शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2022

गाय-भैंस वार्ता 🐃🐄 [ व्यंग्य ]

 451/2022

 

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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🐃🐄 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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 चारागाह में पास-पास चरती हुई गाय - भैंस में अपनी भाषा शैली में कुछ वार्ता प्रारंभ हो गई।भैंस ने गाय से जिज्ञासा पूर्ण महत्वपूर्ण प्रश्न किया: - "हे गौ माता ! तुम एक पालतू पशु हो और मैं भी एक पालतू पशु ही हूँ;किंतु मनुष्य के द्वारा हम दोनों के साथ इतना भेदभाव और ऊँच - नीच का व्यवहार क्यों किया जाता है? तुम्हें ये तथाकथित हिंदू जन गौमाता कहते हैं और मेरा गाढ़ा - गाढ़ा दूध निकालकर पीने के बाद भी मुझसे घृणा करते हैं।मेरे साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं।इस विषय में तुम्हारा क्या विचार है?" 

  सीधी-सी गाय को भैंस की जिज्ञासा से तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ और बोली: हे भैंस बहन! पहली बात तो ये है कि तुम भी स्वार्थी मनुष्य की तरह ठगाई की भाषा बोलकर ये गौमाता ! गौमाता : का गीत मत गाओ। मैं किसी मनुष्य की कोई गौमाता नहीं हूँ। मैं माता हूँ मात्र अपनी संतान की ; अपने बछड़े- बछेड़ी की , न कि किसी मनुष्य की।मैंने उसे कब जना! मेरा दूध केवल मेरे बच्चों के लिए है ।आदमी तो स्वार्थवश उसे चुराता है। मना करती हूँ ,लतियाती हूँ तो मेरे दोनों पिछले पैरों में रस्सी बाँधकर भी छीनने से बाज नहीं आता।कभी- कभी तो मेरे नाक के दोनों नथुनों में भी रस्सी डालकर उत्पीड़ित करता है। हर तरह से मुझे अपना गुलाम ही बनाकर छोड़ दिया है उसने।क्या करूँ मेरी भी अपनी विवशता है,तो दूध तो देना ही पड़ता है। वरना प्रकृति ने मेरे स्तनों में निर्मित किया गया दूध मनुष्य के लिए थोड़े ही दिया है! मेरे शावकों कर लिए ही तो है ।"

   इतना कहने के बाद गाय थोड़ा रुकी। तब तक भैंस घास चरने के लिए थोड़ा झुकी औऱ स्वीकृति में अपना बड़ा श्यामल शीश औऱ दो बड़े -बड़े सींग हिलाते हुए कहने लगी :"ठीक ही कहती हो गौ बहिन जी। ये आदमी सचमुच ही बड़ा लालची, स्वार्थी और कृतघ्न है।ये अपने ही स्वार्थ में इतना मग्न है कि उसके आगे उसे कुछ भी नहीं सुहाता।" बीच में भैंस - वचन को अल्पविराम देते हुए गाय कहने लगी: "ये लोग मुझे मरखोर देखते हुए गौमाता कहने लगे औऱ तुम्हें काली भैंस।जो टेढ़ा होता है ,वही इनके समाज में पूज्य होता है। तुम सीधे-सीधे दूध दुहने देती हो , तो तुम्हें कोई भैंस - माता नहीं कहता।इसी प्रकार बकरी, भेड़, ऊँटनी जैसे अनेक ढोरों का दूध निकाल कर पी जाता है ,किन्तु किसी को माँ नहीं कहता।क्योंकि वे सीधी हैं,अशक्त हैं।इसलिए जबरन टाँग पकड़ कर भी दूध छीन सकता है। मैं तो आज से तुम्हें "महिषी " अर्थात रानी  की पदवी प्रदान करती हूँ  वे कहते रहें मुझे माता , मैं तो तुम्हें  महिषी ही मानूँगी  ।   " 

    " इस इंसान की दूध की हवस जीवन भर नहीं बुझती।बचपन में अपनी जननी का पीता है , फिर बड़ा होकर तुम्हारा, मेरा , बकरी का औऱ न जाने किस किसका! कभी चाय में तो कभी किसी और तरह से हमारे दूध का पीछा नहीं छोड़ता।कभी ठंडा कभी गरम। कभी मीठा कभी फीका।कभी मिष्ठान्न में तो कभी छाछ, मलाई ,नवनीत, दही ,घी के रूप में ।  " 

     अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए गाय ने अपना कथन को गति प्रदान करते हुए कहा : "हास्यापद और मजे की बात है कि हिंदुस्तान भर में मनुष्य के द्वारा जो दूध छीना (ज़बरन दुहा) जाता है ,उसमें हमारी भैंस बहनों की ही सत्तर प्रतिशत से भी अधिक की हिस्सेदारी है। लेकिन इस रूढ़िवादी मूर्ख मनुष्य को कौन समझाए कि जब ऐसा ही है तो माता भैंस को कहना चाहिए या शेष तीस प्रतिशत में गाय ,बकरी ,भेड़ आदि की जो भागीदारी है ,उनमें से केवल गाय अर्थात मुझे माता की पदवी देनी चाहिए? अब तो 'कैमिकल- माता' को भी बहुत बड़ा श्रेय देने का समय आ गया है ,जिसमें बनावटी दूध बनाकर 'जनहित?'किया जा रहा है या वह अपने ही पैरों में 'दूध की कुल्हाड़ी' मार कर आत्मघात कर रहा है!"

  इसी बीच भैंस कहने लगी : "मुझे भी तुम्हारी जैसी एक हँसी की बात याद आ गई।" गाय बोली:"अब कह रही हो,तो कह ही डालो। वरना पेट में दर्द हो जाएगा। बात पचेगी नहीं और दर्द से कराहती रहोगी तुम। इसलिए बिना विलंब किए कह डालो।" 

      "तो सुन भी लो।हाँ, परन्तु एक बात है, बुरा मत मानना।"भैंस ने कहा। "ठीक है , बड़ी बहन जी।फ़रमाओ!"गाय ने स्वीकृति प्रदान की। "जब ये मनुष्य लोग तुम्हें गौमाता तो मानते हैं , माना। परन्तु तुम्हारे 'उनको' अर्थात साँड़ बाबा को पिता भी मानते भी हैं या नहीं? कि बिना पिता के ही कोई गौ माता बन जाएगी? " भैंस ने अपनी बात पूरी करते हुए अपने बड़े -बड़े दंत- दर्शन से गाय की स्वीकृति में उसकी ओर आशा भरी दृष्टि से निहारा। गाय किंचित शरमाई औऱ बोली:"इस प्रश्न का उत्तर तो उसी से मिलेगा। चलो दोनों वहीं चलती हैं ।जो हमें यहाँ चराने के लिए लाया है। परन्तु आदमी भी उनका सवाल सुनकर सुन्न हो गया है। क्या प्रत्युत्तर दे बेचारा! 

 🪴 शुभमस्तु !

 28.10.2022◆12.30पतन्म मार्तण्डस्य।

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