406/2022
[तृषा,मृषा,मृदा,मृणाल,तृषित]
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✍️ शब्दकार©
🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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🌱 सब में एक 🌱
तृषा देश -अनुराग की,दिखा न वाणी बोल।
कर्मों में आकार दे, कर सेवा अनतोल।।
स्वाध्याय मन की तृषा, तृप्त करें सद्ग्रन्थ।
दिग्दर्शक होते सदा,दिखलाते शुभ पंथ।।
रसना पर जिसके लिखे,सदा मृषा ही बोल।
जीवन में उसके घुला, विष का धीमा घोल।।
नापतोल कर बोलिए,नहीं मृषा आलाप।
अशुचि बोल होते सदा, वक्ता को ही पाप।।
मृदा सदा पावन वही,जन्म लिया जिस देश।
गंगा यमुना- नीर से,निर्मल तन,मन, वेश।।
मातृभूमि पावन मृदा,लगा तिलक निज भाल
कूद पड़े रणबाँकुरे, ठोक युद्ध की ताल।।
अरि की भुजा मृणाल-सी,तोड़ी क्षण में एक
वीर सिंह हैं देश के,लगा जीत की टेक।।
खिलता पुष्प मृणाल पर,देख हुआ मन भृंग
परित: मँडराता रहा, चटख गुलाबी रंग।।
सदा देशहित के लिए,तृषित रहा मैं मीत।
कविता में गाता सदा,देशप्रेम के गीत।।
मेरा देश महान हो,यही तृषित की चाह।
'शुभम्' समर्पित देश को,करता है अवगाह।
🌱 एक में सब 🌱
तृषित मृदा की वर तृषा,
मृषा न होती मीत।
उगते पद्म तड़ाग में,
शुचि मृणाल की जीत।।
🪴 शुभमस्तु !
12●10●2022◆ 7.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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