435/2022
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✍️ व्यंग्यकार ©
👩👩👦👦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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'चुगलानंद' शब्द से आप कहीं यह मत समझ लीजिए कि यह कोई श्री श्री 108 चुगलानंद महाराज हैं।जिस प्रकार अपने यहाँ साहित्य के क्षेत्र में पहले नव रस हुआ करते थे, अब दस रस होते हैं। जिह्वा - रस के पास मात्र गिनती के छ: रस हैं,उसी प्रकार संसार के अनेक क्षेत्रों में रसों की संख्या भी पृथक् -पृथक् है।साहित्य,जिह्वा, राजनीति,धर्म, अधर्म, पाप,पुण्य के विविध क्षेत्रों की तरह ही समाज के क्षेत्र में भी अनेक रस हैं। जिनकी निश्चित संख्या के लिए संप्रति शोध कार्य प्रगति पर है।यहाँ मात्र इतना जान लीजिए कि कि यह 'चुगलानंद' इसी खेत की भरपूर उपज है।
'चुगलानंद' की व्यापक गहनता में उतरने पर बहुत कुछ ज्ञानवर्द्धन होता है।'ज्यों- ज्यों गहरे जाइए त्यों -त्यों मोती पाँइ' कथन के अनुसार आप तो बस इसकी गहनता में अवगाहन करते जाइए। सबसे पहले आप यह जानने की जिज्ञासा में उत्सुक होंगे कि यह 'चुगलानंद' पाया कहाँ जाता है? भगवान मिथ्या वचन न बुलवाए तो सत्य तो यही है कि जनानियाँ की जिह्वा पर उत्पन्न होकर उसी में घुल-मिल जाता है। चूँकि यह होली, दिवाली, दशहरा आदि की तरह एक सामाजिक त्योहार अर्थात रस है,इसलिए अकेले -अकेले यह रसानुभूति नहीं कराता।इसका भरपूर आनन्द तभी मिलता है, जब न्यूनतम दो जनी तो हों ही।इससे अधिक हों तो उसका सामाजिकीकरण हो जाता है। ऐसा नहीं हैं कि जब जनी दो ही हों तो आनन्द की सीमा कुछ कम होगी।बल्कि बढ़ी हुई ही होती है। क्योंकि दो जनियों के चार कानों में जाकर यह द्विगुणित ही नहीं अनन्त गुणित हो जाता है।उसका चरमोत्कर्ष शब्दों में वर्णनातीत है। 'चुगलानंद' के अंत में लगाया जाने वाला सम्पुट भी बड़ा ही क्षीणकाय और अशक्त होता है। वह है "किसी से मत कहना" अथवा "किसी औऱ को मत बताना"। और मजे की बात यही है कि हर जनी अगली दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी औऱ इसी प्रकार हजारवीं लाखवीं जनी को यही मंत्र देकर अपनी बात की इतिश्री करती है। बात आगे बढ़ती रहती है, औऱ च्वंगम की तरह जितना चुभलाओ उतना रस बढ़ जाता है। इस प्रकार 'चुगलानंद' जिह्वांतरणीय है।अर्थात यह एक जीभ से हजारों लाखों जिह्वाओं की यात्रा करता हुआ मौन रहता है।एक बार अपनी यात्रा का श्रीगणेश होने के बाद विश्व नहीं तो देश भ्रमण पर निकल जाता है।
आपकी एक जिज्ञासा यह भी हो सकती है कि चुगलियाने के शुभ लाभ की पात्रा जनी ही होती हैं या जन भी इसे प्राप्त कर पाते हैं अथवा नहीं? इस सम्बंध में यही कहूँगा कि इस रस में रुचि लेने वाले जनों की संख्या बहुत ही कम होती है।ऐसा नहीं है पुरुष वर्ग इससे पूर्णतः वंचित होता हो ।कतिपय विरले ही भाग्यशाली हैं, जो इस लाभ को प्राप्त कर पाते हैं।
आपकी बिना जिज्ञासा के ही इतना ज्ञान वर्द्धन करना भी व्यंग्यकार अपना धर्म समझता है कि यह 'चुगलानंद' प्राप्त करने के मुख्य स्थान कौन-कौन से हैं? तो आप जान लें कि शहरों में प्रातः कालीन भ्रमण की पवित्र वेला से शुभ मुहूर्त भला क्या हो सकता है! यहाँ घूमकर ,बैठकर, खड़े होकर, चलते - चलते आदि विविध स्थितियों में 'चुगलानंद' का रस पान किया जा सकता है। इसी प्रकार किसी के घर से चाय की पत्ती,धनिए की पत्ती, कटोरी भर चीनी, प्याज, हरी मिर्च, अदरख की एक गाँठ,लहसुन की दो कली, नमक की डली आदि उधार माँगे जाते समय इसका भरपूर आनंद लिया जा सकता है।भले इस आनन्द के नशे में यह भी भूल जाएँ की गैस के चूल्हे पर रखा हुआ दूध उबलकर कोयला बन जाए। पानी खौल-खौल कर चिल्लाए कि मुझे उतारो- मुझे उतारो ,मैं जला , उड़कर आसमान की ओर चला।मगर वहाँ है ही कौन जो उसकी सुने!वहाँ तो देवी जी 'चुगलानंद' की चुहल में चूर हैं। आनंद से सराबोर हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में तो 'चुगलानंद' की अनंत संभावनाएं हैं।गली के नुक्कड़ पर बतियाते, मेलों में धकियाते,घूरे पर कूड़ा गोबर फेंकते,कढ़ाई में सब्जी छोंकते,चूल्हे में लकड़ी ईंधन झोंकते,किसी को कोई वस्तु सौंपते,गाय भैसों की सानी- पानी, नदी पर नहाते,कपड़े धोते, विवाह- शादी,तीज- त्योहार, दशहरा,होली, दीवाली आदि अनन्त अवसर औऱ स्थान हैं ; जहाँ ग्रामीण जनानियाँ अपनी जीभ का भार कम करतीं औऱ कानों का उद्धार करतीं तथा प्रचार में गल्पोपहार उलीचतीं देखी जा सकती हैं।
सारांशतः यही कहा जा सकता है कि 'चुगलानंद' का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत और अखिल विश्व में व्याप्त है। अब इसमें व्यंग्यकार का क्या दोष कि पुरुष के हिस्से में इस आंनद का अल्पांश ही आ सका है। सारा श्रेय जनियों ने ही ले लिया।अरे मित्रो ! वे मेहनत भी तो करती हैं औऱ नि:शुल्क लाभान्तरण कर 'समाज -हित!' करती हैं। यह काम अहर्निश बारह मास चौबीस घण्टों अनवरत चलता रहता है। 'चुगलानंद' तो धाराप्रवाह बहता रहता है।किंतु कोई भी इस अदा को अच्छा न बुरा कहता है । अरे भाई क्यों कहे कोई!जब प्रकृति ने ही यह सौगात जनी के लिए बनाई। क्या करें ताऊ और क्यों रोकें दाऊ! यदि यह खासियत जनों में झनझनाई, तो उसे भी मिल जाती है पदवी : 'आधी लुगाई'।
🪴 शुभमस्तु !
22.10.2022◆ 8.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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