगला कहते थे।शेष बगीचे में अशोक,कटहल, संतरा, आम,शरीफा, खिरनी,अंजीर फालसेव,केला आदि के साथ गेंदा, जीनिया,बेला ,जाफरी, नौबजीया,वेला,गुलाब आदि की फुलवारी लगाई जाती थी। इस बाग की देखभाल ,पौध उगाने ,लगाने,सिंचाई, निराई ,गुड़ाई आदि कार्यों में बाबा औऱ मैं लगे रहते थे। पिताजी अपने कृषि कार्यों में ही व्यस्त रहते थे।
एक दिन संध्या काल में विगत कई वर्षों से आते जाते रहने वाले स्वामी दयानंद जी के साथ एक युवा सन्यासी का पदार्पण हुआ ,तो उनका मेरे पूरे परिवार ने स्वागत किया।गाँव के सत्संग प्रिय लोगों को ज्ञात हुआ ,तो वे उनसे दर्शनार्थ आने लगे। फिर क्या नित्य ही रात को सत्संग होने लगा और दोनों सन्यासी हमारे उसी बँगले में रहने लगे।दिन में वे जंगल या अन्य स्थानों पर भ्रमण को निकल जाते औऱ सूर्यास्त के बाद वापस आ जाते।रात के भोजन के बाद सत्संग औऱ कीर्तन नित्य का कार्यक्रम बन गया था।
उस समय मेरी अवस्था यही कोई तेरह -चौदह वर्ष की रही होगी। मैं उनसे बहुत हिल मिल भी गया था। पूछने पर उन्होंने मुस्कराते हुए बताया कि वे हाई स्कूल में पढ़ रहे थे, कि अचानक परीक्षा को छोड़कर घर का परित्याग कर दिया। सिर का मुंडन कराया ,गुरु दीक्षा ली औऱ सन्यासी बन कर निकल पड़े।इससे अधिक अपने विषय में उन्हीने कुछ भी रहस्योद्घाटन नहीं किया। और अधिक पूछना भी उचित नहीं समझा गया।कुछ दिन रुकने के बाद सुबह देखा कि बाबा जी विदा हो चुके हैं औऱ उनके कुछ गेरुआ वस्त्र वहीं पर छोड़ दिये गए हैं।
अगले वर्ष उनका पुनरागमन हुआ। तो मैंने उनसे इस तरह चले जाने का कारण पूछा। तो उन्होंने बताया कि यदि मैं बताकर जाऊँगा तो आप सब लोगों को मोह होगा और आप औऱ रुकने का आग्रह करेंगे।इसलिए रात में चार बजे के आसपास जब सब लोग सोए हुए रहते हैं, मैं चला जाता हूँ। हमने उन्हें ये भी बताया कि आप जो अपने वस्त्र छोड़ गए थे ,वे हमने अन्य महात्माओं को दे दिए। उन्होंने कहा -ठीक किया।
कुछ ही वर्षों में वे एक सन्यासी से राजयोगी हो गए थे। और अब हाथ में चमचमाती हुई घड़ी बाँधे हुए समय देखकर प्रवचन करने लगे थे। वस्त्र भी सूती से चमकते हुए रेशम में बदल गए थे। दाढ़ी भी बढ़ा रखी थी। वे आए तो मैं अपने मित्रों के साथ अपने विशाल गूलर वृक्ष के नीचे हरियल डंडा खेल रहा था। अचानक प्रकट हो गए हों जैसे वे! दाढ़ी में मुस्कराता हुआ दिव्य चेहरा देखकर एक क्षण को मैं चोंका।किन्तु पल भर में ही पहचान गया। तभी वे बोले - पहचाना, मैं कौन हूँ? मैंने प्रत्युत्तर में कहा - हाँ, पहचान लिया। आप स्वामी प्रकाशानंद जी हैं। वे प्रसन्न हुए और मैं उन्हें अपने बँगले पर ले आया।
स्वामी जी पंजाब आदि विभिन्न प्रान्तों की यात्रा से आये थे।और अब कालीदह वृंदावन में आश्रम बनाकर अन्य सन्यासियों के साथ रहते थे।जहाँ उन्होंने बहुत सी गायें पाली हुई थीं। उन्होंने पंजाबी भाषा भी सीख ली थी। वे लिखना ,पढ़ना औऱ बोलना अच्छी तरह जान चुके थे। उन्होंने मुझे भी पंजाबी भाषा सिखाई थी।तो मैं भी पंजाबी लिपि में कुछ लिखने का अभ्यास करने लगा था।बाद में अभ्यास छोड़ देने से ,विस्मृत हो गई। उनका मेरे ऊपर विशेष स्नेह था।
मैं चौथी कक्षा(ग्यारह वर्ष) से ही कविताएँ लिखने लगा था। उस समय तक मैंने प्रेमचंद, कबीर,सूरदास, हरिऔध, पंत ,निराला, मीरा,बिहारी,घनानंद, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ,श्याम सुंदर दास आदि कवियों और लेखकों के अनेक ग्रंथों का स्वधायाय कर लिया था। जब मैंने अपनी लिखी हुई काव्य रचनाएँ स्वामी जी को सुनाईं और दिखाईं तो वे बहुत प्रसन्न हुए और एक सुझाव दिया कि अभी तुम बालक हो ,इसलिए अभी मत लिखो ।जब बड़े हो जाओ और जीवन का अनुभव प्राप्त कर लो,तब लिखोगे तो ज्यादा अच्छा रहेगा। अभी परिपक्वता नहीं आ पायेगी। बात तो उनकी उचित थी,किन्तु जो यात्री अपनी यात्रा पर निकल पड़ा हो, फिर वह लौटता नहीं है। यही विचार करके मेरी लेखनी माँ सरस्वती के शुभ अशीर्वाद से चल पड़ी तो चल ही पड़ी।फिर उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।और आज भी माँ वीणावादिनी मेरे साथ हैं।उनका वरद हस्त मेरे सिर पर एक छत्रवत मेरा आच्छादन है। स्वामी प्रकाशानंद जी की सलाह को मैं अन्यथा नहीं मानता। मानता हूँ कि साक्षात माँ के एक प्रिय भक्त ने आजीवन साहित्य सृजन करने का शुभ आशीष प्रदान किया हो। पूज्य स्वामी जी की वह निर्मल और दिव्य छवि मेरे मानस पटल से दूर नहीं होती।
🪴 शुभमस्तु !
13●10●2022 ■11.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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