शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

छलनी ❄️ [ कुंडलिया ]

 402/2022

        

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

❄️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् '

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                         -1-

छलनी में दीपक दिखा,किया नारिव्रत  भंग।

भ्राताओं ने छल किया,निज भगिनी के संग।

निज भगिनी के संग, वियोगिनि पति से नारी

देख न  पाई चाँद,दुखी तन मन   से  भारी।।

शुभं न भूली आज,वही छल-बल की करनी।

छल से ऐसा प्यार,छली जो पहले   छलनी।।


                         -2-

छलनी छल की वाहिनी, छलके छल-आभार

खंडित  पातिव्रत हुआ, लुटा प्रेम -  आगार।।

लुटा   प्रेम - आगार,  नहीं  भाई  ने   सोचा।

छल से दिखला दीप,लगा भगिनी को लोचा।

'शुभम्'नहीं है क्षम्य,किसी भाई  की  करनी।

नाम हुआ बदनाम,कही जाती वह  छलनी।।


                         -3-

छलनी के छल छिद्र का,ओर नहीं  है छोर।

छल-छल कर छलनी बनी,शेष नहीं है कोर।

शेष  नहीं  है  कोर,  छुद्र  छल छंदों    छाई।

करवा  की शुभ चौथ, मनाती बहना   माई।।

'शुभम्'न पीट लकीर,नहीं अब तेरी   रहनी।

जागरूक है नारि,छले मत अब तो छलनी।।


                         -4-

छलनी में ही क्यों दिखे,पति मुख मोही चाँद।

छोड़ छंद छल छलनि के, छिप मेघों की माँद

छिप मेघों की माँद,देख मुख बिन ही छलना

करे धुंधलका  दूर, नहीं अब धोखा  चलना।।

'शुभम्'बदल लें सोच,बीच की बाधा  हटनी।

हट पति-पत्नी मध्य,तार की झिंझरी छलनी।


                         -5-

छलनी के छल का करें,भ्रम अब सारा  दूर।

दर्शन  कर पतिदेव  का,हर नारी    भरपूर।।

हर   नारी   भरपूर, अंधता युगल   मिटाए।

करके ज्योति प्रकाश,नया युग गृह में लाए ।

'शुभम्'दीप से दीप, जलाकर बन सद घरनी।

मोह  झूठ  से त्याग, नहीं अपनाए  छलनी।।


🪴 शुभमस्तु !

07●10●2022◆ 12.45प.मा.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...