454/2022
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✍️ शब्दकार ©
🪹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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सुख का छिलका जब हटा,दुख ही दिखा अपार।
लगा,न छिलका था कभी,लटकी घौद हजार।
सब छिलका - आंनद में, खोए हैं भरपूर।
हटा, न छिलका झाँकते,क्या भीतर का नूर।।
क्षीणदेह छिलका क्षणिक,जब छीला हे मीत
गूदा दर्दों का चुभा, रहा नहीं संगीत।।
छिलके की रंगीनियाँ,देखी चमक सुगंध।
मद में भूला आदमी, होता मति से अंध।।
छिलका ही सब चाहते,जैसे कंबल सौर।
नहीं चाह कंबल हटे,गरमाए कुछ और।।
छिलका -गूदे का रहा, सदा एकलय संग।
दोनों का अस्तित्व है,दोनों का ही रंग।।
बिना रात दिन भी नहीं,दुख सुख का है साथ
फल में गूदे से जुड़ा, छिलका तेरे हाथ।।
जीवनफल सबको मिले,कटहल हो या आम
कहीं शूल का संग है, छिलका बहु आयाम।।
छिलके के नीचे छिपे,जीवन फल के रंग।
अलग सभी छिलके सजे,अलग सभी के ढंग
छिलका -गूदा एक सँग,जन्मे फल का रूप।
नहीं पृथक होते कभी,पर्वत हो या कूप।।
'शुभम्'कर्म फल से बढ़े,गूदा-छिलका भार।
हाथों में भवितव्य है, सींचें विविध प्रकार।।
🪴शुभमस्तु !
30.10.2022◆2.45
पतनम मार्तण्डस्य।
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