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✍️शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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[नवगीत ]
शहर को जाने लगी हैं,
गाँव की पगडंडियाँ।
आदमी को देखक र ही,
जल उठा है आदमी,
बाल - बच्चों को बचाना,
हो गया अब लाजमी,
कुकर के धर वेष सारी ,
आ गई हैं हंडियाँ।
खेत का हल कर न पातीं,
बैल की वे जोड़ियाँ,
मेंड़ पर बजती नहीं हैं,
रुनक रुनझुन तोड़ियाँ,
ट्रैक्टरों का शोर भारी,
खेत, सड़कें, मंडियाँ।
दीखता जावक न पग में,
टाँग जाँघों तक खुलीं,
साठ सालें पार कर लीं,
पर अभी वे चुलबुलीं,
उम्र बाइस की बतातीं,
देह पर हैं बंडियाँ ।
नीम के पेड़ों तले की,
छाँव के लाले हुए,
दास ए. सी. के बने हैं,
बोतलों के ही कुँए,
धान जौ बाली न जानें,
ग्रीष्म, पावस, ठंडियाँ।
🪴 शुभमस्तु !
27.10.2022◆9.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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