सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

कौन नहीं सुख चाहता! [ दोहा ]

 644/2025

  

      

        [सुख,दुख,मिलन,विरह,भाव]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                   सब में एक

कौन     नहीं   सुख   चाहता,जनहंता या   चोर।

परपीड़क   के   मन बसा,  दुखद भाव पुरजोर।।

सुख-दुख   हैं   दिनरात-से, चले निरंतर   चक्र।

कभी  दुग्धवत  दिवस  है,कभी तमस का   वक्र।।


कभी    किसी भी जीव  को,दुख मत देना  मित्र।

कर्मों    से     तेरे    खुले,    दूषित    दृष्ट चरित्र।।

दुख दोगे  दुख  ही मिले,अटल सत्य यह   जान।

बोए     बीज    बबूल    के ,  उगे   शूल बागान।।


मिलन - विरह   दो   रंग हैं,  जीवन के दो सत्य।

सदा   नहीं   समता   रहे,अटल जगत का तथ्य।।

प्रणय - मिलन की रात को,कौन भूलता आज।

खुले   नया  अध्याय  भी,सजे शीश पर   ताज।।


पिया   मिलन   के बाद  में,नहीं विरह की रात।

काटे   भी   कटती   नहीं ,याद  करे हर बात।।

प्रोषितपतिका  के  लिए, दुसह विरह की रात।

नहीं   दिवस   में   चैन  है,तप्त  सदा ही गात।।


सदा भाव     में   ईश का, होता  अटल  निवास।

अटकी   है   सद्भक्त   की,  वहीं भक्ति की श्वास।।

भाव बिना भगवान   भी,  कभी  न  मिलते  मीत।

शबरी    ने    सद्भाव    से, लिए  राम  भी जीत।।


               एक में सब

विरह मिलन सुख दुख सभी,जीवन के बहु भाव।

नहीं   नियंत्रण   व्यक्ति   का, मरहम भी वे   घाव।।


शुभमस्तु !

25.10.2025●10.45प०मा०

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