619/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
बदली-बदली
हवा चली है
उड़ते विकट बगूले हैं।
पापा जी की
परियाँ उड़तीं
गंधरवी नर खूब उड़ें
रील अधिक
रीयल है किंचित
मोड़ें तो भी नहीं मुड़ें
झिंझरीदार
झूलते तन पर
मैले छिद्र झंगूले हैं।
नित्य बहाने
मात-पिता से
घर में काला बाजारी
सम्मुख उनके
भोले भाले
दिखलाते निज लाचारी
नहीं फली भी
एक तोड़ते
संतति हुक्म-उदूले हैं।
शिष्टाचार
भाड़ में झोंके
चरण नहीं छूते जाँघें
ऐश और
आराम चाहिए
नीति नियम खूँटी टाँगें
लगते नहीं
मनुज धरती के
माटी के सब चूले हैं।
शुभमस्तु !
13.10.2025● 4.15 प०मा०
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