गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022

मुक्ता ढूँढ़ रहा हूँ! ⚪ [ गीत ]

 431/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धीरे - धीरे उतर सिंधु में,

मुक्ता ढूँढ़ रहा हूँ।


नहीं   जानता  कहाँ  मिलेंगे,

चमकीले   वे   मोती।

चमक देख आँखें चुंधियातीं,

जिनकी कीमत होती।।

तट से  नीचे   जाता  भीतर ,

जागृत खूब बहा हूँ।


परखी परख किया करते हैं,

तट के सिल क्या जानें।

जिनका हृदय पंप लोहू की,

वे क्यों कब पहचानें!!

प्रसव-पीर-सी पल-पल झेली,

अंतर्वेद दहा हूँ।


अक्षर, शब्द, छंद ,वाक्यों का,

माँ देती   शुभ बीड़ा।

भावों   के   रँग   में  रँगती  है,

मम अंतर की पीड़ा।।

काव्य चमक से चर्म-चक्षु की,

पीड़ा गहन सहा हूँ।


आओ   मीत  साधना कर लें,

फल मीठा होता है।

'शुभम' शस्य वह लाता घर में,

बीज स्वस्थ बोता है।।

कठिन   साधना ने रँग  लाया,

युग में आज लहा हूँ।


🪴 शुभमस्तु !


19.10.2022◆8.40 प.मा.

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