मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

दीप अकेला [ गीत ]

 632/2025

       

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दीप अकेला

करे उजेला

अँधियारे को चीर।


माटी का तन 

सोने-सा मन

भरे नेह का तेल

श्वेत  वर्तिका

बनी नर्तिका

सिखलाती है मेल

मुँह में आग 

सुलगती जलती

जतलाती धर धीर।


 जिसको पाना

 उसको खोना 

कुछ तो होता त्याग

पुष्प खिला जब

महक उठा तब

जाग्रत होता भाग

जब प्रकाश हो

बँधी आश हो

महके  तेज उशीर।


आज दिवाली

खूब मना ली

आतिशबाजी धूम

सभी मग्न हैं

लगी लग्न है

नर्तित बालक घूम

भूखे पेट न कोई सोए

दूध बिना शैशव क्यों रोए

लिखी हुई तकदीर।


शुभमस्तु !


20.10.2025● 11.00 प०मा०

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