गुरुवार, 27 अक्तूबर 2022

गाँव की पगडंडियाँ 🛖 [ गीत ]

 446/2022


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✍️शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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               [नवगीत ]

शहर  को  जाने  लगी  हैं,

गाँव की  पगडंडियाँ।


आदमी  को  देखक र ही,

जल उठा है आदमी,

बाल - बच्चों  को   बचाना,

हो गया अब लाजमी,

कुकर  के  धर  वेष  सारी ,

आ  गई  हैं  हंडियाँ।


खेत का  हल  कर न पातीं,

बैल की वे जोड़ियाँ,

मेंड़ पर   बजती   नहीं   हैं,

रुनक रुनझुन तोड़ियाँ,

ट्रैक्टरों    का   शोर    भारी,

खेत, सड़कें,  मंडियाँ।


दीखता   जावक  न  पग  में,

टाँग जाँघों तक खुलीं,

साठ   सालें   पार  कर   लीं,

पर अभी वे  चुलबुलीं,

उम्र बाइस की बतातीं,

देह पर  हैं  बंडियाँ ।


नीम के    पेड़ों  तले  की,

छाँव  के  लाले  हुए,

दास ए. सी.  के  बने   हैं,

बोतलों के ही कुँए,

धान  जौ बाली  न  जानें,

ग्रीष्म, पावस, ठंडियाँ।


🪴 शुभमस्तु !


27.10.2022◆9.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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